उत्तराखंड में शहरी गरीबों के आवास संबंधी चुनौतियों पर पैनल चर्चा आयोजित
देहरादून, 12 दिसंबर। पर्यावरणीय एक्शन और एडवोकेसी समूह ‘SDC फाउंडेशन’ तथा ‘दून समग्र विकास अभियान’ द्वारा उत्तराखंड में आवास और झुग्गी बस्तियों से जुड़ी चुनौतियों पर एक विस्तृत चर्चा का आयोजन किया गया।
कार्यक्रम का संचालन सामाजिक कार्यकर्ता एवं SDC फाउंडेशन के संस्थापक अनूप नौटियाल ने किया। चर्चा में तीन वक्ताओं—शहरी योजनाकार एवं शोधकर्ता मुक्ता नाइक, सुशासन एवं विधिक विशेषज्ञ अर्कजा सिंह तथा शोधकर्ता एवं सामुदायिक कार्यकर्ता शंकर गोपाल ने भाग लिया। तीनों वक्ताओं ने देहरादून जैसे शहरों में अधिक मानवीय और व्यवहारिक आवास समाधान विकसित करने के लिए अपने अनुभव साझा किए।
मुक्ता ने बताया कि “सस्ती आवासीय सुविधा” की चर्चा तो खूब होती है, पर इसे व्यवहारिक रूप से समझा कम जाता है। यदि देहरादून में वास्तव में आवास लागत और पहुंच—दोनों के लिहाज़ से—सस्ती होतीं, और लोग अपने कार्यस्थलों, परिवहन, स्कूलों और आवश्यक सेवाओं तक सरलता से पहुंच पाते, तो झुग्गी बस्तियों का विस्तार जारी न रहता।
उन्होंने कहा कि झुग्गियां इसलिए नहीं बनतीं कि लोग उन्हें पसंद करते हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि औपचारिक आवास व्यवस्था उनकी आय के अनुरूप विकल्प प्रदान नहीं करती। भूमि के बढ़ते दाम, किराए के आवास की कमी, कमजोर शहरी नियोजन और निर्माण लागत में वृद्धि—ये सभी कारक झुग्गियों के बनने की स्थितियां पैदा करते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि बेदखली और ज़बरन पुनर्वास से न तो समस्या हल होती है और न ही बस्तियां कम होती हैं—लोग अक्सर दूसरी जगह नई झुग्गियों में बसने को मजबूर होते हैं, जिससे गरीबी और असुरक्षा बढ़ती है।
मुक्ता ने कहा कि हर चीज़ का दोष राजनीतिक संरक्षण पर डाल देना समस्या की संरचनात्मक गहराई को नज़रअंदाज़ करना है। ओडिशा और केरल के सफल उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि इन-सीटू सुधार और सामुदायिक नेतृत्व वाले पुनर्विकास मॉडल सफल रहे हैं, जबकि शहरों से दूर स्थानांतरण वाले प्रोजेक्ट विफल साबित हुए। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि उत्तराखंड के नदी तटों और जोखिमभरे क्षेत्रों में बढ़ते जलवायु खतरों को ध्यान में रखते हुए, दीर्घकालिक, गरिमापूर्ण और जलवायु-संवेदी नीतियां जरूरी हैं।
अर्कजा सिंह ने कहा कि देहरादून की मौजूदा स्थिति का बड़ा कारण शहरी नियोजन में खामियां, अस्पष्ट भूमि अभिलेख और संस्थागत विखंडन है। वर्षों तक शहर का विस्तार बिना पर्याप्त ज़ोनिंग, आधारभूत ढांचे या सेवा प्रावधानों की योजना के हुआ—जिससे बड़ी आबादी अनौपचारिक आवास पर निर्भर रहने को मजबूर हुई।
उन्होंने उत्तराखंड के कानूनी ढांचे—2016 स्लम पुनर्विकास अधिनियम, उसके नियमों और 2018 सस्ती आवास अधिनियम—को सरल भाषा में समझाया। उन्होंने बताया कि ये कानून दिशा तो देते हैं, लेकिन इनके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए मजबूत संस्थान, स्पष्ट प्रक्रियाएं और वास्तविक राजनीतिक इच्छाशक्ति आवश्यक है।
मध्यप्रदेश के अपने अनुभव साझा करते हुए अर्कजा ने बताया कि वहां नगर निगमों और समुदायों की संयुक्त भागीदारी से एक बड़े पैमाने का सामुदायिक-नेतृत्व वाला स्लम उन्नयन कार्यक्रम सफलतापूर्वक लागू हुआ। यह मॉडल दिखाता है कि कानूनी ढांचा तभी प्रभावी होता है जब उसमें विश्वास निर्माण, सहभागी नियोजन और स्थिर प्रशासनिक समर्थन जुड़ा हो। उन्होंने राष्ट्रीय कानूनी उदाहरणों का भी उल्लेख किया जो झुग्गी बस्तियों में रहने वाले परिवारों के अधिकारों की रक्षा करते हैं। उनका संदेश स्पष्ट था—उत्तराखंड की नीतियों को न्याय, प्रक्रिया की पारदर्शिता और मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित होना चाहिए, अन्यथा कानून सिर्फ कागज़ में रह जाएंगे।
शंकर गोपाल ने चर्चा को जमीन से जुड़े अनुभवों की ओर वापस ले गए। उन्होंने बताया कि दिहाड़ी मजदूर, घरेलू कामगार, ड्राइवर, निर्माण श्रमिक और शहर को चलाने वाले अनेक लोगों के लिए आवास संकट रोजमर्रा की असल चुनौती है। ऋषिपुरा, बिंदाल और कथबंगला जैसे क्षेत्रों में रहने वाले परिवारों के लिए सबसे बड़ा डर गरीबी नहीं बल्कि उजाड़े जाने का भय है। उन्होंने कहा कि जहां गरीबों पर तुरंत कार्रवाई की जाती है, वहीं बड़े और शक्तिशाली अतिक्रमणों को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है—जिससे गहरा अन्याय महसूस होता है।
उन्होंने यह भी साझा किया कि तोड़फोड़ अभियान बच्चों की पढ़ाई, मजदूरों की रोज़ी-रोटी और परिवारों की स्थिरता को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। हाल ही में हुई बारिश और बाढ़ की घटनाओं को देखते हुए उन्होंने बताया कि बहुत से लोग जोखिमपूर्ण जगहों पर इसलिए रहते हैं क्योंकि सुरक्षित विकल्प उनकी पहुंच में नहीं हैं। उन्होंने कहा कि समुदायों को परेशान करने की बजाय ईमानदार संवाद, अर्ली वार्निंग सिस्टम, सुरक्षित आवास डिज़ाइन और न्यायपूर्ण पुनर्वास की जरूरत है।
शंकर के अनुसार, परिवारों को बेघर न करना, जहां संभव हो वहां इन-सीटू विकास करना, सस्ती आवासीय परियोजनाएं विकसित करना और किसी भी पुनर्वास को सहभागी प्रक्रिया के तहत पूरा करना—ये सिद्धांत टिकाऊ समाधान दे सकते हैं। उनका मानना है कि यह प्रक्रिया कठिन नहीं, बस निरंतर बातचीत और ध्यान की जरूरत होती है और यह पूरी तरह संभव है। उनका अंतिम संदेश था—यदि देहरादून को सुरक्षित और टिकाऊ बनना है, तो उसे अपने श्रमिकों को सम्मान देना होगा और आवास को अपनी शहरी नीति के केंद्र में रखना होगा।
कार्यक्रम में बड़ी संख्या में प्रतिभागी उपस्थित थे, जिनमें नागरिक समाज के प्रतिनिधि, विधिक विशेषज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता, सरकारी अधिकारी, आर्किटेक्ट, आर्किटेक्चर तथा प्लानिंग के विद्यार्थी और संकाय सदस्य शामिल थे।
