केदारनाथ आपदा के सबक धरे रह गये …..
It has been 11 years since the Kedarnath deluge, but the wounds of that tragedy have not healed yet. It is not possible to estimate the exact number of people who might have died in that tragedy, but in the report submitted by the state police to the Human Rights Commission, 6182 people were reported missing in this disaster. Apart from these, about 500 skeletons were also found on the hills. Missing means those who could never return. There was no record of the sadhus about whom no one cared and the poor travelers who came from far-flung parts of the country. In non-governmental unconfirmed estimates, the number of dead was said to be more than 10 thousand. If any lesson had been learnt from the Kedarnath disaster, then on 7 February 2021, there would not have been the devastation of the floods of Dhauli Ganga and Rishi Ganga in the high Himalayan region of the border Chamoli district. At least 206 people were confirmed dead in that tragedy. If the 13.2 MW power project on Rishi Ganga and 520 MW power project on Dhauli Ganga were not being built despite the opposition of local people and renowned environmentalists like Padmbhushan Chandi Prasad Bhatt, then the floods of these rivers would not have been so devastating. It seems that our planners and policy makers could not learn any lesson from the horrors of neither Kedarnath nor Dhauliganga floods. The question is not only about the upheavals in Uttarakhand Himalaya. In the name of development, the entire Himalaya is being tampered with the ecology, the consequences of which we have seen in Himachal Pradesh last year.-JSR
-जयसिंह रावत-
केदारनाथ आपदा को गुजरे हुये 11 साल हो गये मगर उस विभिषिका के घाव अब तक नहीं भर पाये। उस त्रासदी में न जाने कितने लोग मरे होंगे, इसका सटीक अनुमान नहीं लग सका। मगर राज्य पुलिस द्वारा मानवाधिकार आयोग को सौंपे गयी रिपोर्ट में इस आपदा में पूरे 6182 लोग लापता बताये गये। इनके अलावा लगभग 500 नरकंकाल पहाड़ियों पर भी मिले। लापता का मतलब जो कभी नहीं लौट सके। जिन साधुओं का पूछने वाला कोई नहीं तथा देश के सुदूर हिस्सों से आये गरीब यात्रियों का कोई रिकार्ड ही नहीं था। गैर सरकारी अपुष्ट अनुमानों में मृतकों की संख्या 10 हजार से अधिक बतायी गयी थी। अगर केदारनाथ आपदा से कोई सबक सीखा होता तो 7 फरबरी 2021 को सीमान्त चमोली जिले के उच्च हिमालयी क्षेत्र में धौली गंगा और ऋषिगंगा की बाढ़ की तबाही नहीं होती। उस त्रासदी में कम से कम 206 लोगों के मारे जाने की पृष्टि हुयी। अगर स्थानीय जनता और चण्डी प्रसाद भट्ट जैसे पर्यावरणविदों के विरोध के बावजूद ऋषिगंगा पर 13.2 मेगावाट और धौली गंगा पर 520 मेगावाट के बिजली प्रोजक्ट नहीं बन रहे होते तो इन नदियों की बाढ़ उतनी विनाशकारी नहीं होती। लगता है हमारे योजनाकार और नीति नियंता न तो केदारनाथ की और ना ही धौलीगंगा की बाढ़ की विभीषिका से कोई सबक सीख सके। सवाल केवल उत्तराखण्ड हिमालय के विप्लवों का नहीं है। विकास के नाम पर पारिस्थितिकी से बेतहासा छेड़छाड़ सम्पूर्ण हिमालय के साथ हो रही है, जिसका अंजाम हम पिछले साल हिमाचल प्रदेश में भी देख चुके हैं।
अगर 2013 के केदारनाथ और 2021 की धौलीगंगा आपदा से सबक लिया गया होता तो केदारनाथ में सौंदर्यीकरण और सुरक्षा के नाम पर इस तरह भारी भरकम निर्माण नहीं किया जा रहा होता। जबकि भारतीय भूगर्व विभाग के तत्कालीन निदेशक सहित महेन्द्र प्रताप सिंह बिष्ट आदि भूवैज्ञानिकों ने रामबाड़ा से ऊपर किसी भी हाल में भारी निर्माण कार्यों पर रोक लगाने की सिफारिश के साथ कहा था कि केदारनाथ धाम किसी ठोस जमीन पर न होकर मलबे के ऊपर स्थापित है, जो कि भारी निर्माण को सहन नहीं कर सकता। इधर विशेषज्ञों की चेतावनियों के बावजूद सौंदर्यीकरण के नाम पर बदरीनाथ धाम को भी खोद दिया गया। इस खुदाई के कारण बदरीनाथ की क्रोम धारा जैसी कुछ पवित्र धाराएं लुप्त हो गयीं।
यातायात के साधनों और सहूलियतों में वृद्धि के चलते उत्तराखण्ड के चारों धामों में यात्रियों की भीड़ पिछले रिकार्ड तोड़ती जा रही है। इस साल 16 जून तक चारों धामों में 23,54,440 यात्री पहुंच चुके थे। जबकि सन् 2000 तक पूरे छह महीनों में इससे बहुत कम यात्री आते थे। इन तीर्थों तक मोटर सड़क बनने से पहले मात्र 60-70 हजार यात्री ही पहुंच पाते थे। खास बात यह है कि यात्रियों का सैलाब बदरीनाथ से ज्यादा केदारनाथ में उमड़ रहा है। जबकि केदारनाथ के लिये 21 किमी लम्बी पैदल यात्रा है और बदरीनाथ सीधे वाहन से जाया जाता है। भारी भीड़ जब संभल नहीं पायी तो सरकार ने यात्रियों के लिये प्रतिदिन का कोटा रखा मगर फिर उसे हटा दिया। आखिर सरकार को भी यात्रियों की भारी संख्या की उपलब्धि का बखान करना है। पद्मभूषण चण्डी प्रसाद भट्ट आदि विशेषज्ञों के अनुसार हिमालयी तीर्थों पर उनकी धारक क्षमता से इतनी अधिक भीड़ विनाशकारी ही हो सकती है। सबसे अधिक चिन्ता का विषय तो यह है कि लाखों वाहन सीधे गंगोत्री और सतोपन्थ ग्लेशियर समूहों के पास तक पहुंच रहे हैं। जिससे इन ग्लेशियरों के पिघलने की गति बढ़ने और हिमालय पर हिमनद झीलों की संख्या और आकार बढ़ने का खतरा उत्पन्न हो गया है। सन् 2013 की बाढ़ में चोराबाड़ी झील ही केदारनाथ पर टूट पड़ी थी। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार इस साल 16 जून तक मात्र एक माह और 6 दिन में 2,58,957 वाहन बदरीनाथ और गंगोत्री तक और केदारनाथ तथा यमुनोत्री के निकट पहुंच चुके थे। शासन-प्रशासन यात्रियों की संख्या गिन-गिन कर ही आत्मविभोर है।
केदारनाथ आपदा के कारणों का पता लगाने के लिये राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनआइडीएम) की टीमों ने स्वयं दो बार आपदाग्रस्त क्षेत्र का दौरा करने के साथ ही रिमोट सेंसिंग, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियॉलाजी, राज्य आपदा न्यूनीकरण केन्द्र और भूगर्व सर्वेक्षण विभाग जैसी विभिन्न विशेषज्ञ ऐजेंसियों के सहयोग से तीन खण्डों में अपनी रिपोर्ट तैयार की थी। जिसमें केदारनाथ आपदा से सबक लेने के लिये 19 सिफारिशें और चेतावनियां दीं गयीं थीं। इनमें भी जलविद्युत परियोजनाओं को ज्यादा फोकस कर कहा गया था कि जलविद्युत परियोजनाओं से सदैव पर्यावरण विशेषज्ञों के साथ ही स्थानीय समुदाय को त्वरित बाढ़, जमीन धंसने, जल श्रोत सूखने और जनजीवन प्रभावित होने के साथ ही वन्य जीवन और पर्यावरण दूषित होने की शिकायतें भी रही हैं। रिपोर्ट में कहा गया था कि उत्तराखण्ड जैसे संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में जलविद्युत परियोजनाओं के लिये पर्यावरण प्रभाव आंकलन बाध्यकारी होना चाहिये। इन परियोजनाओं की विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) में सुरंगों तथा अन्य क्षेत्रों से पहाड़ काट कर निकले मलबे के निस्तारण का भी स्पष्ट प्लान होना चाहिये। क्योंकि इस मलबे से नदी में त्वरित बाढ़ आने के साथ ही नदी की दिशा भटक जाती है जो कि भूस्खनों को भी जन्म देती हैं। रिपोर्ट में कहा गया था कि केदारनाथ की बाढ़ में श्रीनगर में 330 मेगावाट की परियोजना और चमोली जिले में 400 मेगावाट की विष्णुप्रयाग परियोजनाओं के मलबे ने बाढ़ की विभीषिका को कई गुना बढ़ाया है।
इसरो द्वारा गत वर्ष जारी देश के 147 संवेदनशील जिलों के भूस्खलन मानचित्र में उत्तराखण्ड का रुद्रप्रयाग जिला संवेदनशीलता कह दृष्टि से एक नम्बर पर तथा टिहरी दूसरे नम्बर पर दिखाया गया है। प्रदेश के सभी 13 जिले संवेदनशील बताये गये हैं। लेकिन इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। एनआइडीएम की रिपोर्ट में भूस्खलन जोनेशन मैपिंग का प्राथमिकता के आधार पर पालन, निर्माण कार्यों में विस्फोटों के प्रयोग पर रोक, सड़क निर्माण में वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर, ढलानों के स्थिरीकरण के ठोस प्रयास और ग्लेशियल लेक तथा नदी प्रवाह निगरानी का ठोस ढांचा तैयार करने की सिफारिश भी की गयी थी। जिन्हें अनुसना कर दिया गया।
पर्यावरण सम्बन्धी अनुसंधानों में संलग्न संस्था ‘काउंसिल ऑन इनर्जी, इनवायर्नमेंट एण्ड वाटर’ (सीईईडब्लु) द्वारा हाल ही में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखण्ड में 1970 की अलकनन्दा बाढ़ के बाद त्वरित बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने, हिमनद झीलों के फटने और बिजली गिरने आदि आपदाओं में चार गुना वृद्धि हो गयी है। इन आपदाओं के खतरे में राज्य के 85 प्रतिशत जिलों की 90 लाख से अधिक आबादी आ गयी है। रिपोर्ट में इन आपदाओं का कारण पर्यावरण की उपेक्षा बताया गया है।