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अतिशय भावुकता का जमाना था वह, जब नेहरू जी/ गांधी जी दिवंगत हुए थे

 

-गोविंद प्रसाद बहुगुणा
मैं बीए की परीक्षा देकर अपने पिता जी के पास दयारा बाग, टिहरी में गर्मियों की छुट्टियां बिताने आया था, जहां उन दिनों पिता जी की पोस्टिंग डिवीजनल फारेस्ट ऑफिस में थी । घर में अखबार के अलावा कुछ नहीं था , वह भी रोज शाम को डाक से प्राप्त होता था -रेडियो भी नहीं था ।

उस दिन यानी 27 मई 1964 को मैं शाम को दयारा बाग के निकट एक छोटे से मार्केट -“भादू की मगरी” तक टहलने गया तो एक दुकान के बाहर लोगों की भीड़ इकट्ठा देखी थी , सबके चेहरे उदास और रुआंसे दिख रहे थे , मेरा साहस नहीं हुआ कि उनसे कुछ पूछूं परंतु तभी उस भीड में से दयारा बाग के रहने वाले एक सज्जन श्री सुंदर सिंह जी गोसाई दिखाई दिए , जो मेरे पिता जी के परम मित्र और कार्यालय सहयोगी भी थे , उन्होंने ही बताया मुझे -अरे बेटा , नेहरू जी का स्वर्गवास हो गया है , इसके आगे उन्होने कुछ नहीं कहा, मेरी भी हिम्मत नहीं हुई कुछ पूछने की- इतना झटका देने वाले समाचार था वह क्योंकि हमारी पीढ़ी के लोग किसी राष्ट्रीय स्तर के नेता की मृत्यु को अपनी व्यक्तिगत क्षति मानते थे ।

मैं भागकर घर पहुंचा और पिता जी को यह खबर सुनाई। पिता जी ने सिर्फ अपना सिर हिलाया, मानों उन्हें सब पता है । उस रात पिता जी ने कहा- कुछ खाने का मन नहीं हो रहा सिर्फ एक गिलास दूध पिऊंगा।हमने भी उस रत बुझे मन से भोजन किया ।

अगले दिन अखबार जरा जल्दी आ गया । हिन्दी का “दैनिक हिन्दुस्तान” ही पिता जी पढ़ते थे ।आदतन वह एक -एक अक्षर चाट जाते थे, ऐसा तन्मय होकर पढ़ते थे । फिर verbatim लोगों को सुना देते थे ऐसी याददाश्त थी उनकी । पिताजी सुनाने लगे जे बी कृपलानी ने नेहरू जी की मृत्यु पर क्या बोले , मालूम है ? – “जवाहर मुझसे सिर्फ एक साल छोटे थे लेकिन मुझसे ग्यारह गुणा सभ्य और भले इंसान थे ,मैं उनसे अब कभी लड न पाऊंगा।” यह सुनकर मैरे मन में भी भावुकता का ज्वार उठ गया और मैं भी नेहरु जी की मृत्यु पर अपने भाव व्यक्त करते हुए एक श्रद्धांजलि लेख लिखने की तैयारी करने लगा I

अपने झोले में रखी एक किताब उठाकर एकांत में बैठकर मैं नेहरू जी पर लेख लिखने की कोशिश करने लगा , वह भी हिंदी में नहीं बल्कि अंग्रेजी में । बीए में हमारे जनरल इंग्लिश की कोर्स की किताब में शरीर की नश्वरता और आत्मा की अमरता पर महर्षि अरविन्दो घोष का एक बहुत सुन्दर लेख था जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया था क्योंकि उस लेख में अनसुने कई संगीतमय शब्दों ने मुझे मोहित किया हुआ था , मै उसी लेख से बहुत से पर्यायवाची शब्द टीप- टीप कर अपने लेख में घुसाने लगा I आज अपनी इस मूर्खता पर हंसी बहुत आती है और शर्म भी आती है । मैंने अपना लिखा वह लेख पिता जी को दिया और उनसे कहा कि इसक़ो अपने दफ्तर में किसी अच्छे टाइपिस्ट से टाइप करवा दीजिए। पिता जी कुछ नहीं बोले ई

उन्होंने वह लेख टाइप करवा दिया और उसकी टाइप कॉपी मुझे थमाते हुए कहा कि -कहाँ से उठाकर लाये तुम ये कठिन शब्द ! अरे आम पाठक डिक्शनरी लेकर थोड़े पढ़ने लगता है अखबार ! खैर मैंने वह लेख रजिस्टर्ड डाक से दैनिक हिंदुस्तान के वरिष्ठ उप संपादक और अपने रिश्ते के चाचा स्व० देवी प्रसाद जी नौटियाल को भेज दिया, जो मेरे पिताजी के सगे ममेरे भाई थे I लेख के साथ एक चिट्ठी भी चाचा जी को डाल दी कि वह कृपया अपनी सिफारिश लगाकर इसे हिंदुस्तान टाइम्स में छपवा देंगे ।

एक हफ्ते की प्रतीक्षा के बाद मैंने रोज अंग्रेजी का हिन्दुस्तान टाइम्स खरीदना शुरू कर दिया यह सोचते हुए कि क्या पता आज ही इसमें मेरा लेख छपा हुआ मिल जाय। देखो मूर्खता की भी हद होती है और वह हद मैं था। क्योंकि मैं कोई जाना पहचाना लेखक नहीं था और नहीं कोई बड़ा नेता पूरे २० दिन बाद वह लेख मुझे खेद के साथ एक छपी छपाई चिट्टी सहित वापस मिल गया लेकिन उसमें एक टिप्पणी हाथ से लिखकर जोड़ी गई थी कि इसका एक अंश हम लेटर टु एडिटर में छाप रहे हैं कृपया देख लें किन्तु उसका कोई पारिश्रमिक आपको नहीं मिलेगा। मुझे बहुत निराशा हुई ।

आज सोचता हूं कि यदि वह लेख छापने योग्य होता तो वहां उस समय भावावेश में लिखे ऐसे हजारों लेख संपादक महोदय को प्राप्त हुए होंगे । यह किस्सा भी नेहरु जी की याद में मेरी स्मृति से हमेशा जुडा रहेगा I वर्ष २०११ में जब मैं बंगलुरु से पुड्डुचेरी सपरिवार घूमने गया था तो वहां समुद्र तट पर स्थित अरबिंदो आश्रम को देखकर मुझे उसी लेख की याद आ गयी जो वर्षों पहले मैंने पढ़ा था ।

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