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सुनार को लगा कबाड़ के धंधे में ज्यादा मुनाफा


-दिनेश शास्त्री-
दीपावली का पर्व था, करोड़ों के सोना चांदी का कारोबार हुआ, उसी दौरान शादी विवाह का सीजन भी आया। धंधा खूब हुआ लेकिन जैसे ही पौष माह आया, धंधा मंदा हो गया। दिनभर शो रूम में कोई ग्राहक झांकने तक नहीं आया। सोचा उत्तरायणी के बाद ग्राहक आएगा लेकिन पौष की शीत में अपने संसाधन खर्च कर चुके ग्राहक ने रुख नहीं किया, वसंत पंचमी बीती, कुछ दिन बाद होली भी आ गई और आ गया चैत का महीना। उन दिनों भी कारोबार मंदा ही रहा। सुनार को अब उम्मीद थी अक्षय तृतीया पर्व पर खूब कारोबार होने की लेकिन तब तक का इंतजार दिनों दिन भारी लग रहा था। एक एक दिन साल के बराबर लग रहा था।

इसी बीच किसी ने सुनार को दिव्य ज्ञान दिया कि ये शो रूम तो चलता रहेगा, आज नहीं तो कल ग्राहक आ ही जायेगा लेकिन खाली समय बिताने के लिए साथ में दूजा कारोबार भी शुरू कर देना चाहिए। बहुत सोच विचार के बाद सुनार के कान में फुसफुसा कर मित्र ने परामर्श दिया – कबाड़ का कारोबार बेहद चोखा है। इसमें खर्चा कम और मुनाफा ज्यादा है। बाजार में कबाड़ की भरमार है। लगे हाथ शुरू कर दो। लोग गर्मी आने से पहले घर का कबाड़ यों ही दे देंगे। कुछ कीमत भी चुकानी पड़ी तो कोई हर्ज नहीं है। न जाने कबाड़ में कब कोई बेशकीमती चीज हाथ लग जाए।

बस, फिर क्या था। शो रूम के सोने की कद्र छोड़ कर कबाड़ बटोरने पर पूरा ध्यान लगा दिया। हर घर का कबाड़ औने पौने दाम पर खरीदा जाने लगा। जो नहीं बिक रहा था, उसकी ऊंची कीमत चुकाई गई। सुनार ने कबाड़ खरीदते वक्त यह भी न सोचा कि कल यह बिकेगा भी या नहीं। थोक में कबाड़ खरीदने का नतीजा यह हुआ कि शो रूम के आगे कबाड़ का ढेर लग गया। पहले इक्का दुक्का ग्राहक झांक भी लेते थे लेकिन अब कबाड़ का ढेर देख कर पुराने ग्राहक नाक पर रूमाल रख कर तेजी से आगे बढ़ने लगे।
अब तो अक्षय तृतीया का पर्व भी आ चुका था लेकिन शो रूम के दरवाजे पर कबाड़ का ढेर देख लोगों ने उधर का रुख करना ही छोड़ दिया। पड़े पड़े कबाड़ से दुर्गंध उठने लगी। अब हालत यह थी कि न शो रूम का सोना चांदी बिका न कबाड़ का खरीददार ही कोई आया। पल्ले से जो पूंजी गई उससे ज्यादा अफसोस जमे जमाए कारोबार पर बट्टा लगने का था।

इसी सोच विचार में बेचारा सुनार दुबला हो गया। अब वह उस सलाहकार को ढूंढ रहा है, जिसने कबाड़ के धंधे से मंदे से उबरने का रास्ता बताया था। सुनार बेहद परेशान है, सलाह देने वाला हाथ नहीं आ रहा है। अब सोच रहा है कि शो रूम के बाहर जमा कूड़ा पालिका की कूड़ा गाड़ी में फेंक दे, कम से कम झाड़ पोंछ कर अपना शो रूम फिर से चल पड़ेगा। अक्षय तृतीया गुजरी तो कोई बात नहीं छह माह बाद दीपावली का पर्व तो आयेगा ही। तब तक धैर्य रखना होगा। सुनार को उसका सलाहकार मित्र तो नहीं मिल रहा लेकिन ठोकर खाने के बाद आत्मज्ञान तो मिल ही गया है कि कबाड़ तो कबाड़ ही होता है। न तो कबाड़ की उम्र ज्यादा होती है न उसकी कीमत। लिहाजा कबाड़ के दिन तो गए। शायद शो रूम में रखे सोने के गहने अब ज्यादा कीमत दे जाएं। वैसे भी कीमत तो इतने दिनों में सोने की ही बढ़ी है, कबाड़ तो घाटा देने वाला ही ठहरा।

(नोट :- लेखक इस न्यूज़ पोर्टल के वरिष्ठ सम्पादकीय सहयोगी हैँ। – एडमिन)

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