जब षडयंत्र के शिकार हुए कबीर

-गोविंद प्रसाद बहुगुणा
कबीर के साथ षडयंत्र की यह कथा मैने नहीं सुनी थी परन्तु गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की इस रचना से वह पहली बार ज्ञात हुआ ।
गुरुदेव ने कबीर पर बहुत कुछ लिखा है I उन्होने कबीर के दोहों और साखियों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया जो शायद भारतीय विद्याभवन द्वारा प्रकाशित सीरीज में उपलब्ध है उसको मैने भी एक सरसरी नजर से देखा था लेकिन उसकी चर्चा फिर कभी , आज तो मैं *कल्याण* के एक बहुत पुराने अंक में प्रकाशित एक सज्जन द्वारा उनकी रचना “मालिक का दान ” का बांग्ला से किया गया हिंदी अनुवाद का एक अंश ही यहां प्रस्तुत कर शेयर कर रहा हूँ ,पूरा उद्धहरण जरा कठिन है देखिये उसकी एक झांकी I
(१)
फ़ैल गई तब ख्याति देश में सिद्ध पुरुष है भक्त कबीर I
नर- नारी लाखों ने आकर घेरी उनकी वन्य कुटीरII
कोई कहता मन्त्र फूंककर मेरा रोग करो तुम दूरI
बाँझ पुत्र के लिए बिलखती कहती संत गोद भर दो I
कोई कहता इन आँखों से दैव शक्ति कुछ दिखलाओ I
जग में जग- निर्माता की सत्ता प्रमाण कर समझाओ II
कातर हो कबीर कर जोड़े रोकर कहने लगे प्रभोI
बड़ी दया की थी पैदा कर नीच यवन घर मुझे विभो II
सोचा था तब अतुल कृपा से पास न आवेगा कोई I
सबकी आँख ओट बस बात करेंगे तुम हम मिल दोई II
पर मायावी माया रच कर ,समझा मुझको ठगते हो I
दुनिया के लोगों को यहाँ बुलाकर तुम क्या भगते हो II
२
कहने लगे क्रोध में भर कर नगरी के ब्राह्मण सब I
पूरे चारों चरण छुए कलियुग के पाप छा गया है अब II
चरण धूलि के लिए जुलाहे की सारी दुनिया मरती है I
अब प्रतिकार नहीं होगा तो डूब जायेगी यह धरती I।
कर सबने षड्यंत्र एक कुलटा स्त्री को तैयार किया I
रुपयों से राजी कर उसको गुपचुप कर सब सिखा दिया II
कपडे बुन कबीर लाये हैं बेचने बीच बाज़ार I
पल्ला पकड़ अचानक कुलटा रोने लगी पुकार -पुकार II
बोली ,
” पापी निठुर छली ! अब तक मैंने रखा सब गोपन I
सरला अवला को छलना क्या यही तुमारा साधुपन ?
साधू बन बैठ गए तुम बन बिना दोष मुझको त्याग I
भूखी नंगी फिरी बदन सब काला पड़ा पेट की आग” I।
बोले कपट कोप कर ब्राह्मण पास खड़े थे ” दुष्ट कबीर !
भण्ड तपस्वी ! धर्म नाम से धर्म डुबोया बना फ़कीर ! II
सुख से बैठ सरल लोगों की आँखों झोंक रहा तू धूल I
अबला दीना दानो खातिर दर- दर फिरती उठती हूल !!
कबीर बोले ,
” दोषी हूँ मैं ,मेरे साथ चलो घर पर I
क्यों घर में अनाज रहते भूखों मरती दर- दर “II
दुष्टा को घर लाकर विनयपूर्वक उसका सत्कार किया ।
बोले संत दीन की कुटिया में हरि ने तुमको भेज दिया ।
रोकर बोल उठी वह मन में उपजा भय लज्जा परितापI
“मैंने पाप किया लालचवश होगा मरण साधू का शाप “II
कहने लगे कबीर,
“जननी मत डर कुछ दोष नहीं है तेरा I
तू निंदा अपमान रूप मस्तक भूषण लाइ मेरा “I
दूर किया मन का विकार सब, देकर उसे ज्ञान का दान ।। ….
(गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित कल्याण के संतवाणी अंक 1966 से साभार उद्धरित -GPB)
