उत्तराखण्ड ने दी थी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को प्रेरणा और शक्ति

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जयसिंह रावत

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस और उनकी आजाद हिन्द फौज (आइएनए) का उत्तराखण्ड से गहरा नाता रहा है। हालांकि दावा तो यहां तक किया गया था कि नेताजी ने साधू वेश में 1977 तक अपना शेष जीवन देहरादून में ही बिताया था। उनके प्रवास की सच्चाई जो भी हो मगर यह बात निर्विवाद सत्य है कि आजाद हिन्द फौज बनाने की प्रेरणा उन्हें देहरादून के राजा महेन्द्र प्रताप सिंह से और पेशावर काण्ड के हीरो चन्द्र सिंह गढ़वाली से मिली और उनकी फौज को शक्ति गढ़वालियों की दो बटालियनों ने भी दी। इडियन नेशनल आर्मी (आइएनए) का गठन रास बिहारी बोस ने जापान में 1942 में कर लिया था और रास बिहारी भी देहरादून के फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट में हेड क्लर्क थे । रास बिहारी 12 दिसम्बर 1911 को दिल्ली में वाइसरायॅ लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंकने के मामले में वांछित होने पर देहरादून से भाग कर जापान चले गये थे।

Indira Gandhi had great respect to raja Mahendra Pratap who spent his remaining life in Dehradun.

महेन्द्र प्रताप से भी मिली प्रेरणा नेताजी को

एक के बाद एक जांच समितियों और आयोगों के गठन के बाद भी भले ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु की असलियत सामने नहीं आ पाई हो, मगर उनके जीवन की अंतिम लड़ाई में उत्तराखण्ड के कनेक्शन से इंकार नहीं किया जा सकता। यद्यपि नेताजी ने निर्वासित ‘आजाद हिन्द सरकार’ का गठन 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में किया था। उस सरकार की राजधानी को 7 जनवरी 1944 को सिंगापुर से रंगून स्थानान्तरित किया गया। लेकिन इससे पहले आजाद भारत की निर्वासित सरकार का गठन राजा महेन्द्र प्रताप ने काबुल में 1915 में कर दिया था। उनके प्रधान मंत्री बरकतुल्ला थे। क्रांतिकारी राजा महेन्द्र प्रताप तत्कालीन संयुक्त प्रान्त में मुसान के राजा थे, लेकिन क्रांतिकारी गतिविधियां चलाने के लिये वह देहरादून आ गये थे। उनकी रियासत को भी अंग्रेजों ने नीलाम कर दिया था। उन्होंने 1914 में देहरादून से ‘‘निर्बल सेवक’’ नाम का अखबार निकाला जो कि आजादी समर्थक था इसलिये महेन्द्र प्रताप को भारत से भागना पड़ा और तब जा कर उन्होंने अफगानिस्तान में आजाद भारत की निर्वासित सरकार बनायी थी। वह 1946 में भारत लौटे और शेष जीवन देहरादून के राजपुर रोड पर रहने लगे।

नेताजी को चन्द्र सिंह गढ़वाली ने प्रभावित किया

सन् 1930 में हुआ पेशावर काण्ड भी नेताजी के लिये प्रेरणा श्रोत बना और उस काण्ड में चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में गढ़वाली सैनिकों द्वारा निहत्थे आन्दोलनकारी पठानों पर गोलियां बरसाने से इंकार किये जाने की घटना ने नेताजी को भरोसा दिला दिया कि गढ़वाली सैनिक राष्ट्रवादी हैं और मातृभूमि की आजादी के लिये किसी भी हद तक गुजर सकते हैं।

आजाद हिन्द फौज में गढ़वालियों का वर्चस्व

दरअसल आजाद हिन्द फौज (आइएनए) में गढ़वाल रायफल्स की दो बटालियन (2600 सैनिक) शामिल थीं। इनमें से 600 से अधिक सैनिक ब्रिटिश सेना से लोहा लेते हुए शहीद हो गये थे। आजाद हिन्द फौज में गढ़वाल रायफल्स के गढ़वाली सैनिकों का नेतृत्व करने वाले इन तीन जांबाज कमाण्डरों में कर्नल चन्द्र सिंह नेगी, कर्नल बुद्धिसिंह रावत और कर्नल पितृशरण रतूड़ी थे। जनरल मोहन सिंह के सेनापतित्व में गठित आजाद हिन्द फौज की गढ़वाली अफसरों और सैनिकों की दो बटालियनें बनायी गयीं थी। इनमें से एक सेकेण्ड गढ़वाल की कमान कैप्टन बुद्धिसिंह रावत को और फिफ्त गढ़वाल रायफल्स की कमान कैप्टन पितृ शरण रतूड़ी को सौंपी गयी। कैप्टन चन्द्र सिंह नेगी को आफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल में सीनियर इंस्ट्रक्टर बनाया गया। बाद में उन्हें आइएनए के आफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल सिंगापुर का कमाण्डेट बना दिया गया। इन तीनों को बाद में एक साथ पदोन्नति दे कर मेजर और फिर ले. कर्नल बना दिया गया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस गढ़वाली सैनिकों को बहुत पसन्द करते थे। उन्होंने मेजर बुद्धिसिंह रावत को अपने व्यक्तिगत स्टाफ का एडज्यूटैण्ट और रतूड़ी को गढ़वाली यूनिट का कमाण्डैण्ट बना दिया था। इसी तरह मेजर देबसिंह दानू पर्सनल गार्ड बटालियन के कमांडर के तौर पर तैनात थे।

आजाद हिन्द फौज में गढ़वालियों का शौर्य

इन तीन अफसरों के अलावा लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट, कैप्टन महेन्द्र सिंह बागड़ी, मेजर पद्मसिंह गुसाईं और मेजर देवसिंह दाणू की भी अपनी दिलेरी और निष्ठा के चलते आजाद हिन्द फौज में काफी धाक रही। लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट जब 17 मार्च 1945 को टौंगजिन के मोर्चे पर अपनी टुकड़ी का नेतृतव कर रहे थे तो उनके पास केवल 98 गढ़वाली सैनिक थे। जिनके पास रायफलें ही रक्षा और आक्रमण करने के लिये थीं। इन्होंने अंग्रेजी फौज के हवाई और टैंक-तोपों के हमलों का मुकाबला किया। इनमें से 40 ने वीरगति प्राप्त की। स्वयं ज्ञानसिंह भी दुश्मनों के दांत खट्टे करने के बाद सिर पर गोली लगने से शहीद हो गये थे। स्वयं जनरल शहनवाज खां ने अपनी पुस्तक में इन गढ़वाली सैनिकों और खास कर ज्ञानसिंह बिष्ट की असाधारण वीरता का विस्तार से उल्लेख किया है। कर्नल जी.एस.ढिल्लों ने भी अपनी रिपोर्ट “चार्ज ऑफ द इमोर्टल्स” में इन रणबांकुरों के बारे में लिखा है। इसी तरह महेन्द्र सिंह बागड़ी के नेतृत्व में गढ़वाली सेना ने कोब्यू के मोर्चे पर अंग्रेजों की तोपों और टैंकों से लैस लगभग 1000 सैंनिकों की तादात वाली सेना को केवल रायफलों और उन पर लगी संगीनों से ही खदेड़ दिया था। कर्नल पितृशरण रतूड़ी को सरदारे-जंग का वीरता पदक मिला था। दुर्भाग्यवश दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार के साथ ही आज़ाद हिन्द फ़ौज को भी पराजय का सामना करना पड़ा। आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिक एवं अधिकारियों को अंग्रेज़ों ने 1945 में गिरफ्तार कर लिया। आजाद हिन्द फौज के गिरफ्तार सैनिकों एवं अधिकारियों पर अंग्रेज सरकार ने दिल्ली के लाल किले में नवम्बर, 1945 में मुकदमा चलाया।

Netaji’s Residences – 194 Rajpura Road Dehradun – Main Building. The Main building was surrendered for want of money. Ramani Ranjan Das and his three granddaughters daughters occupied the right wing. Guests lived in the left wing.

जांच पर जांच बैठी मगर सच्चाई पर पर्दा बरकार

जापान ने सबसे पहले 23 अगस्त 1945 को घोषणा की थी कि नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को एक विमान दुर्घटना में हो गयी। लेकिन टोकिया और टहैकू के विरोधाभासी बयानों पर संदेह उत्पन्न होने पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 3 दिसम्बर 1955 को 3 सदस्यीय जांच समिति का गठन करने की घोषणा की जिसमें संसदीय सचिव और नेताजी के करीबी शाहनवाज खान, नेताजी के बड़े भाई सुरेश चन्द्र बोस और आइसीएस एन.एन. मैत्रा शामिल थे। इस कमेटी के शाहनवाज खान और मैत्रा ने नेताजी के निधन की जापान की घोषणा को सही ठहराया तो सुरेश चन्द्र बोस ने असहमति प्रकट की। इसलिये विवाद बरकार रहा। इसके बाद 11 जुलाई 1970 को जस्टिस जी.डी. खोसला की अध्यक्षता में जांच आयोग बैठाया गया तो आयोग ने विमान दुर्घटना वाले पक्ष को सही माना, मगर नेताजी के परिजनों, जिनमें समर गुहा भी थे, ने इसे अविश्वसनीय करार दिया। इसी दौरान कलकत्ता हाइकोर्ट ने भी मामले की गहनता से जांच करने का आदेश भारत सरकार को दिया तो 1999 में सुप्रीम कोर्ट के जज मनोज मुखर्जी की अध्यक्षता में एक और जांच आयोग बिठाया गया। मुखर्जी आयोग ने माना कि नेताजी अब जीवित नहीं हैं, परन्तु वह 18 अगस्त, 1945 में ताईपेई में किसी विमान दुर्घटना का शिकार नहीं हुए थे। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ताईवान ने कहा-18 अगस्त, 1945 को कोई विमान दुर्घटना नहीं हुई थी और रेनकोजी मंदिर (टोक्यो) में रखीं अस्थियां नेताजी की नहीं हैं। आयोग की जांच में यह भी पाया गया कि गुमनामी बाबा के नेताजी होने का कोई ठोस सबूत नहीं।

As assumed ; Netajis-Residences-194-Rajpura-Road-Dehradun-Residential-Wing-connected-to-Main-Building. collection Jay Singh Rawat

क्या देहरादून का साधू नेताजी थे?

आयोग ने देहरादून के राजपुर रोड स्थित शोलमारी आश्रम के संस्थापक स्वामी शारदा नन्द को भी नेताजी होने की पुष्टि नहीं की। आयोग के समक्ष दावा किया गया था कि फकाता कूच बिहार की तर्ज पर ही शोलमारी आश्रम बना हुआ है। आयोग के समक्ष कहा गया कि इस आश्रम की स्थापना 1959 के आसपास उक्त साधू ने की थी जिसका विस्तार बाद में 100 एकड़ में किया गया और वहां लगभग 1500 अनुयायी रहने लगे। आश्रम में सशस्त्र गार्ड भी रखे गये जिससे स्थानीय लोग आशंकित हुये। सन् 1962 में नेताजी के एक साथी मेजर सत्य गुप्ता आश्रम में पहुंच कर साधू से बात की और वापस कलकत्ता लौटने पर उन्होंने एक प्रेस कान्फ्रेंस कर साधू को नेता

Netajis so called Residences-194-Rajpura-Road-Dehradun-inside-view-on-the-door-circle-in-picture-above.

जी होने का दावा किया जो कि 13 फरबरी 1962 के अखबारों में छपा। यह मामला संसद में भी उठा। उक्त साधू की 1977 में मृत्य हो गयी। जांच आयोग ने कुल 12 लोगों के बयान शपथ पत्र के माध्यम से लिये जिनमें से 8 ने साधू को नेताजी बताया मगर एक वकील निखिल चन्द्र घटक, जो कि साधू के कानूनी मामले भी देखते थे , ने आयोग के समक्ष कहा कि साधू स्वयं कई बार स्पष्ट कर चुके थे कि वह सुभाष चन्द्र बोस नहीं हैं और उनके पिता जानकी नाथ बोस और माता विभावती बोस नहीं बल्कि वह पूर्वी बंगाल के एक ब्राह्मण परिवार में जन्में हैं। आयोग नेताजी के देहरादून में रहने की पुष्टि नहीं कर सका। इसी तरह आयोग के समक्ष शेवपुर कलां मध्य प्रदेश और फैजाबाद के साधुओं के नेताजी होने के दावे किये गये जिन्हें आयोग ने अस्वीकार कर दिया।

नेताजी बनाम नेहरू 

नेता जी के नाम पर आज नेहरू का यश घटाने का और उन्हें खलनायक  साबित करने का प्रयास किया जा रहा है। नेता   जी की  नीतियों को प्रचारित किया जा रहा है।  जबकि नेता जी सरदार पटेल की ही तरह साम्प्रदायिकता ( सावरकर और हिन्दू महासभा ) के घोर विरोधी थे। नेताजी INA  के जरिये पूर्वोत्तर भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने  लिए लड़ थे और सावरकर उस समय हिन्दुओं को फ़ौज में भर्ती हो कर अंग्रेजों साथ देने  की अपील कर रहे थे. ( “Samagra Savarkar Wangmaya: Hindu Rashtra Darshan”, vol. 6, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, pp. 460-61.) ) अगर नेता जी  जीवित होते तो बहुत मुमकिन है कि  वह भी ईएमएस नम्बूदरीपाद और हरिकिशन सिंह सुरजीत जैसे नेताओं की तरह कांग्रेस की बजाय कम्युनिस्ट पार्टी में होते। उनके द्वारा स्थापित फॉरवर्ड ब्लॉक भी एक वामपंथी दल ही है जो कि  वाम मोर्चा का घटक रहा है।

jaysinghrawat@gmail.com

mobile-9412324999

 

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