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शक्तिवर्धक कीड़ा जड़ी की तलाश में युवा विहीन हो गये हिमालयी गांव ; सोने से भी महंगी है यह चमत्कारी जड़ी

रिपोर्ट हरेंद्र बिष्ट

थराली/देवाल। उत्तराखंड में हिमपर्वत श्रंखलाओं के नजदीकी गांवों इन दिनों किशोर एवं युवा विहीन हो कर रह गए हैं। दरअसल इन गांवों का युवा वर्ग बहुमूल्यवान यारशा गंबो की तलाश में अपने गांवों को छोड़ कर हिमाच्छादित पर्वत श्रंखलाओं के पास के बुग्यालों में जा चुके हैं।अब ये लोग जून के दूसरे पखवाड़े में ही अपने घरों को लौटेंगे।

दरअसल विश्व के गिने चुने देशों जिसमें चीन, नेपाल, भूटान के अलावा भारत के उत्तराखंड के उच्च हिमालई क्षेत्रों भी सामिल हैं इसके चमोली, बागेश्वर, पिथौरागढ़, उत्तरकाशी एवं चंपावत जिलों के हिमाच्छादित पर्वत श्रंखलाओं के पास 35 सौ से 5 हजार मीटर तक की ऊंचाई पर स्थित बुग्यालों में यारशा गंबो जिसे स्थानीय भाषा में कीड़ा-जड़ी भी कहा जाता हैं। विश्व की सर्वाधिक महंगी जड़ीयों में शामिल  कीड़ा जड़ी की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 18 से 20 लाख रुपए प्रति किलो हैं।

ये जड़ी उत्तराखंड के 5 जिलों के दूरस्थ  गांवों की आर्थिकी को मजबूत कर रही हैं। प्रकृति के द्वारा निशुल्क प्रदत्त इस उपहार का चुंगा का समय सीमित समय के लिए ही होता है।प्रति वर्ष मई के दूसरे पखवाड़े से जून के दूसरे पखवाड़े बारसात शुरू होने तक ही किया जा सकता हैं। अधिक बरसात होने पर जड़ी स्वत: ही गल जाती हैं।चमोली जिले के जोशीमठ, नंदानगर एवं देवाल विकास खंडों के डेढ़ दर्जन से अधिक गांवों के युवा, किशोर इन दिनों कीड़ा जड़ी के चुगान के लिए अपने गांवों को छोड़ कर बुग्यालों में अपना आशियाना जमा चुके हैं, जिससे बुग्याल तो गुलजार हो गऐ हैं, किंतु इन गांवों में इन दिनों केवल महिलाएं, बुजुर्ग एवं बच्चें ही बचें दिखाई पड़ रहे हैं। जिससे इन गांवों की रौनक कुछ समय के लिए घटकर रह गई हैं।

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कीड़ा जड़ी जो कि मशरूम प्रजाति का हैं। इसका वैज्ञानिको ने कार्डिसेप्स साइनेसिस नाम दिया हैं।इसकी प्राकृतिक उत्पति की भी अनोखी विधि बताई जाती हैं। उच्च हिमालई क्षेत्रों के पास स्थित बुग्यालों में 2-3 माह बद जब बर्फ पिघलने लगती है तो एक कीड़े का जन्म होने लगता हैं। यह कीड़ा बुग्याली वनस्पतियों को खा कर विकसित होता हैं। बताया जाता है कि इसी दौरान एक परजीवी हवा में उड़ते हुए इस कीड़े के पेट में चला जाता है, कीड़े के पेट में अनुकूल वातावरण मिलने पर यह विकसित होने लगता हैं। तब तक कीड़ा जीवित रहता है जबतक की परजीवी कीड़े के मुंह तक नही पहुंच जाता हैं। जैसे ही परजीवी विकसित होते हुए कीड़े के मुंह से बहार आता हैं वैसे ही कीड़ा मर जाता हैं, परंतु कीड़ा तबतक विकासित होता रहता है जबतक कीड़े के शरीर में मांस रहता है मांस समाप्त होते ही कीड़े का विकास भी रूक जाता हैं।इस कीड़ा जड़ी की लंबाई 10 से 15 सेंटीमीटर तक हो सकती हैं।

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बिना कीड़े एवं बिना जड़ी के कीड़ा जड़ी का महत्व नही होता हैं।इस लिए इनके चुगान के दौरान ग्रामीणों को विशेष सतर्कता बरतनी पड़ती हैं। इस साल जोड़ों के सीजन में बारिश एवं बर्फबारी कम होने के कारण बुग्यालों में कीड़ा जड़ी कम मिल रही, चुगान से लौटे ग्रामीणों ने कहा कि इस अनुकूल मौसम के अभाव में कीड़ा जड़ी के लिए अधिक मेहनत करनी पड़ रही हैं।

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कीड़ा जड़ी को यौन क्षमता को बढ़ाने के लिए बेहद कारगर माना जाता हैं इसके अलावा केंसर सहित अन्य कई रोगों के उपचार के लिए भी इससे रामबाण औषधियों का निर्माण किया जाता हैं।इसी लिए इसकी कीमत काफी अधिक हैं।
थराली/देवाल। उत्तराखंड में हिमपर्वत श्रंखलाओं के नजदीकी गांवों इन दिनों किशोर एवं युवा विहीन हो कर रह गए हैं। दरअसल इन गांवों का युवा वर्ग बहुमूल्यवान यारशा गंबो की तलाश में अपने गांवों को छोड़ कर हिमाच्छादित पर्वत श्रंखलाओं के पास के बुग्यालों में जा चुके हैं।अब ये लोग जून के दूसरे पखवाड़े में ही अपने घरों को लौटेंगे।

दरअसल विश्व के गिने चुने देशों जिसमें चीन, नेपाल, भूटान के अलावा भारत के उत्तराखंड के उच्च हिमालई क्षेत्रों भी सामिल हैं इसके चमोली, बागेश्वर, पिथौरागढ़, उत्तरकाशी एवं चंपावत जिलों के हिमाच्छादित पर्वत श्रंखलाओं के पास 35 सौ से 5 हजार मीटर तक की ऊंचाई पर स्थित बुग्यालों में यारशा गंबो जिसे स्थानीय भाषा में कीड़ा-जड़ी भी कहा जाता हैं। विश्व की सर्वाधिक महंगी जड़ीयों में सामिल कीड़ा जड़ी की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 18 से 20 लाख रुपए प्रति किलो हैं। यें जड़ी उत्तराखंड के 5 जिलों के दुरस्थ गांवों की आर्थिकी को मजबूत कर रही हैं। प्रकृति के द्वारा निशुल्क प्रदत्त इस उपहार का चुंगा का समय सीमित समय के लिए ही होता है।प्रति वर्ष मई के दूसरे पखवाड़े से जून के दूसरे पखवाड़े बारसात शुरू होने तक ही किया जा सकता हैं। अधिक बरसात होने पर जड़ी स्वत: ही गल जाती हैं।चमोली जिले के जोशीमठ, नंदानगर एवं देवाल विकास खंडों के डेढ़ दर्जन से अधिक गांवों के युवा, किशोर इन दिनों कीड़ा जड़ी के चुगान के लिए अपने गांवों को छोड़ कर बुग्यालों में अपना आशियाना जमा चुके हैं, जिससे बुग्याल तो गुलजार हो गऐ हैं, किंतु इन गांवों में इन दिनों केवल महिलाएं, बुजुर्ग एवं बच्चें ही बचें दिखाई पड़ रहे हैं। जिससे इन गांवों की रौनक कुछ समय के लिए घटकर रह गई हैं।
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कीड़ा जड़ी जो कि मशरूम प्रजाति का हैं। इसका वैज्ञानिको ने कार्डिसेप्स साइनेसिस नाम दिया हैं।इसकी प्राकृतिक उत्पति की भी अनोखी विधि बताई जाती हैं। उच्च हिमालई क्षेत्रों के पास स्थित बुग्यालों में 2-3 माह बद जब बर्फ पिघलने लगती है तो एक कीड़े का जन्म होने लगता हैं। यह कीड़ा बुग्याली वनस्पतियों को खा कर विकसित होता हैं। बताया जाता है कि इसी दौरान एक परजीवी हवा में उड़ते हुए इस कीड़े के पेट में चला जाता है, कीड़े के पेट में अनुकूल वातावरण मिलने पर यह विकसित होने लगता हैं। तब तक कीड़ा जीवित रहता है जबतक की परजीवी कीड़े के मुंह तक नही पहुंच जाता हैं। जैसे ही परजीवी विकसित होते हुए कीड़े के मुंह से बहार आता हैं वैसे ही कीड़ा मर जाता हैं, परंतु कीड़ा तबतक विकासित होता रहता है जबतक कीड़े के शरीर में मांस रहता है मांस समाप्त होते ही कीड़े का विकास भी रूक जाता हैं।इस कीड़ा जड़ी की लंबाई 10 से 15 सेंटीमीटर तक हो सकती हैं।
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बिना कीड़े एवं बिना जड़ी के कीड़ा जड़ी का महत्व नही होता हैं।इस लिए इनके चुगान के दौरान ग्रामीणों को विशेष सतर्कता बरतनी पड़ती हैं। इस साल जोड़ों के सीजन में बारिश एवं बर्फबारी कम होने के कारण बुग्यालों में कीड़ा जड़ी कम मिल रही, चुगान से लौटे ग्रामीणों ने कहा कि इस अनुकूल मौसम के अभाव में कीड़ा जड़ी के लिए अधिक मेहनत करनी पड़ रही हैं
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कीड़ा जड़ी को यौन क्षमता को बढ़ाने के लिए बेहद कारगर माना जाता हैं इसके अलावा केंसर सहित अन्य कई रोगों के उपचार के लिए भी इससे रामबाण औषधियों का निर्माण किया जाता हैं।इसी लिए इसकी कीमत काफी अधिक हैं।

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