एक क्रांति के आह्वान की तारीख है 9 अगस्त, 1942
–अनिल चमडि़या
हलचलों से भरी लगभग सत्तर साल पहले की दुनिया में 9 अगस्त का दिन अपने देश के संदर्भ में खास तौर से अंग्रेजों भारत छोड़ो नारे के लिए याद किया जाता है। 9 अगस्त 1925 को भी ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ अपना आक्रोश प्रगट करने के लिए स्वतंत्रता संग्राम के दस क्रांतिकारी साथियों ने ट्रेन में ब्रिटिश सरकार के खजाने को लूटने की कार्रवाई की थी और उसे इतिहास में काकोरी कांड के नाम से जाना जाता है। 9 अगस्त 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर आखिरी और दूसरा परमाणु बम गिराया गया था। महात्मा गांधी ने 9 अगस्त 1942 को अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया लेकिन शहीद भगत सिंह ने काकोरी कांड के बाद उसकी याद को ताजा रखने के लिए हर साल 9 अगस्त को स्मृति दिवस मनाने की एक परंपरा डाल दी थी और वह परंपरा गांधी के अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन से जनमानस को जोड़ने की पृष्ठभूमि के रूप में काम आई।
भारतीय राजनीति में आम जन को आंदोलित करने के लिए आज जितने भी नारे लगाए जाते हैं, लगभग उन सभी नारो में स्वतंत्रता आंदोलन के गर्भ से उपजें नारों की छाया मिलती है। इसीलिए किसी भी आंदोलन का महत्व केवल उस तात्कालिक समय के लिए नहीं होता है।वह गुलामी जैसी स्थिति के खिलाफ और लोकतंत्र व बराबरी के लिए लोगों की चेतना का हिस्सा हो गया है। महात्मा गांधी ने ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी की खिलाफ जनमानस को संपूर्ण आजादी का एहसास कराने के लिए ही असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, करो या मरों और अंग्रेजों भारत छोड़ों जैसे आह्वान किए। ये नारे मौके की नजाकत की समझ के हिस्से हैं। अंग्रेजों भारत छोड़ों में एक गुस्सा दिखता है क्योंकि महात्मा गांधी भारत में जिस तरह के एक आजाद समाज की रचना करना चाहते थे उसके दूरगामी नतीजों को भांपकर ब्रिटिश शासक अपनी चालबाजियों को अंजाम देने में लगे थे और समाज के विभिन्न हिस्सों में असंतोष भी बढ़ रहा था। 1942 में ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा भारत को दो हिस्सों में बांट देने की साजिश बिल्कुल स्पष्ट हो चुकी थी और ये भी स्पष्ट हो गया था कि देश की साम्प्रदायिक ताकतें इस विभाजन को रोकने के बजाय उसमें सहयोगी होने की इच्छा रखते हैं। ब्रिटिश साम्राज्य ने आयरलैंड में रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट मत को मानने वाले ईसाईयों में दंगे कराये और एक लंबे संघर्ष के बाद जब आयरिश जनता के आजादी के आंदोलन को दबाने में सफल नहीं हुए तो उन्होने आयरलैंड के उत्तरी जिलों को शेष हिस्से से काटकर उसे स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया। नाइजीरिया का बंटवारा उन्होने वहां से लौटने के बाद कराया । फिलिस्तीन में अरबी और यहूदियों , सुडान में नीग्रों और अरबों के बीच लडाईयां उन्होने करायी। पूंजीवादी शासक का लगाव धर्म से नहीं होता वह धर्म आधारित अलगाववाद की राजनीति अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए करते हैं।
‘भारत छोड़ो’ आंदोलन को बर्बरता से कुचल दिया गया। 8 अगस्त को कांग्रेस वर्किंग कमेटी के फैसले के तत्काल बाद ब्रिटिश सरकार ने ये तय कर लिया था कि इस आंदोलन को कुचलकर महात्मा गांधी की ताकत को इतना कमजोर कर देना हैं ताकि वे भविष्य की साजिशों को रोकने में सक्षम नहीं हो सकें। अहले सुबह कांग्रेस के सारे बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए। दमन का ये आलम था कि उस वक्त इस आंदोलन में 940 लोग मारे गए। 1630 लोग घायल हुए और देशद्रोह के आरोप में 18000 लोगों को गिरफ्तार किया गया तो 60229 लोगों को भारतीय दंड विधान की अन्य धाराओं के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।लेकिन ये आंकड़े सरकारी है। संभव है कि इतने बड़े पैमाने पर दमन हुआ तो बहुत तरह की दमनकारी घटनाएं इन आंकड़ों में समाहित होने से रह गई हो। इस आंदोलन को दबाने में ब्रिटिश सरकार को लगभग एक वर्ष लग गए थे जबकि महात्मा गांधी समेत तमाम नेताओं को आंदोलन के आह्वान के साथ ही गिरफ्तार कर लिया गया था।
किसी भी आंदोलन के लिए एक वैसे समय और नारे का चुनाव किया जाता है ताकि व्यापक समर्थन मिलने की संभावना हो। समय के लिहाज से ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आह्वान अनुकूल कहा जा सकता है क्योंकि युद्दों में फंसे ब्रिटिश साम्राज्य की हालात बेहद कमजोर हो गई थी। लेकिन अंदरूनी स्थितियां उस रूप में अनुकूल नहीं थी। अंग्रेजों के लिए ‘भारत छोड़ो’ का नारा था तो उसके साथ अपने देश के लोगों के लिए ‘करो व मरो’ का नारा था। लेकिन अंदरूनी राजनीति के भीतर कई स्तरों पर भिन्न विमर्श मौजूद थे। साम्प्रदायिक शक्तियां इस आंदोलन से बाहर थी। धर्म आधारित राष्ट्रीयता पर एक हिस्सा जोर दे रहा था। सुभाष चंद्र बोस ने भी ब्रिटेन के हालात को भांपकर दिल्ली चलों का नारा दिया था। दरअसल एक राजनैतिक नारा और उस पर आधारित आंदोलन देश दुनियां के कई राजनीतिक घटनाक्रमों को समेटे रहता है। अंग्रेजों ‘भारत छोड़ो’ का नारा महात्मा गांधी की ओर से स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई के अंतिम नारे के रूप में सामने आया। उन परिस्थितियों को और गहराई से समझा जा सकता है कि कांग्रेस नेतृत्व के जेल में होने के बावजूद यह आंदोलन महिनों चलता रहा और सरकार को उसे दबाने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ी।
दक्षिण अफ्रीका से लौटकर भारत आने के बाद महात्मा गांधी की कमान में आंदोलन के आने के कई चरण रहे हैं और सभी चरणों में उन्होने जन मानस के चेतना को समझकर आंदोलन के नारे तय किए और जनमानस को अगले नारे के साथ खड़ा करने की तैयारी की। भारत छोड़ों गांधी के नेतृत्व में तीसरा बड़ा आह्वान था। सविनय अवज्ञा, असहयोग आदि आंदोलन बिटिश हुकूमत के मातहत रहकर उनकी मुखालफत करने वाले आंदोलन थे। महात्मा गांधी के आंदोलनों को इस रूप में समझा जा सकता है कि वे स्वतंत्रता और स्वराज्य में फर्क करते हैं। स्वतंत्रता स्वराज्य का पर्याय नहीं है। दरअसल संघर्ष और निर्माण की प्रकिया पर महात्मा गांधी का जोर रहा है। भारत छोड़ों का आह्वान कांग्रेस के आंदोलन के बजाय एक जनांदोलन बन चुका था और नेतृत्व के जेल में बंद होने के बावजूद जारी था। ऐसे ही आंदोलन समाज की चेतना का रूप ले लेते हैं।
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* लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और लेख में व्यक्त उनके विचार निजी है।