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माई बाप सरकार और गरीब, महंगाई व बेरोजगारी का मुद्दा

-देवेन्द्र कुमार बुड़ाकोटी-

चुनाव के समय राजनीतिक दलों के बीच एक आम मुद्दा हमेशा सामने आता है—बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार और कानून-व्यवस्था। सभी पार्टियाँ नौकरियाँ देने, गरीबी हटाने, महंगाई रोकने और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की बात करती हैं। वे बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा प्रणाली में सुधार का वादा करती हैं और जन्म से मृत्यु तक नागरिकों को सुविधाएँ उपलब्ध कराने की घोषणा करती हैं। यही कारण है कि सरकार को अक्सर ‘माई बाप सरकार’ कहा जाता है।

भारत में परंपरागत रूप से सरकार से जन्म से मृत्यु तक सब कुछ उपलब्ध कराने की अपेक्षा की जाती रही है। औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन के दौरान सरकार जनता की मालिक मानी जाती थी और रोजगार, गरीबी या सामाजिक कल्याण उसकी प्राथमिक चिंता नहीं थी। तब यह प्रचारित किया गया कि गरीबी और बेरोजगारी ब्रिटिश प्रशासनिक ढाँचे और उसके शोषण का परिणाम हैं। प्रथम विश्व युद्ध के बाद जब स्वतंत्रता आंदोलन ने गति पकड़ी, तब राजनीतिक दलों और नेताओं ने जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकार को सार्वजनिक बहस का विषय बनाया। इसी दौर में समाजवादी और साम्यवादी विचारधाराओं ने भूमि सुधार तथा सार्वजनिक सेवाओं पर सरकारी नियंत्रण के माध्यम से गरीबी और भूखमरी उन्मूलन की वकालत की।

स्वतंत्रता के बाद समाजवादी सोच रखने वाले राजनेताओं, योजनाकारों और सिविल सेवकों ने देश के विकास का समाजवादी मॉडल तैयार किया। पंडित नेहरू पर समाजवादी प्रभाव गहरा था और उन्होंने सोवियत संघ से प्रेरणा लेकर पाँच वर्षीय योजनाओं की अवधारणा अपनाई। इस विचारधारा ने ट्रेड यूनियन आंदोलन को प्रभावित किया और वामपंथी बुद्धिजीवियों ने शैक्षणिक संस्थानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारिता के एक बड़े वर्ग पर अपनी छाप छोड़ी। इतिहासलेखन, राजनीतिक विमर्श और सबाल्टर्न आंदोलन तक पर इस विचारधारा का असर दिखा।

नेहरू युग में सरकारी नियंत्रण और पर्यवेक्षण के तहत भारी उद्योगों, सार्वजनिक क्षेत्र, शिक्षा, विज्ञान और तकनीकी संस्थानों में निवेश बढ़ा। यहीं से ‘सरकारी नौकरी’ की अवधारणा मजबूत हुई। नेहरू ने सार्वजनिक उपक्रमों और संस्थानों को ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ कहा। सरकारी मशीनरी के विस्तार ने रोजगार की संभावनाएँ बढ़ाईं। वहीं 1991 में नई आर्थिक नीति के तहत लाइसेंस-परमिट राज को समाप्त किया गया, प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दिया गया और वैश्विक मुक्त व्यापार की राह खोली गई।

फिर भी समाजवादी विरासत का प्रभाव आज तक कायम है। नीति आयोग के पूर्व अध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने बिजनेस टुडे को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि “चाहे नौकरशाही हो, राजनीतिक वर्ग हो, बुद्धिजीवी हों या व्यापारी—सभी में समाजवाद की विरासत आज भी जीवित है।” सरकारी नौकरियों का महत्व इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि कांस्टेबल और चपरासी जैसी नौकरियों के लिए भी इंजीनियर, पीएचडी और एमबीए जैसे उच्च शिक्षित उम्मीदवार आवेदन करते हैं। इसका सीधा अर्थ है कि निजी क्षेत्र वेतन, भत्तों, सुविधाओं और पेंशन जैसी सुरक्षा के मामले में सरकारी नौकरियों की बराबरी नहीं कर पाता। यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या हमारी आर्थिक नीतियों और शैक्षिक योजनाओं ने रोजगार और आजीविका की चुनौतियों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया?

स्वतंत्रता के बाद लगातार बने सरकारी कार्यक्रम जीवन के सभी पहलुओं—जन्म से मृत्यु तक—को कवर करने लगे और इसी ने सरकार को ‘माई बाप सरकार’ के रूप में स्थापित किया। स्वास्थ्य योजनाएँ, एकीकृत बाल विकास योजना (आईसीडीएस), मध्याह्न भोजन योजना, मनरेगा जैसी रोजगार गारंटी योजनाएँ, विधवा, वृद्धावस्था और विकलांगता पेंशन, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), गरीबों के लिए मुफ्त राशन और गैस, आवास व शौचालय योजनाएँ, बैंक खाते खोलने की पहल और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण जैसी नीतियों ने नागरिकों को सीधे सरकार से जोड़ा।

इतना ही नहीं, गरीब परिवारों की शादियों में सहायता, मृत्यु उपरांत शव को अस्पताल से घर तक पहुँचाने जैसी सेवाओं के लिए भी योजनाएँ बनीं। इस प्रकार नागरिक जीवन के हर चरण में सरकार की भूमिका बढ़ती गई। परिणामस्वरूप लोगों की अपेक्षा रही कि सरकार ‘माई बाप’ की तरह उनकी हर आवश्यकता पूरी करे।

पिछले 75 वर्षों की आज़ादी में यह ‘माई बाप सरकार’ की अवधारणा कितनी कारगर रही, यह अलग वैचारिक बहस का विषय है। लेकिन इतना निश्चित है कि आज भी सभी राजनीतिक दल बेहतर ‘माई बाप’ बनने की होड़ में हैं और जनता से वही वादे करती हैं।

(लेखक एक समाजशास्त्री हैं और उनका शोध कार्य नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर अमर्त्य सेन की पुस्तकों में उद्धृत किया गया है)

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