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मानव जीवन के लिए गिद्धों का अस्तित्व भी बहुत जरुरी

 

The sky burial, or dokhmenashini, is a traditional Zoroastrian practice in which the dead are left in a Tower of Silence (Dakhma) for scavenging birds to consume. But after Cyrus Mistry, now Ratan Noel Tata too could not get the “Tower of Silence (Dakhma)” as per the tradition of the Parsi religion. His body was also cremated at a crematorium in central Mumbai like Hindus instead of leaving it for vultures and other predatory birds on the “Tower of Silence” like some other Parsis. Similarly, on 27 June 2008, the body of Field Marshal Manekshaw was buried on the ground instead of keeping it on the tower. General Manekshaw, Ratan Tata, and Cyrus Mistry are not the rare Parsis whose last rites were done differently from the tradition instead of giving them “Aakash Samadhi”. Actually, due to the huge shortage of vultures in the country that eat dead bodies, Parsis are now having to find alternatives for last rites instead of “Aakash Samadhi” and this change in tradition has come about due to the extreme decrease in the number of vultures due to human-wildlife conflict and anthropogenic reasons. Apart from Parsis, there are other communities whose traditional religious customs are being affected due to the decrease in the population of wildlife animals. We should not forget that the existence of vultures is also very important for human life.–JSR

 

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-जयसिंह रावत

सायरस मिस्त्री के बाद अब रतन नोएल टाटा को भी पारसी धर्म की परम्परानुसार आकाश समाधि नसीब नहीं हो सकी। उनकी पार्थिव देह का भी कुछ अन्य पारसियों की तरह ‘‘टावर ऑफ साइलेंस’’ पर गिद्धों और अन्य मांसाहारी पक्षियों के लिये छोड़ देने के बजाय हिन्दुओं की तरह मध्य मुम्बई के एक शमशान घाट पर दाह संस्कार कर दिया गया। इसी तरह 27 जून 2008 को फील्ड मार्शल मानेकशा की पार्थिव देह को टावर पर रखने के बजाय धरती पर दफनाया गया था। जनरल मानेकशॉ, रतन टाटा और सारस मिस्त्री बिरले पारसी नहीं जिनका ‘‘आकाश समाधि’’ देने के बजाय परम्परा से भिन्न अंतिम संस्कार किया गया। दरअसल देश में मुर्दे खाने वाले गिद्धों की भारी कमी के चलते अब पारसियों को ‘‘आकाश समाधि’’ के बजाय अंतिम संस्कार के विकल्प तलासने पड़ रहे हैं और यह परम्परा परिवर्तन मानव वन्य जीव टकराव और मानवजनति कारणों से गिद्धों की संख्या में अत्यन्त कमी के कारण उत्पन्न हुआ है। पारसियों के अलावा भी अन्य समुदाय हैं जिनके परम्परागत धार्मिक रिवाज वन्यजीव जन्तुओं की आबादी के घटने के कारण प्रभावित हो रहे हैं। मानव जीवन के लिए गिद्धों का अस्तित्व भी बहुत जरुरी है।

परंपरागत रूप से, जोरास्ट्रियन या पारसी अपने मृतकों के शवों को एक ऊंचे बुर्ज पर रख कर उन्हें ‘‘आकाश समाधि’’ देते हैं जिसे ‘‘टावर आफ साइलेंस’’ (दखमा) कहा जाता है। यह परम्परा बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है। इस संस्कार में शवों को चील जैसे मांसाहारी नभचरों को खाने के लिये छोड़ दिया जाता है। लेकिन हाल के वर्षों और खास कर नब्बे के दशक के बाद गिद्धों की संख्या इतनी कम हो गयी कि ‘‘टावर ऑफ साइलेंस’’ पर रखे गये शवों को खाने वाले गिद्ध जैसे मांसाहारी पक्षी नजर नहीं आ रहे हैं। इसीलिये हाल के वर्षों में, भारत में पारसी समुदाय के अधिकांश सदस्यों ने पारंपरिक ‘‘टॉवर ऑफ साइलेंस’’ के बजाय दाह संस्कार का या फिर दफन का विकल्प चुनना शुरू कर दिया है। फ्री प्रेस जर्नल की एक रिपोर्ट के अनुसार 15 से लेकर 20 प्रतिशत तक पारसी शवों को दंाह संस्कार होने लगा है।

 

गिद्धों की गंभीर संकटापन्न स्थिति के कारण ही उन्हें वन्यजीव अधिनियम 1972 की अनुसूची एक में शामिल किया गया था। विश्व वन्यजीव निधि (डब्लुडब्लुएफ) की ताजा लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट के अनुसार भारत में सफेद पूंछ वाले गिद्धों की आबादी 67 प्रतिशत, भारतीय गिद्धों की 48 प्रतिशत और पतली चोंच वाले गिद्धों की आबादी में पिछले पांच दशकों में में 89 प्रतिशत की कमी आयी है। भारत में गिद्धों की 10 प्रजातियां पायी जाती है। बहुत पहले की बात नही है, कभी देशभर में गिद्धों की संख्या 5 करोड़ के आसपास मानी जाती थी और अब ताजा अनुमानों के अनुसार इनकी यह आबादी 15 से लेकर 20 हजार के बीच ही रह गयी।

दरअसल 1990 के दशक से पहले भारतीय पशुपालक अपने पशुओं के मरने पर गांव के निकट ही किसी स्थान पर उनके शवों को गिद्धों के निवाले के लिये फेंक देते था। गिद्ध एक गाय को लगभग 40 मिनट में खा जाते थे। जब 1994 के आसपास नॉनस्टेरॉइडल एंटी-इंफ्लेमेटरी दवा, डिक्लोफेनैक किसानों के बीच लोकप्रिय हुई तो उन्हें नहीं पता था कि वे अपने सबसे अच्छे सहयोगी गिद्ध को जहर दे रहे हैं। इस दवा का सबसे छोटा सा अंश भी गिद्धों में घातक किडनी फेल्यौर का कारण बनता है, जबकि यह मनुष्यों और अन्य जानवरों के लिए पूरी तरह से सुरक्षित है। गिद्धों की कमी के पहले संकेत 1996 में दिखाई दिए। ऐसा माना जाता है कि इस दवा के घातक प्रभाव से भारत में गिद्धों की आबादी में लगभग 95 प्रतिशत कमी आ गयी। डिक्लोफेनैक पर 2006 के प्रतिबंध के बावजूद, भारतीय गिद्धों की आबादी इस आपदा से कभी उबर नहीं पाई। जन्तु विज्ञानियों के अनुसार गिद्धों को यौन परिपक्वता तक पहुंचने में कई साल लगते हैं और वे बहुत कम संतान पैदा करते हैं। एक जोड़ा प्रति वर्ष एक चूजे को जन्म देता है और उसका पालन-पोषण करता है, और उसके जीवित रहने की गारंटी भी नहीं होती है।

गिद्ध की भी प्रकृति में एक महत्वपूर्ण भूमिका है और उनके बिना पारिस्थितिकी तंत्र का पतन होना तय है। इसके अलावा यह नभचर ऐसी अनूठी सेवाएँ प्रदान करते हैं जिनकी भरपाई अन्य प्राकृतिक रूप से सफाई करने वाले जीव नहीं कर पाते हैं। पकृति ने गिद्ध का श्रृजन सड़ गल रहे जीव शरीरों से धरती से साफ करने के लिये किया है। प्रकृति ने शवों पर पनपने वाले रोगजनक विषाणुओं की भारी मात्रा से बचने के लिए गिद्धों के अन्दर एक अत्यंत अम्लीय पेट विकसित किया। इस प्राकृतिक व्यवस्था के बलबूते एक गिद्ध रोगजनक सड़े गले मांस को आसानी से हजम कर लेता है और पर्यावरण से उस हानिकारक गंदगी को साफ कर लेता है जिससे अन्य जीवधारियों में बीमारियां नहीं फैलतीं।, चूंकि कुत्तों और चूहों का पेट गिद्धों जितना अम्लीय नहीं होता, इसलिए संक्रामक रोग बढने की संभावना भी बढ़ गयी है।़  लेकिन जब गिद्ध गायब हो जाते हैं, तो आबादी के बाहरी इलाकों में फेंके गये मरे पशुओं का ढेर लगना शुरू हो जाता है जो कि काफी दिनों तक सड़ांध और रोगजनक कीटाणु फैलाता रहता है। सड़ते हुए मांस का ढेर जंगली कुत्तों और चूहों सहित अन्य गंदगी खाने वाले जीवों को आकर्षित करता है। भारत में जंगली कुत्ते आम तौर पर लोगों पर और खासकर छोटे बच्चों पर हमला करते हैं। इन कुत्तों के कारण रैबीज की संभावना बढ़ जाती है।

प्रकृति के सफाईकर्मी गिद्ध पर विनाशकारी प्रभाव के प्रकाश में आने के बाद भारत सरकार ने 2006 में पशुओं पर इस्तेमाल की जा रही डिक्लोफेनैक पर प्रतिबंध जारी कर दिया था। हालांकि यह दवा मवेशियों के लिये घातक नहीं थी मगर इन पशुओं को खाने वाले गिद्धों के लीवर और किडनी पर इसका बहुत ही घातक असर पड़ा जिससे लाखों गिद्ध बेमौत मारे गये। सरकार ने सन् 2015 में मनुष्यों को दी जाने वाली डोज 2015 में, सरकार ने पशु चिकित्सा प्रयोजनों के लिए दवा के दुरुपयोग को रोकने के लिए मानव उपयोग के लिए डाइक्लोफेनैक की पैकेजिंग को एकल खुराक की शीशियों तक सीमित कर दिया था।फिर भी देश में इसका उत्पादन जारी है और सरकारी प्रतिबंध महज एक खानापूरी ही रह गयी है।

 

( नोट- पत्रकार और लेखक जयसिंह  रावत इस न्यूज़ पोर्टल के संपादक मंडल के  मानद सदस्य और अवैतनिक सलाहकार हैं -एडमिन )

 

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