दिसम्बर तक भंग हो जायेगा देवस्थानम् बोर्ड ?
- बंजर दिमागों की उपज है चारधाम बार्ड
- गावों से उनके कुलदेवता कैसे छीनोग?
- ध्यानी समिति भंग करा सकती है देवस्थानम बोर्ड को !
- बंजर दिमागों की उपज है चारधाम बार्ड
- सरकार ने पण्डा पुजारियों से ही दो सदस्यों को तोड़ दिया
- उत्तराखण्ड के चारधामों की तिरुपति और वैष्णोदेवी से तुलना नहीं हो सकती
- ट्रस्ट में नौकरशाहों की फौज खड़ी कर दी
–जयसिंह रावत
चारधाम देवस्थानम् बोर्ड पर राय देने के लिये भाजपा के वयोवृद्ध नेता एवं बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के पूर्व अध्यक्ष मनोहरकान्त ध्यानी की अध्यक्षता में समिति के गठन के बाद इस विवादास्पद बोर्ड के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। अधकचरे दिमागों की उपज माने जा रहे इस बोर्ड के भंग होने की पूरी संभावना है। क्यों बोर्ड के गठन से बेहद नाराज पण्डा-पुरोहित समाज सत्ताधारी भाजपा को कोर वोटर ग्रुप होने के साथ ही जनमत बनाने का एक सशक्त माध्यम भी है और इसी लिये आरएसएस का भी कोई संगठन इसके पक्ष में नहीं है। संभावना है कि ध्यानी कमेटी की रिपोर्ट के बाद आगामी चुनाव से पहले विधानसभा के शीतकालीन सत्र के सत्रावसान के साथ ही देवस्थानम् बोर्ड का भी अवसान हो जायेगा।
ध्यानी समिति भंग करा सकती है देवस्थानम बोर्ड को !
बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री के साथ ही प्रदेश के 56 मंदिरों के नियंत्रण के लिये गठित चारधाम देवस्थानम् बोर्ड के खिलाफ इन मंदिरों से संबंधित पण्डा पुजारियों में भारी आक्रोश का असर आगामी विधानसभा चुनाव पर पड़ने की आशंका से मुख्यमंत्री पुष्कर धामी ने जिस उच्चाधिकार पुनर्विचार प्राप्त कमेटी का गठन किया है उसके अध्यक्ष मनोहर कांत ध्या
नी प्रदेश के वरिष्ठतम् भाजपा नेता होने के साथ ही पूर्व सांसद और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुके हैं। इसलिये उनकी कमेटी की सिफारिश को टालना पुष्कर धामी के बस की बात नहीं है। पूरी संभावना है कि इस कमेटी की रिपोर्ट चारधाम बोर्ड के खिलाफ जायेगी। उसका एक कारण आरएसएस के सभी अनुसांगिक संगठनों का बोर्ड के खिलाफ होने के साथ ही ध्यानी स्वयं भी पण्डा समाज से हैं और वह बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। यह वही समिति है जो देवस्थानम् बोर्ड के अस्तित्व में आने पर भंग हुयी है।
बंजर दिमागों की उपज है चारधाम बार्ड
त्रिवेद्र सरकार ने राज्य की विशिष्ट परिस्थितियों, पूजा पद्धतियों और जनभावनाओं को ध्यान में रखे बिना अपने अधकचरे सलाहकारों की सलाह से वैष्णोदेवी और तिरुमाला तिरुपति की तर्ज पर बदरी-केदार मंदिर समित के 1939 के उत्तर प्रदेश के एक्ट संख्या 7 की जगह ‘चारधाम देवस्थानम् बोर्ड’ का हवाई अधिनियम तो बनवा दिया, लेकिन एक साल गुजरने पर भी अधिनियम को लागू करने के लिये न तो उपनियम या बाइलॉज बन पाये और ना ही श्राइन बोर्ड या देवस्थानम् बोर्ड कहीं नजर पाया। बदरी-केदार सहित 56 मंदिरों की पूजा पद्धतियां, परम्पराएं, हकहुकधारी और भौगोलिक परिस्थितियां इतनी भिन्न हैं कि एक-एक के लिये उपनियम बनाना व्यवहारिक नहीं है। सरकार ने ऐक्ट में ‘चारधाम श्राइन प्रबंधन बोर्ड‘ के ‘‘श्राइन’’ शब्द को हटा कर उसकी जगह ‘‘देवस्थानम’’ जोड़ तो दिया मगर अब भी यह नाम देश विदेश के लोगों के लिये भ्रामक है। हिन्दू धर्म ध्वजा की संवाहक होने वाली भाजपा सरकार को पता होना चाहिये था कि आदिगुरू शंकराचार्य द्वारा सनातन धर्म की रक्षा के लिये देश के चार कोनों में स्थापित चार सर्वोच्च धार्मिक पीठों में से केवल एक पीठ ज्योतिर्पीठ ही उत्तराखण्ड के बदरीनाथ में है। शेष पीठों में से पूरब में जगन्नाथ पुरी (उड़ीसा) पश्चिम में द्वारका (गुजरात) और दक्षिण में रामेश्वरम् (तमिलनाडू) में हैं।
सरकार ने पण्डा पुजारियों से ही दो सदस्यों को तोड़ दिया
त्रिवेन्द्र सरकार की गलतियों को ढांपने के लिये सरकार ने डिमरी पंचायत के एक नेता आशुतोश डिमरी को बोर्ड के ट्रस्ट में शामिल कर असन्तुष्ट पण्डे पुजारियों की एकता तोड़ने का राजनीतिक प्रयास तो किया है मगर पण्डे पुजारियों के लिये त्रिवेन्द्र सिंह से ज्यादा यही दो पुजारी समुदाय के सदस्य बैरी बन गये हैं। बोर्ड में मनोनयन से पहले आशुतोष डिमरी इस बोर्ड के सबसे मुखर विरोधी थे और पत्रकार होने के नाते मीडिया में बोर्ड विरोधी समाचारों को भरपूर इनपुट दे रहे थे। पद मिलने के बाद वह बोर्ड के समर्थन में आ गये।
उत्तराखण्ड के चारधामों की तिरुपति और वैष्णोदेवी से तुलना नहीं हो सकती
भाजपा की त्रिवेन्द्र सरकार की कपोल कल्पनाओं के देवस्थानम् बोर्ड के कानून में ‘जम्मू-कश्मीर, श्रीमाता वैष्णो देवी श्राइन एक्ट 1988’ एवं तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम् एक्ट 1932 (संशोधन 2006) की तरह श्राइन क्षेत्र की बात भी कही गयी है। यह वह क्षेत्र होगा जिस पर देवस्थानम् बोर्ड यात्री सुविधाएं विकसित करने के साथ ही मंदिरों का प्रबंधन करेगा। इसके लिये तिरुपति और वैष्णोदेवी की तरह एक निश्चित क्षेत्र बोर्ड के नियंत्रण में देने के लिये अधिसूचना सरकार द्वारा जारी की जायेगी। वैष्णो देवी में कटरा से लेकर गुफा तक और आसपास की पहाड़ियों को भी अधिसूचित क्षेत्र घोषित किया गया है। इसी तरह तिरुपति का अधिसूचित क्षेत्र तिरुमाला से शुरू होता है। उत्तराखण्ड के 56 मंदिरों में बोर्ड द्वारा प्रबंधन के लिये क्षेत्र अधिसूचित करना तो लगभग नामुमकिन ही है, लेकिन केवल बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री में भी सरकार श्राइन क्षेत्र अधिसूचित करने की सोचेगी भी कैसे? बदरीनाथ में हनुमान चट्टी से मंदिर तक क्षेत्र अधिसूचित किया गया तो स्थानीय लोग उनके गौचर-पनघट पर अतिक्रमण से बबाल मचा देंगे। केदारनाथ मंदिर स्वयं केदारनाथ वन्यजीव विहार के अन्तर्गत है और वन्यजीवों के लिये संरक्षित क्षेत्र का असानी से डिनोटिफिकेशन नहीं होता। यमुनोत्री के लिये खरसाली से और गंगोत्री के लिये मुखवा गांव से लेकर इन मंदिरों तक श्राइन क्षेत्र घोषित करने होंगे और अगर ऐसा किया गया तो सरकार को जनता के असली आक्रोश का सामना तब करना पड़ेगा। गंगोत्री क्षेत्र के लोग पहले ही इको सेंसिटिव जोन से परेशान हैं। उत्तराखण्ड में ‘‘जितने कंकर उतने शंकर’’ वाली कहावत प्रसिद्ध है। मतलब यह कि यहां पगपग पर प्राचीन मंदिर हैं। सरकार उनके लिये कहां से और कितने श्राइन क्षेत्र अधिसूचित करेगी? और नहीं करेगी तो देवस्थानम् बोर्ड का क्या मतलब रह जायेगा?
ट्रस्ट में नौकरशाहों की फौज खड़ी कर दी
भाजपा सरकार ने अमित शाह के नक्शे कदम पर चलने के लिये ऐसा बेतुका निर्णय तो ले लिया लेकिन नौकरशाही ने भी अपने राजनीतिक मालिकों की अज्ञानता का लाभ उठाते हुये अपने लिये एक और चारागाह तलाश लिया । वैष्णो देवी में उपराज्यपाल की अध्यक्षता वाले बोर्ड में केवल एक मुख्य कार्यकारी के अलावा कोई अन्य आइएएस नहीं है। अध्यक्ष सहित कुल 10 सदस्य हैं, जो कि उपराज्यपाल द्वारा धर्म, संस्कृति और समाज सेवा सहित विभिन्न क्षेत्रों की हस्तियां हैं। इनमें 3 सदस्य तो विधि, न्याय और प्रशासन क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। इसी प्रकार तिरुपति बोर्ड में भी गिने चुने ही नौकरशाह हैं। उसमें जनप्रतिनिधि विधायक और सांसद ज्यादा है। लेकिन त्रिवेन्द्र रावत का बोर्ड अपने आप में पूरी सरकार है, जिसके 8 पदेन सदस्यों में से 6 आइएएस हैं। इस बोर्ड में पदेन सदस्यों के अलावा 18 मनोनीत सदस्य हैं। मतलब यह कि भाजपा के लोगों को पुनर्वासित करने के लिये पर्याप्त गुजाइश रखी गयी है। इनके अलावा उच्च प्रबंध समिति में मुख्य कार्याधिकारी सहित कुल 15 आइएएस रखे गये हैं, जिनमें 11 प्रमुख सचिव स्तर के हैं। अफसरों की इतनी बड़ी फौज से कैसे उम्मीद की जायेगी कि वे अफसरी कम और तीर्थसेवा ज्यादा करेंगे? वे केवल परिवार समेत बदरी-केदार के दर्शन करने के बाद देहरादून में बैठ कर ही चारधाम यात्रा का प्रबंधन करेंगे।
तिरुपति-वैष्णो देवी की नकल बदरी-केदार में मूर्खता
तिरुपति और वैष्णो देवी की तुलना उत्तराखण्ड के धामों और तीर्थों से करना भी अपने आप में अज्ञानता का प्रतीक है। तिरुपति और वैष्णो देवी में सालभर पूजा होती है, जबकि उत्तराखण्ड के हिमालयी तीर्थ साल में केवल 6 माह के लिये खुलते हैं। वैष्णो देवी और तिरुपति में वंशानुगत पुजारी होते हैं। जबकि बदरीनाथ में केरल का नम्बूदरीपाद ब्राह्मण रावल और केदारनाथ में कर्नाटक का वीर शैव जंगम लिंगायत रावल होता है। केदारनाथ का रावल प्रमुख धार्मिक हस्ती तो है मगर पुजारी नहीं है। बदरीनाथ का पुनरुद्धार स्वयं आदि गुरू शंकराचार्य ने 8वीं सदी में किया था जो कि देश के चार सर्वोच्च धामों में से एक है। जबकि भगवान शिव के द्वादस शिवलिंगों में से एक पंाचवें (इसे ग्यारहवां भी माना जाता है) शिवलिंग की स्थापना केदारनाथ में पाण्डवों ने स्वर्गारोहण के दौरान की थी। बदरीनाथ में गर्भगृह से लेकर तप्तकुण्ड और नजदीक के मंदिरों में पुजारी और हकहुकूकधारी अलग-अलग हैं। मसलन गभगृह के लिये रावल वेतनभागी मुख्य पुजारी है। डिमरी लोग वंशानुगत पुजारी हैं तो वेदपाठी और धार्माधिकारी मंदिर समित के वेतनभागी हैं। तप्तकुण्ड के निकट देवप्रयाग के पण्डे पूजा करते हैं। बदरीनाथ धाम ही नहीं एक तीर्थ भी है जहां ब्रह्मकपाल में देश विदेश के लोग अपने पित्रों का पिण्डदान करते हैं और इसीलिये इसे मोक्षधाम भी कहा जाता है। पंचबदरी (पांच बदरीनाथ) एवं पंचकेदार (पांच केदार) नाम से इनकी अपनी ऋंखला है। इनके अलावा यहां सेकड़ों की संख्या में शिव और उतने ही शक्तिस्वरूपा भगवती के मंदिर विभिन्न नामों से हैं।
गावों से उनके कुलदेवता कैसे छीनोग?
इनके अलावा भी हर गांव और समुदाय के अपने कुल देवता और ग्राम देवता होते हैं। सरकार द्वारा भी राज्य के प्रमुख मंदिरों को 5 श्रेणियों या अनुसूचियों में बांटा हुआ है। पहली अनुसूची में बदरीनाथ सहित 30 मंदिर, दूसरी में केदारनाथ समेत 17 मंदिर, तीसरी अनुसूची में यमुनोत्री और आसपा के मंदिर, चौथी अनुसूची में गंगोत्री और पांचवी अनुसूची में टिहरी के चन्द्रबदनी और रघुनाथ मंदिर तथा पौड़ी जिले का राजराजेश्वरी मंदिर रखा गया है। वर्ष 2004 में भी ऐसा ही बोर्ड बनाने का प्रयास किया गया था जो कि भरी जनाक्रोश के कारण विफल रहा। दरअसल तिरुपति में 1987 में परम्परागत हकहुकूक समाप्त कर दिये गये थे जो कि भारी विरोध के बाद 2006 में बहाल हो सकेे। ऐसा ही भय उत्तराखण्ड के 56 मंदिरों के हकहुकूकधारियों में भी है। वर्तमान में चारधाम की व्यवस्थाओं को सुधरने के लिये नयी व्यवस्था अत्यंत आवश्यक है मगर उसका समाधान वर्तमान बोर्ड हरगिज नहीं है।
-जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
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