उत्तराखंड के पहाड़ों में संविधान की 5वीं अनुसूची लागू करने की जरूरत
– श्याम सिंह रावत –
ब्रिटिश शासन के दौर में देश के अनेक क्षेत्रों को उनकी विशिष्ट साँस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि को देखते हुए उनके संरक्षण-संवर्द्धन के लिए अधिसूचित किया गया था। तत्कालीन संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेशद) के पर्वतीय क्षेत्र को भी जनजातीय क्षेत्र मानते हुए यहाँ शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट 1874 तथा सन 1921 में नॉन रेगुलेशन एरिया के प्रावधान लागू किए गए थे। यानी इस क्षेत्र में रैगुलर पुलिस की बजाय पटवारी व्यवस्था लागू की गई। फिर इस पहाडी क्षेत्र को सन 1935 में बहिष्कृत क्षेत्र घोषित किया गया। यह व्यवस्था केवल जनजातीय क्षेत्र घोषित इलाकों में ही लागू थी।
स्वतंत्रता के बाद संविधान लागू होने के साथ ही देश के ऐसे क्षेत्रों के मूल निवासियों को जनजाति का दर्जा देकर संविधान की 5वीं या 6ठी अनुसूची में रखते हुए इनके लिए विशेष प्रबंध किए गए। ऐसे ही कानून उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में भी पहले लागू थे, लेकिन इस क्षेत्र को 5वीं अनुसूची में शामिल करने के उलट 1972 में इस पहाड़ी इलाके की उपेक्षा करते हुए उक्त प्रावधानों में से केवल चिकित्सा-शिक्षा में प्रवेश पर आरक्षण देने तक सीमित कर अन्य सभी से इसे बाहर कर दिया गया। और, अंततः 1996 में चिकित्सा-शिक्षा में प्रवेश सम्बंधी वह प्रावधान भी खत्म कर दिया गया लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार के अलावा केंद्र सरकार से भी विशेष फंड मिलता रहा।
उधर, जम्मू-कश्मीर सहित पूरे हिमालयी क्षेत्र के राज्यों के लिए विशिष्ट संवैधानिक प्रावधान किए गए लेकिन दो-दो अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से घिरे हुए उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के निवासियों के जल, जंगल, जमीन और अन्य संसाधनों पर सदियों पुराने अधिकार छीन लिए गए।
पर्वतीय क्षेत्रों में आजीविका, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य, दूर-संचार, यातायात आदि के बुनियादी ढाँचे में सुधार के उलट निरंतर गिरावट आई है। रोजगार के अवसरों की नितांत कमी, वर्षा आधारित खेतों में हाड़तोड़ श्रम करने पर भी कम कृषि उपज और जंगली जानवरों द्वारा खड़ी फसलों को नष्ट करने के कारण पहाड़ों से पलायन बहुत तेजी से हुआ। नौबत यहाँ तक आ पहुँची है कि आज राज्य के पहाड़ी जिलों के 1,726 गाँव पूरी तरह जनशून्य हो गए हैं। सैकड़ों गाँव आवासीय मकानों के खंडहरों के कब्रिस्तान बन चुके हैं। राज्य सरकार द्वारा गठित ‘ग्राम्य विकास और पलायन रोकथाम आयोग’ की पहली रिपोर्ट के अनुसार 2008-2018 के बीच (दस वर्षों में) 5,02,717 लोगों ने पलायन किया तो दूसरी रिपोर्ट के अनुसार 2018-2022 के बीच (चार वर्षों में) 3,35,841 लोग पलायन कर चुके हैं।
इस तरह प्रति वर्ष औसतन 83,960 लोगों ने यहाँ से पलायन किया है। अर्थात 2018-2022 के बीच हर दिन औसतन 230 लोगों ने अपना मूल गाँव छोड़ दिया। अपना घरबार छोड़ने की यह 67 फीसदी वार्षिक वृद्धि इस बात का स्पष्ट संकेत है कि समस्या नियंत्रण से बाहर होती जा रही है। पलायन की इस विभीषिका का ही नतीजा है कि राज्य विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन में पर्वतीय क्षेत्रों के 6 विधानसभा क्षेत्र घटा दिए गए हैं जिससे यहाँ का प्रतिनिधित्व कम हो गया और इसके अगले परिसीमन में विधायकों की यह संख्या और भी घट जाएगी।
हालाँकि राज्य सरकार ने मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना के जरिए लोगों को बागवानी, दुग्ध उत्पादन, मुर्गी/मत्स्य पालन, आतिथ्य व अन्य क्षेत्रों में अपना खुद का व्यवसाय शुरू करने के लिए आसान ऋण प्रदान करने की योजना शुरू की लेकिन उसका भी कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। यही कारण है कि पृथक उत्तराखंड राज्य गठन से पहाड़ी क्षेत्र की अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर पड़ा है क्योंकि न तो राज्य आंदोलनकारियों की इच्छानुसार इसकी राजधानी पर्वतांचल में कुमाऊँ व गढ़वाल के मध्य स्थित गैरसैंण को बनाया गया और न ही पर्वतीय लोगों की विषम भौगोलिक तथा यहाँ की सामरिक स्थिति को देखते हुए इसकी आर्थिक-शैक्षिक स्थिति में अपेक्षानुसार सुधार हो पाया।
इसलिए दो-दो अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से घिरे और तिब्बत व नेपाल में बढ़ते चीनी प्रभाव के दृष्टिगत राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए यह अत्यावश्यक हो गया है कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों को खाली होने से रोका जाए। इसे ढाँचागत सुधार और समग्रता में समृद्ध बनाने की जरूरत है। इसके लिए इस क्षेत्र को संविधान की 5वीं अनुसूची में शामिल करने से समस्या का समाधान हो सकेगा और इसके लिए आवाजें उठने लगी हैं। जो लगातार ऊँची होती जा रही हैं। पिछले दो वर्षो में दिल्ली, देहरादून, हल्द्वानी, नैनीताल व अन्य जगहों में ‘उत्तराखंड एकता मंच’ के बैनर तले आयोजित सम्मेलनों में समाज के प्रबुद्धजनों की भारी उपस्थिति से इसे बल मिला है।
*क्या कहती है संविधान की 5वीं अनुसूची—*
भारतीय संविधान की 5वीं अनुसूची विशेष रूप से अनुसूचित क्षेत्रों और वहाँ के जनजातीय निवासियों के हितों की रक्षा के लिए बनाई गई है। इसके प्रावधान अनुसूचित क्षेत्रों की जनजातियों के हित-लाभ तथा वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग की नीतियों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए निर्धारित किए गए हैं, जिनमें इनके सामाजिक, आर्थिक और साँस्कृतिक परंपराओं के संरक्षण और संवर्द्धन की व्यवस्था निर्धारित की गई है। यह अनुसूची इन क्षेत्रों के प्रशासन, विकास और जनजातीय संस्कृति व अधिकार सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न प्रावधानों का प्रबंध करती है।
*5वीं अनुसूची का उद्देश्य—*
इस अनुसूची का मुख्य उद्देश्य जनजातियों की विशिष्ट संस्कृति, रीति-रिवाज, भूमि और संसाधनों के अधिकारों की रक्षा करना है ताकि उन्हें बाहरी हस्तक्षेप और शोषण से बचाया जा सके। यह व्यवस्था संविधान को स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार लागू करने की सहूलियत देती है, जिससे अनुसूचित क्षेत्रों में शाँति और संतुलन बना रहता है।
*5वीं अनुसूची के प्रमुख प्रावधान—*
1. अनुसूचित क्षेत्रों की घोषणा—
संविधान के अनुच्छेद 244 (1) के तहत, राष्ट्रपति किसी राज्य के विशिष्ट क्षेत्रों को अनुसूचित क्षेत्र घोषित कर सकते हैं। ये क्षेत्र आमतौर पर जनजाति बाहुल्य होते हैं, जिनकी विशिष्ट संस्कृति, परंपराएं और जीवन-शैली होती है। इस अनुसूची के प्रावधानों के माध्यम से इन क्षेत्रों की साँस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखने का प्रयास किया जाता है।
*2. राज्यपाल की विशेष शक्तियाँ—*अनुसूचित क्षेत्रों में प्रशासन के लिए राज्यपाल को विशेष शक्तियाँ दी गई हैं। राज्यपाल इन क्षेत्रों में जनजातीय लोगों के हितों की रक्षा के लिए नियम और अधिनियम बना सकते हैं। इसके अलावा, राज्यपाल को यह अधिकार भी है कि वे राज्य की विधानसभा द्वारा बनाए गए किसी भी ऐसे कानून को इन क्षेत्रों में लागू न करने का निर्णय ले सकते हैं, जिसे वे राज्य की जनजातियों के हितों को नुकसान पहुँचाने वाला महसूस करते हैं।
उदाहरण—
यदि राज्य की विधानसभा ने कोई ऐसा कानून बनाया है जो भूमि का अधिग्रहण या खनन से सम्बंधित है, और राज्यपाल को लगता है कि इस कानून के लागू होने से जनजातीय निवासियों के अधिकारों और उनकी भूमि पर खतरा हो सकता है, तो राज्यपाल उस कानून को अनुसूचित क्षेत्रों में से ‘बहिष्कृत’ कर सकते हैं। इसका मतलब है कि उस कानून को उन क्षेत्रों में लागू नहीं किया जाएगा। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जनजातीय क्षेत्रों में ऐसे कानून लागू न किए जाएँ जो उनकी संस्कृति, भूमि और पारंपरिक अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं।
*3. जनजातीय सलाहकार परिषद—*
5वीं अनुसूची के तहत राज्य में अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को शामिल करते हुए एक जनजातीय सलाहकार परिषद का गठन किया जाता है। यह परिषद राज्यपाल को अनुसूचित क्षेत्रों में प्रशासनिक और विकासात्मक गतिविधियों के सम्बंध में सलाह देती है।
4. कानूनी संरक्षण—
अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण और खनन जैसे मामलों में जनजातीय निवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए विशेष कानूनी प्रावधान हैं। इन प्रावधानों के माध्यम से उनकी भूमि और संपत्ति के अधिकार सुरक्षित किए जाते हैं और बाहरी लोगों द्वारा शोषण से बचाने का प्रयास किया जाता है।
5. प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार—
इस अनुसूची के तहत जनजातीय लोगों के प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकारों की रक्षा की जाती है, जिससे उनकी आजीविका और साँस्कृतिक पहचान बनी रहे। यह प्रावधान उनकी भूमि, वन उत्पाद और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और प्रबंधन के अधिकारों को संरक्षित करने में मदद करता है।
6. विकास के विशेष प्रावधान—
अनुसूचित क्षेत्रों में जनजातीय लोगों के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक विकास के लिए विशेष योजनाएं और कार्यक्रम लागू किए जाते हैं। केंद्र तथा राज्य सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और आधारभूत ढाँचे के विकास के लिए विशेष बजट का प्रावधान करती है ताकि इन क्षेत्रों में रहने वाले लोग राष्ट्रीय विकास की मुख्यधारा के साथ आर्थिक और सामाजिक रूप से जुड़ कर उन्नति कर सकें।
7. संविधान संशोधन और न्यायिक संरक्षण—
यदि सरकार 5वीं अनुसूची में किसी प्रकार का संशोधन करना चाहती है, तो इसे संसद द्वारा पारित कराना आवश्यक है। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि इन क्षेत्रों के अधिकारों में बिना उचित विचार-विमर्श के कोई बदलाव न हो। इसके अलावा सर्वोच्च और उच्च न्यायालय भी इन क्षेत्रों के निवासियों के अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं।
8. ग्रामसभा यह सुनिश्चित करती है कि जनजाति की जमीन अन्य व्यक्तियों को हस्तांतरित नहीं की जाए। ग्राम सभा सार्वजनिक जमीन पर गैर-कानूनी कब्जे को भी रोक सकती है और गैर-कानूनी ढंग से कब्जा की गई जमीन को वापस ले सकती है।
9. जल, जंगल, जमीन व अन्य सभी प्राकृतिक संसाधनों पर मूलनिवासियों का अधिकार होता है।
10. युवाओं को केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकार की नौकरियों में आरक्षण मिलता है और जिलों में तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी, अधिकारी केवल जनजातीय ही होते हैं।
11. अनुसूचित जनजाति अधिनियम जैसे प्रभावी कानून महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करते हैं।
उत्तराखंड की ऐतिहासिक एवं साँस्कृतिक पहचान—
यह सर्वविदित है कि ऐतिहासिक रूप से उत्तराखंड का पर्वतीय क्षेत्र खसों की भूमि है और वे इतिहास में दीर्घकाल तक यहाँ शासन करते रहे हैं। खसों के सम्बंध में ऋग्वेद, महाभारत आदि प्राचीन साहित्य, इतिहासकारों, नृवंश विशेषज्ञों, पुरातात्विकों और भूवैज्ञानिकों द्वारा यत्र-तत्र अभिलिखित बहुत सारी सामग्री उपलब्ध है। उनमें से इस विषय में कतिपय आधुनिक इतिहासकारों के विचार यहाँ प्रस्तुत हैं—
एडविन टी. एटकिन्सन (हिमालयन गजेटियर, 1884 खंड 12, पृष्ठ 420), जी. ए. ग्रियर्सन (लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, 1916, खंड 9, पृष्ठ 279), कैप्टन जे. एवट (ए हैंडबुक ऑन गढ़वाली 1880, पृष्ठ 11-12) व एच. जी. वॉल्टन (गजेटियर 1910) का अभिमत है कि खस समुदाय मध्य हिमालय की एक शक्तिशाली जाति है जो विशेष स्थान और जलवायु में निवास करने से अपने धार्मिक आचारों का दृढ़तापूर्वक पालन न कर सकने के कारण संस्कारच्युत की गयी थी। उनके इस कथन से ऐसा सिद्ध होता है कि वे खसों को यहाँ के आर्य-द्विजों का ही सजातीय मानते हैं।
बद्रीदत्त पांडे ‘कुमाऊँ का इतिहास’ और डॉ. लक्ष्मीदत्त जोशी 1925 में लंदन विविद्यालय में प्रस्तुत अपने शोध प्रबंध ‘खस फैमिली लॉ’ में खसों को वेदों से पूर्व आर्यजाति की एक प्रथम शक्तिशाली शाखा के रूप में कश्मीर-नेपाल के हिमालय से उत्तराखंड में पहुँचने की पुष्टि करते हैं। डॉ. जोशी ने अपने इस शोध प्रबंध ‘खस फेमिली लॉ’ में खस समुदाय के पारिवारिक और सामाजिक ढाँचे का गहन अध्ययन प्रस्तुत किया है। उन्होंने खसों के पारंपरिक कानून, विवाह, उत्तराधिकार और संपत्ति के प्रावधानों तथा रीति-रिवाजों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है। उनके अनुसार खस समुदाय के कानूनों में अनोखी परंपराएं विद्यमान हैं। जो मुख्यधारा के हिंदू कानूनों से भिन्न हैं।
इस शोध प्रबंध में डॉ. जोशी ने लिखा है कि खसों में पितृसत्तात्मक संरचना प्रमुख है लेकिन उनके पारिवारिक कानूनों में स्वतंत्रता और सामूहिकता दोनों ही का बहुत ज्यादा महत्व है। खस समाज में तरह-तरह की विवाह पद्धतियाँ, वैवाहिक सम्बंध विच्छेद, पुनर्विवाह, पैतृक संपत्ति का बँटवारा आदि के प्रावधान अन्य समुदायों की तुलना में लचीले हैं, जो इस समाज की साँस्कृतिक विविधता को प्रदर्शित करता है।
प्रसिद्ध इतिहासकार पन्ना लाल (कुमाऊँ कस्टमरी लॉ, पृष्ठ 10) ने ब्राह्मणों की ग्यारह जातियाँ और चार जाति नवागंतुक राजपूतों की छोड़कर कुमाऊँ और गढ़वाल के शेष सब निवासियों को अहिन्दू एवं खस कहा है। उनके कथनानुसार यहाँ के इन निवासियों की संस्कृति और आचार-विचार ऐसे हैं जो हिन्दू विधि-विधानों को अमान्य हैं।
डॉ. पातीराम (गढ़वाल एंशिएट एंड मॉडर्न) के अनुसार ‘पहले गढ़वाल और कुमाऊँ में खस बहुसंख्यक थे। यहाँ एक पुरानी किम्वदंती ही है—‘केदारे खस मंडले’। अब इनमें से बहुतों ने अपने को क्षत्रियों के समान बना लिया है।’
उत्तराखंड के विख्यात इतिहासकार शिव प्रसाद डबराल के अनुसार 12वीं-13वीं सदी के लेखों में कुमाऊँ और गढ़वाल को सपादलक्ष शिखरि खसदेश लिखा गया है। इनमें खसदेश के पूर्व-दक्षिण छोर पर बहने वाली काली नदी की घाटी को ‘कमादेश’ के नाम से सम्बोधित किया गया है जिसे ‘कुमू’ भी कहा जाता है और इसी के नाम पर कालांतर में उत्तराखंड का संपूर्ण पूर्वी क्षेत्र ‘कुमाऊँ’ कहा जाने लगा।
हरिकृष्ण रतूड़ी (गढ़वाल का इतिहास, पृष्ठ 124 व 173) खस जाति को हिन्दू द्विजों की ही संस्कारच्युत संतति मानते हैं।
उत्तराखंड के इतिहास तथा पुरातत्व के उद्भट विद्वान पद्मश्री डॉ. यशवंत सिंह कठौच ने हाल ही में एक पत्रिका में प्रकाशित अपने लेख में कहा है कि (यहाँ के पर्वतीय क्षेत्रों के) ‘राठी’ लोगों की कोई पृथक ‘प्रजाति’ नहीं है। ये उसी महा खश जाति के हैं जो कश्मीर से असम तक समस्त हिमालय में फैली हुई है। महाकाव्यों के संदर्भ तथा हिमालय में खश जाति पर हुए नृवंशीय शोध यही सिद्ध करते हैं। वस्तुतः कुमाऊँ-गढ़वाल की पंचानबे प्रतिशत जनसंख्या खश है। यही यहाँ के मूल निवासी हैं। इनके विभिन्न कबीलों के नायकों ने गढ़-कुमाऊँ के पर्वत शिखरों पर बहुशः गढ़ निर्मित किये। खशों के ये ही मुखिया उत्तर-मध्यकाल में सयाणा, कमीण, चौंतरा कहलाते थे। उत्तर मध्यकाल के अंत में यही मुसलमानी प्रभाव के ‘थोकदार’ कहलाये। वे खश सयाणा जिन भूखंडों के स्वामी थे, वे भूखंड उनकी ठकुराइयाँ थीं जो पीछे ‘मंडल’ तथा ‘पट्टियां’ कहलाईं। कुमाऊँ में चन्द शासनकाल में भी खशों की अनेक ठकुराइयाँ विद्यमान थीं। स्पष्टतः सम्पूर्ण केदार-मानसखंड की अधिकाँश जनसंख्या खश है।’
कालांतर में दक्षिणात्यों के कर्मकांडीय प्रभाव से उत्तराखंड में खस जनजाति का भी उनकी ही तरह ब्राह्मण-क्षत्रिय में वर्ग-विभाजन शुरू हो गया जिसे आज भी चुनावों में वोटों का ध्रुवीकरण करने के लिए राजनेताओं द्वारा ‘ब’ (ब्राह्मण) ‘ख’ (खसिया) के रूप में भुनाने की भरपूर कोशिश की जाती है। हालाँकि परंपरागत रूप से ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों ही मूलतः खस हैं।
दुनियाभर के जनजातीय समुदायों की तरह उत्तराखंड का आम जनमानस प्रकृति का उपासक है जिसे इसके फूलदेई, हरेला, खतड़ुआ, हलिया दसहरा, इगास, बग्वाल, रम्माण या हिलजात्रा जैसे विभिन्न पारंपरिक वार्षिक त्यौहारों तथा उत्सवों में प्रत्यक्ष देखा जाता है। इसके अलावा कठपतिया, ऐपण कला, जादू-टोने पर विश्वास, भूमियाल, स्थानीय ऐतिहासिक पात्रों के नाम पर ‘जागर’ लगाना आदि यहाँ की प्राचीन खस संस्कृति के अवशेष ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सभी वर्गों में समान रूप से आज भी प्रचलित हैं। अंग्रेजों ने पर्वतीय समाज की इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तथा संस्कृति को ध्यान में रखते हुए यहाँ की परंपराओं, धार्मिक मान्यताओं तथा अन्य रीति-रिवाजों के प्रचलन में जरा भी हस्तक्षेप नहीं किया और उनको अक्षुण्ण बनाए रखा। इसीलिए ऐसे अनेक तत्व आज भी हम पहाड़ियों के लोक-व्यवहार में रचे-बसे हैं।
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में 85 फीसदी क्षेत्र में जंगल हैं जो इस क्षेत्र को अनुसूचित श्रेणी का स्वाभाविक हकदार बनाते हैं। देश के 11 पहाड़ी राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों के निवासियों को जनजाति घोषित किया गया है, लेकिन उत्तराखंड का पर्वतीय क्षेत्र इनमें शामिल नहीं है। अभी हाल ही में केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में पहाड़ी समुदाय और गद्दी ब्राह्मण समुदाय को जनजाति घोषित किया है।
भाषायी आधार पर देखें तो हिमालय क्षेत्र के हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी, नेपाली बोलने वाले हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, सिख, ईसाई इन विभिन्न समुदायों को जनजाति घोषित किया गया है। जबकि उत्तराखंड में कुमाउंनी-गढ़वाली भाषाएं बोलने वाले इससे वंचित हैं।
उत्तराखंड सरकार 1971 में पूर्वी पाकिस्तान से यहाँ आए बंगाली शरणार्थियों, नेपाली तथा मुस्लिम समुदाय के वन गुर्जरों को जनजाति अर्थात मूल-निवासी का दर्जा देने वाली है। सरकार यदि इन समुदायों को जनजाति घोषित कर सकती है तो उत्तराखंड के मूल-निवासियों को क्यों नहीं?
भारत सरकार के अनुसार उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में (जनजाति क्षेत्र को छोड़ कर) प्रति व्यक्ति आय लगभग 8 हज़ार रुपए महीना है, जबकि हिमाचल प्रदेश के लाहुल स्पीति, किन्नौर में जहाँ 5वीं अनुसूची लागू है, वहाँ प्रति व्यक्ति आय 30 हज़ार रुपए महीने से ज्यादा है।
इस प्रकार किसी समुदाय को जनजाति श्रेणी में सूचीबद्ध करने हेतु भारत सरकार द्वारा नियुक्त लोकुर समिति (1965) द्वारा निर्धारित मानकों के आधार पर उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के मूल-निवासी खरे उतरते हैं।
इन्हीं सब तथ्यों के आलोक में दो तरफ से अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से घिरे उत्तराखंड की विषम भौगोलिक स्थिति के साथ ही तिब्बत व नेपाल में बढ़ते चीनी प्रभाव और राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिगत उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र को ब्रिटिशकाल की तरह जनजातीय दर्जा देते हुए संविधान की 5वीं अनुसूची में शामिल कर नॉन रेगुलेशन एरिया एवं बहिष्कृत क्षेत्र पुनः घोषित करना अत्यावश्यक हो गया है; ताकि इस पर्वतीय क्षेत्र को आर्थिक रूप से समृद्ध और सशक्त बनाकर इसे राष्ट्रीय विकास की मुख्यधारा में लाया जा सके।