फिजी की राजनीति के शीर्ष पर पहुंचा उत्तराखण्ड का लाल बदरी प्रसाद
–डॉ योगेश धस्माना
एक बंधुआ मजदूर के रुप में कार्य करने वाले बद्री प्रसाद बमोला रुद्रप्रयाग के ऐसे अज्ञात पहाड़ी व्यक्ति हैं जिन्होंने फिजी में गन्ने की खेती में लगे भारतवर्षीय लोगों को न सिर्फ अंग्रेजों की बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराया , वरन फिजी में एक सशक्त राजनीतिक दल का गठन कर उसका नेतृत्व भी किया I और स्वयं भी संसद में पहुंचकर प्रतिपक्ष के नेता के पद को सुशोभित किया I
लेखक बनारसी दास ने लिखा है कि बद्री प्रसाद एकमात्र शर्त बंद कुली थे जिन्होंने 1890 से लेकर 1894 तक स्वयं मजदूरी की I बद्री प्रसाद का जन्म रुद्रप्रयाग जनपद के तला नागपुर के गांव बमोली में 1868 ईस्वी में पिता काशीराम के घर पर हुआ था , जो ज्योतिष और कर्मकांडी व्यक्ति थे I 18 वर्ष की आयु में यह घर से भागकर बनारस पहुंचे अचानक इन्हें कुछ अर्से बाद सिंगापुर पिनांग का एक जॉन दामोदर नाम का व्यक्ति मिला , जिसने धोखे से इन्हें फिजी में गन्ने की खेती के लिए ले जा रहे प्रवासी भारतीय मजदूरों के साथ पानी के जहाज में बैठाकर फिजी पहुंचा दिया I
एक शर्त बंद कुली के रूप में 1894 तक इन्होंने कार्य करने के बाद समस्त भारतीय मजदूरों के हितों के लिए संघर्ष किया I स्वयं कुछ कृषि भूमि खरीदकर उस पर भारतीय श्रमिकों को काम दिया I इस तरह 1899 में इन्होंने एक राजनीतिक दल का भी गठन किया I बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दो दशकों में अफ्रीका यूरोप में शर्त बंद कुली बेगार प्रथा के बंद होने से फिजी में भी इन्होंने महात्मा गांधी के आंदोलन से प्रेरित होकर भारतीय हितों के लिए संघर्ष किया I इस तरह फिजी में इनकी छवि एक सर्वमान्य नेता के रूप में उभरकर सामने आई I इनकी लोकप्रियता और कार्यक्रमों से प्रभावित होकर सीएफ एंड्रयूज और मिस्टर ग्रीएशन ने फिजी में जाकर उनसे मुलाकात की और भारतीय मजदूरों के साथ संघर्ष को अपना समर्थन दिया I
1917 में फिजी में गवर्नर जनरल के लिए गठित काउंसिल में इन्हें भारतीय प्रतिनिधि की हैसियत से शामिल किया गया I साथ ही नेता प्रतिपक्ष का भी दर्जा दिया किसी की कुल आबादी में आज भी उन 49% हिस्सा भारतीय मूल के लोगों का है I बद्री प्रसाद की लोकप्रियता का आलम यह था कि इन्हें भारतीय प्रवासी महाराज कहकर बुलाते थे I कुली रहते हुए उन्होंने 1898 में पीसी में आजमगढ़ के ब्राह्मण परिवार की कन्या से विवाह किया I और इनके कुल 6 पुत्र और तीन पुत्रियां हुई I इसके दूसरे पुत्र अंबिका दत्त ने इलाहाबाद से B.Ed करने के उपरांत फिजी में शिक्षा विभाग का निदेशक पद संभाला I बड़े पुत्र राघवानंद अविवाहित रहे I अंबिकादत्त के पुत्र सत्यानंद कुछ वर्ष पूर्व तक न्यूजीलैंड में गवर्नर जनरल के पद पर रहे I इनके परिवार ने कुली प्रथा से मुक्त होकर फिजी में जय फिजी नाम का एक लोकप्रिय पत्र भी निकाला I फिजी में इनकी लोकप्रियता का एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत है I जब 1923 में फिजी सरकार ने यूरोपियन को छोड़कर अन्य सभी जाति के लोगों पर एक नागरिक कर गया लगाया I तब इस का प्रबल विरोध बद्री प्रसाद ने कौंसिल में किया और निश्चय किया कि जब तक यह कर समाप्त नहीं कर दिया जाता वह कौंसिल का बहिष्कार करेंगे I संपूर्ण फिजी में इसके लिए आंदोलन चलाकर उन्होंने लोगों को इकट्ठा किया Iआखिरकार तत्कालीन गवर्नर ने बद्री प्रसाद के घर पर जाकर काउंसिल की , और कार्रवाई में भाग लेने का अनुरोध किया I
बद्री प्रसाद ने गवर्नर जनरल के इस अनुरोध को ठुकराते हुए कहा कि जब तक वह इस टैक्स को वापस नहीं ले लेते तब तक वे संसद की कार्यवाही में भाग नहीं लेंगे I आखिरकार गवर्नर जनरल को इस टैक्स को समाप्त करना ही पड़ा I फिजी में रहकर गढ़वाल उनकी यादों में बसा रहा 1928 में वे भारत आए तब ब्रिटिश सरकार ने सरकारी मेहमान का दर्जा देकर उनकी पूरी व्यवस्था की I तीन माह तक वे गांव बमोली में अपने परिवार के साथ रहे I पौड़ी , देहरादून , कानपुर कोर्ट बार वृंदावन में रहने के बाद वह वापस स्वदेश लौट गए I दुर्भाग्यवश 1932 में इसी में उनका निधन हो गया I उनके पुत्र इंग्लैंड न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया में जा बसे हैं I इनके तीसरे पुत्र ज्ञानेश्वर इंग्लैंड में बसे हैं I बद्री प्रसाद देहरादून से प्रकाशित गढ़वाली समाचार पत्र के शेयर होल्डर भी थे I
इनका आज भी अपने पैतृक जनपद से संबंध बना हुआ है , और यह टूटी-फूटी हिंदी के साथ गढ़वाली भी बोल देते हैं I फिजी में बद्री प्रसाद का यह संघर्ष भारतीय और उत्तराखंड के स्वाभिमान का भी प्रतीक था I इस अवसर पर उन्हें शत-शत नमन I