संविधान की 5वीं अनुसूची की छत्रछाया चाहिए उत्तराखंड को
-श्याम सिंह रावत
उत्तराखंड में अपनी सँस्कृति, विरासत, जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए इस राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों को संविधान की 5वीं अनुसूची में शामिल करने की जरूरत है। इससे इस पर्वतीय क्षेत्र को क्या लाभ मिलेगा?
पृष्ठभूमि–
ब्रिटिश सरकार ने 1931 में सयुंक्त प्रान्त आगरा व अवध (बाद में नाम उत्तर प्रदेश) के पहाड़ी जिलों (आज के उत्तराखंड) में अनुसूचित जिला अधिनियम 1874 (Scheduled Districts Act 1874) लागू कर इसकी ऐतिहासिक, साँस्कृतिक तथा सामाजिक स्थिति को देखते हुए जनजातीय क्षेत्र घोषित किया था। ब्रिटिशकालीन पहाड़ के दो जिले थे, एक अल्मोड़ा और दूसरा ब्रिटिश गढ़वाल। जबकि टिहरी रियासत अलग थी।
स्वाधीनता के बाद अनुसूचित जिला अधिनियम 1874 की तरह के प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 244 व 275 में निर्दिष्ट 5वीं तथा 6ठी अनुसूची में किए गए किंतु इस पर्वतीय क्षेत्र को उसके लाभों से वंचित कर दिया गया। यहाँ पर सोचने की बात है कि क्या शासन पद्धति में परिवर्तन होने के साथ ही लोक की ऐतिहासिक, साँस्कृतिक तथा सामाजिक स्थिति भी इसी तरह रातों-रात बदल जाती है?
संविधान की 5वीं तथा 6ठी अनुसूची में जनजातीय लोगों को जल, जंगल, जमीन व प्राकृतिक संसाधनों के लाभ सम्बंधी कुछ अतिरिक्त अधिकार मिले हैं और उसी आधार पर पर्वतवासियों को आँशिक रूप से कुछ हक-हकूकों के अलावा चिकित्सा व तकनीकी शिक्षा में प्रवेश पर 6 फीसदी आरक्षण दिया गया लेकिन फिर साल 1971 में उत्तर प्रदेश सरकार ने पहाड़ी क्षेत्रों को मिलने वाली ये मामूली सुविधाएं भी खत्म कर दीं। यानी विदेशी शासकों ने इस क्षेत्र की ऐतिहासिक व साँस्कृतिक पृष्ठभूमि तथा सामाजिक स्थिति को देखते हुए जो नियम-कानून लागू किए उन्हें स्वाधीन भारत के नीति-नियंताओं ने अमान्य घोषित कर दिया।
संविधान की 5वीं अनुसूची के लाभ:- इस पहाड़ी क्षेत्र को संविधान की 5वीं अनुसूची में शामिल करने से न केवल यहाँ जल, जंगल, जमीन व प्राकृतिक संसाधनों को बचाया जा सकेगा, बल्कि यहाँ के युवाओं को केंद्रीय शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में 7.5 प्रतिशत आरक्षण का लाभ भी मिलेगा। दो तरफ से अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से घिरा यह पहाड़ी क्षेत्र समृद्ध होने से पलायन पर रोक लगने से यह देश के लिए भी एक सुरक्षा कवच का काम करेगा।
संविधान का अनुच्छेद 244 देश के राष्ट्रपति को शक्ति देता है कि वो भौगोलिक या फिर अन्य परिस्थितियों में किसी भी क्षेत्र को जनजातीय घोषित कर सकते हैं। इसका प्रमुख लाभ उस क्षेत्र के लोगों को ही होता है जिससे वे अपनी सँस्कृति, परंपरागत धरोहर और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा कर सकें। उस अधिसूचित इलाके में बाहरी लोग न तो जमीन खरीद सकते हैं और न ही वे आम जनजीवन व परंपराओं में कोई हस्तक्षेप कर सकते हैं।
यह बड़ी विडंबना ही है कि इस क्षेत्र की उपेक्षा की जो शुरुआत स्वदेशी सरकारों ने संविधान लागू होने के साथ ही की थी वह आज भी निरंतर जारी है। सरकारी आँकड़े ही बताते हैं कि पृथक उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन पहले से भी अधिक तेजी से हुआ है। हजारों पहाड़ी गाँव जनशून्य होने से ‘भूतिया’ घोषित किए जा चुके हैं। बढ़ते पलायन का सबसे बड़ा सबूत तो यही है कि राज्य सरकार को पलायन आयोग का गठन करना पड़ा। इससे क्या लाभ हुआ, इस पर यहाँ चरचा करना अप्रासंगिक है।
तथ्यात्मक रूप से यह स्पष्ट है कि पहाड़ी लोग अपनी प्राचीन साँस्कृतिक परंपराओं का पालन करते हुए भी अपनी ऐतिहासिकता से अपरिचित हैं। उन्हें नहीं मालूम कि वे जिन त्यौहारों को मना रहे हैं उनकी ऐतिहासिक प्रासंगिकता क्या है। इसका एक बड़ा कारण है इनके ऐतिहासिक कारणों की तलाश करने के उलट इन्हें किवंदतियों से जोड़ देना।
इसलिए आज जरूरत इस बात की है कि अपनी पुरातन काल से प्रचलित परंपराओं को उनके संदर्भ सहित समझने तथा उसके यथानुरूप सरकार से इस पर्वतीय क्षेत्र को संविधान की 5वीं अनुसूची में शमिल कराने की।
-श्याम सिंह रावत