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राम मंदिरों का स्वणिम अतीत लौटाने का समय


-जयसिंह रावत
भगवान राम की जन्मस्थली अयोध्या में करोड़ों सनातन धर्मावम्बियों की आस्था का प्रतीक भव्यतम् मंदिर के रूप में आकार ले चुका है और अब दर्शनार्थ द्वार खुलने के लिये 22 जनवरी की प्रतीक्षा की जा रही है। इस ऐतिहासिक अवसर के लिये सारा देश राममय होता जा रहा है। लेकिन करोड़ों धर्मावलम्बियों में से शायद कुछ ही को पता होगा कि भारत में एक नहीं बल्कि अनेक प्राचीन मंदिर हैं जिन्हें हिन्दू जनमानस लगभग भूल ही चुका है। इन प्राचीन आस्था के केन्द्रों में एक भारत की सबसे पवित्र नदी गंगा के उद्गम देव प्रयाग में भी है जिसका उल्लेख न केवल पुराणों और चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृतांत में है बल्कि इसका प्रमाणिक इतिहास मंदिर परिसर के शिलालेखों और गढ़वाल राज्य के प्राचीन पंवार शासकों के कई सदियों पुराने ताम्र पत्रों में भी दर्ज है। ईटी एटकिंसन ने तो हिमालयन गजेटियर में अल्मोड़ा में भी रामचन्द्र मंदिर का उल्लेख किया है। संन्तोष का विषय यह है कि उत्तर भारत का जम्मू स्थित दूसरा रघुनाथ मंदिर अभी भी श्रद्धालुओं की के मन में है। देश के लगभग एक दर्जन मंदिर हिन्दू मानस पटल में मौजूद तो हैं मगर वे सब देव प्रयाग के रघुनाथ मंदिर की तरह स्थानीय श्रद्धालुओं तक ही सीमित हैं। इसलिये समय आ गया है कि भागवान राम की जन्म स्थली में आकार ले रहे मंदिर के साथ ही भारत के इन तमाम मंदिरों की खोई हुयी प्रसिद्धि को लौटाने के प्रयास भी वोटों के लिये नहीं बल्कि निस्वार्थ भाव से किये जांय।

अलकनन्दा एवं भागीरथी नदियों के संगम से भारत की सबसे पवित्र नदी गंगा के उद्गम पर एक छोटा सा ऐतिहासिक और पौराणिक नगर है जो कि अपने धार्मिक महत्व के कारण देवप्रयाग के नाम से जाना जाता है। गंगा के उद्गम और रघुनाथ मंदिर के कारण धार्मिक दृष्टि से यह प्रयाग (संगाम) अपने नाम के अनुकूल उत्तराखण्ड के पंच प्रयागों में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। यह स्थान देश के चार सर्वोच्च धामों में से एक बदरीनाथ धाम और भारत तथा नेपाल में भगवान शिव के द्वादस ज्योतिर्लिंगों में से एक केदारनाथ धाम के यात्रा मार्ग पर ऋषिकेश से 73 किमी दूर और समुद्रतल से लगभग 830 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।

देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर का इतिहास जनश्रृतियों पर नहीं बल्कि अठारह पवित्र पुराणों में से चार, पद्म पुराण, मत्स्य पुराण, कूर्म पुराण और अग्नि पुराण में मिलता है। इस मंदिर में संबत् 1512 याने कि सन् 1456 ई0 का तत्कालीन गढ़वाल नरेश जगतपाल को मंदिर की मठाधीशी के लिये शंकर भारती कृष्ण भट्ट को दिया गया ताम्र पत्र मौजूद है। जिसे गढ़वाल के प्रसिद्ध इतिहासकार कैप्टन शूरवीर सिंह और डा0 यशवन्त सिंह कठौच ने संरक्षित किया है। जबकि जम्मू स्थित उत्तर भारत के विख्यात रघुनाथ मंदिर का इतिहास लगभ 200 साल से कम पुराना है। उस मंदिर का निर्माण 1835 में महाराजा गुलाब सिंह ने शुरू किया था जिसे महाराजा रणवीर सिंह ने 1860 में पूर्ण कराया।

 

ऐसा माना जाता है कि मूल रूप से मंदिर की स्थापना 8वीं शताब्दी के दौरान आदि शंकराचार्य द्वारा स्वयं की गई थी। बाद में गढ़वाल राज्य के नरेशों द्वारा इसका विस्तार किया गया। पंवार वंश के 34 वें राजा जगतपाल के बाद 44वें राजा मानशाह द्वारा दान संबंधी एक अन्य ताम्रपत्र भी मंदिर में मौजूद है जो कि सन् 1554 का माना जाता है। मानशाह की मृत्यु सन् 1575 में मानी जाती है। इसी वंश के 42 वें राजा सहजपाल द्वारा मंदिर को दान किये गये घंटे का उल्लेख भी मंदिर के शिला लेखों में मिलता है। मंदिर के ठीक पीछे मौजूद शिलालेखों पर ब्राह्मी लिपि में 19 लोगों के नाम खुदे हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि स्वर्ग की प्राप्ति के लिए उन्होंने यहां संगम पर जल-समाधि ले ली थी। इनमें राजा जयकीर्ति शाह भी ण्क थे।

माना जाता है कि आठवी सदी में धारानगरी के आये पंवार वंश के राजा कनकपाल के पुत्र श्याम पाल के गुरु शंकर ने काष्ठ का प्रयोग कर मंदिर शिखर का निर्माण करवाया था। ’’स्कंद पुराण‘‘ के केदारखंड में उल्लेख है कि त्रेता युग में लंकाधिपति रावण के वध के बाद ब्रह्महत्या के दोष से मुक्ति के लिए श्रीराम ने देवप्रयाग में तप किया और विश्वेश्वर शिवलिंगम की स्थापना की थी। मान्यता है कि राजा रामचन्द्र के गुरु भी इसी स्थान पर रहे थे, जिसे वशिष्ठ गुफा कहते हैं। गंगा के उत्तर में एक पर्वत को राजा दशरथ की तपोस्थली माना जाता है। महाभारत युद्ध से पहले पांडवों ने इसी स्थान पर तपस्या की थी।

रघुनाथ जी के केंद्रीय मंदिर के चारों ओर बद्रीनाथ, आदि शंकराचार्य, शिव, सीता और हनुमान के कई छोटे मंदिर हैं। केंद्रीय मंदिर में रघुनाथजी की प्रतिमा ग्रेनाइट पर खड़ी मुद्रा में है। प्रतिमा के हाथों में धनुष-बाण और कमर में ढाल है। भगवान के एक ओर सीता और दूसरी ओर लक्ष्मण की मूर्ति है। गर्भगृह के ऊपर शंक्वाकार छत है। मंदिर के सिंहद्वार तक पहुंचने के लिए 101 सीढ़ियां बनी हुई हैं। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार यह मंदिर 1893 के दौरान आए भूकंप के दौरान क्षतिग्रस्त हो गया था। माना जाता है कि क्षतिग्रस्त मंदिर का पुनर्निमाण तत्कालीन ग्वालियर नरेश ने कराया था।

देवप्रयाग के अलावा भी उत्तराखण्ड में अन्य स्थानों पर भी राम मंदिर हैं जिनका उल्लेख ई.टी एटकिंसन ने ‘‘गजेटियर ऑफ हिमालयन डिस्ट्रिट्स‘‘ ग्रन्थ-.2 के भाग-2 में किया है। एटकिन्सन ने प्राचीन दानपत्रों के आधार पर कुमाऊं में वैष्णव मंदिरों का पूरा विवरण दिया है जिसमें अल्मोड़ा में रघुनाथ मंदिर के अलावा अल्मोड़ा के ही गिंवाड़ में रामचन्द्र, श्रीनगर गढ़वाल में सीता राम मंदिर, चाईं नागपुर में सीता मंदिर और उदयपुर रामजनी में राम मंदिर का उल्लेख किया है।

जम्मू और उत्तराखण्ड के अलावा देश के अन्य हिस्सों में और खास कर दक्षिण में भी कुछ राम मंदिर हैं जो कि देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर की तरह भूले बिसरे नहीं हैं। इमनें राम राजा मंदिर, मध्य प्रदेश, सीता रामचन्द्रस्वामी मंदिर, तेलंगाना, रामास्वामी मंदिर, तमिलनाडु, कालाराम मंदिर, नासिक, महाराष्ट्र त्रिप्रयार राम मंदिर, केरल, राम मंदिर, भुवनेश्वर, ओडिशा और कोदंडाराम मंदिर, कर्नाटक, श्रीराम तीर्थ अमृतसर और राम मंदिर हावड़ा पश्चिम बंगाल आदि शामिल हैं।

 

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