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पहाड़ से बहते पानी और जवानी की तरह ही है उत्तराखंड का सिंचाई विभाग

-गौचर से दिग्पाल गुसांईं-
पहाड़ों के गाड़ गधेरों व नदी का पानी न तो पहाड़ वासियों की प्यास बुझा पा रहा है न सिंचाई के काम आ रहा है। यही वजह है कि पहाड़ का पानी व पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती है। यह कहावत सिंचाई महकमों पर सटीक बैठती है।

अलग राज्य बनने के बाद भी पहाड़ों से युवाओं के रोज़गार के लिए पलायन करना थमने का नाम नहीं ले रहा है। इसके लिए काफी हद तक सरकार की योजनाएं भी जवाबदार है। कोरोना के समय देश के विभिन्न क्षेत्रों में रोजगार की तलाश में गए युवा परेशान होकर यह सोचकर अपने अपने घरों को लौट आए थे कि वे खेती बाड़ी व दुग्ध व्यवसाय कर अपना जीवन यापन करेंगे।

लेकिन सरकार की नीतियां इन युवाओं को रोकने में नाकाम रही है। जिन युवाओं ने डेरियां खोलकर अपना व्यवसाय शुरू किया था। उनको दूध के दाम सही न मिलने व दाना, चारा महंगा मिलने से उनका डेरी व्यवसाय ज्यादा दिन नहीं चल पाया है नतीजतन उन्होंने पुनः रोजगार की तलाश में मैदानी भागों का रूख कर लिया है। यही हाल सिंचाई व्यवस्था का भी है। तमाम संभावनाओं के बाबजूद भी समय पर सिंचाई के लिए पानी न मिलने की वजह से लोगों ने कास्तकारी से हाथ पीछे खींचना शुरू कर दिया है।

सिंचाई नहरों की खस्ताहाल व सिंचाई लिफ्ट पंपों की व्यवस्था ठीक न होने की वजह से पहाड़ों के नदी नालों का पानी पहाड़ के काम नहीं आ रहा है। सिंचाई विभागों की व्यवस्था का आलम यह है कि क्षेत्र के कास्तकार धान की बुवाई के लिए बारिश का इंतजार कर रहे हैं। पनाई नहर के पानी से खेतों को सींचने के लिए अपनी बारी के लिए महिलाएं रात दिन खेतों में बिता रही हैं।

महिला संगठन अध्यक्ष उर्मिला धरियाल , पूर्व अध्यक्ष विजया गुसाईं,मंजू नेगी,कंचन कनवासी, जशदेई कनवासी आदि का कहना है कि लघुढाल विभाग की सिंचाई लिफ्ट पंप योजना भी सिंचाई व्यवस्था देने में पूरी तरह नाकाम साबित हो गई है। नहरों की दुर्दशा किसी छिपी हुई नहीं है। हालात ऐसे हैं कि विभागीय अधिकारी सुनने को तैयार ही नहीं हैं।

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