समाज को समर्पित पत्रकारिता के 45 वर्ष
–जयसिंह रावत
मुद्रित शब्दों का महत्व सबसे पहले मुझे सन् 1977 में हुए चुनाव में समझ में आया। उस समय हम इमरजेंसी की ज्यादतियों के साथ ही कांग्रेसियों की दबंगई को भी देख रहे थे। उसी दौरान मेरा पहला सम्पादक के नाम पत्र नन्दप्रयाग से प्रकाशित ‘देव भूमि’ में छपा। पत्र पर प्रतिक्रिया हुयी तो मुझे लगा कि मैं गांव का आम लड़का नहीं हूं। उसके बाद मेरा दूसरा पत्र गोपेश्वर से प्रकाशित उत्तराखण्ड आब्जर्बर में छपा तो उस पर भी जबरदस्त प्रतिक्रिया हुयी। होनी भी थी, क्योंकि वह पत्र भी तत्कालीन सरकार और बेकाबू राजनीतिक कार्यकर्ताओं की कारगुजारियों पर था। उसके बाद पत्रकारिता की धुन मेरे सिर पर सवार होती गयी। देहरादून में छात्र जीवन के दौरान ही मुझे हिमाचल टाइम्स में रिपोर्टर की नौकरी मिल गयी। हालांकि मेरी अंग्रेजी कुछ कमजोर अवश्य थी मगर सम्पादक एस०पी० पांधी मेरे ‘न्यूज सेंस’ से काफी प्रभावित हुये। मुझे जब पहली बार रिपोर्टिंग के लिये देहरादून कोतवाली भेजा गया तो मैं डरा सहमा कोतवाली में एक दैत्याकार कोतवाल के सामने बैठा था। उसके सामने एक-एक कर कांस्टेबल आ कर सैल्यूट ठोक रहे थे और वह सबको कह रहा था, ‘‘आ गया साला बड़ा-बड़ा टोप्पा लेकर’’। यह आशीर्वचन तो वह सबको दे ही रहा था, लेकिन कभी-कभी गन्दी-गन्दी गालियां भी निकाल रहा था। उसकी भावभंगिमा भी रूह कंपाने वाली थी। बहरहाल सारे के सारे पुलिसवाले निपटे तो उस खतरनाक कोतवाल ने मेरी ओर रुख करते ही पूछा कि बोलो क्यों आये हो? उस समय मेरी उम्र 19 या 20 साल की रही होगी। मैं डीएवी कालेज में पढ़ भी रहा था। डरते सहमते मैंने उसको अपना परिचय जो दिया कि वह गिरगिट की तरह पलक झपकते ही बेहद नम्र हो गया। उसके चेहरे पर मुस्कराहट तैरते देर नहीं लगी। उसके बाद कोतवाल ने मेरे लिये चाय ही नहीं, मिठाई भी मंगाई। उस दिन मुझे पता चला कि आखिर पत्रकार भी किसी तोप से कम नहीं होता है।
Hypocracy in the name of Gandhi
45 सालों में पत्रकारिता में कहां से कहां पहुंच गयी
पिछले 45 सालों में पत्रकारिता हर मामले में कहां से कहां पहुंच गयी है। टेक्नोलॉजी ने तो महाक्रांति कर डाली। सूचना के श्रोत और उसके गन्तव्य के बीच की दूरी लगभग समाप्त ही हो गयी है। पहले केवल पढ़े लिखे लोग अखबारों से खबर प्राप्त करते थे और रेडियो से अनपढ़ भी देश दुनिया को जानने की कोशिश करते थे। लेकिन अब खबर साक्षात् दिख रही है। हम जब गोपेश्वर डिग्री कॉलेज में पढ़ते थे तो वहां शाम को 5-6 बजे रोडवेज की बस अखबार लाया करती थी। बरसात में लोग दो तीन दिन के अखबार एक साथ पढ़ते थे। गांव में कोई इक्का-दुक्का ही बीबीसी लन्दन के समाचार सुनता था और अन्य लोग जिनके घर में रेडियो होता था वे फरमाइशी प्रोग्राम सुनते थे। मैंने अपने जीवन का पहला अखबार कर्मभूमि ही देखा था, क्योंकि वह हमारे हेडमास्टर जी के पास डाक से आता था। उसके बाद ‘देवभूमि’, ‘उत्तराखण्ड आब्जर्बर’ और ‘सत्यपथ’ जैसे साप्ताहिक देखने को मिले। आज सुबह ही गोपेश्वर, मुन्स्यारी, उŸारकाशी, पिथौरागढ़ या अल्मोड़ा नगरों में दैनिक अखबार पहुंच रहे हैं। अखबार भी एक या दो नहीं बल्कि दर्जनों की संख्या में सुबह सुबह कहीं भी पहाड़ों में आपको दिख जाते हैं। इलैक्टनॉनिक मीडिया के आगाज के बाद तो पल-पल की खबरें अखबारों से पहले ही आप तक पहुंच रही हैं।
सूचना प्रौद्योगिकी की महाक्रांति के दौर में सब कुछ बदल गया
मैंने पहली बार दूरदर्शन की झलक अस्सी के दशक में देहरादून के घण्टाघर के निकट एक दुकान पर देखी थी। उस समय ब्लैक एण्ड व्हाइट टीवी चलता था। सूचना प्रौद्योगिकी की इस महाक्रांति के दौर में सब कुछ बदल गया। मैं कभी डाकखाने से पी०टी०आई० और हिमाचल टाइम्स के लिये तार से खबरें भेजता था। अगर लाइन ठीक-ठाक होती थी तो तब ही संदेश आगे जाता था। तार से खबर भेजते समय बहुत कम शब्दों का प्रयोग करना होता था, इसलिये लिखने में कंजूसी करनी होती थी। उसके बाद हमें फैक्स अथॉरिटी मिली और बाद में ई-मेल से ही खबरें भेजी जाने लगी। अब ई-मेल, लैपटाप, इण्टरनेट, डाटाकार्ड और मोबाइल ने सूचनाओं को बिजली की जैसी गति दे दी है। पहले हम डेस्क पर अक्षर गिन कर समाचारों पर शीर्षक लगाते थे। टेलीप्रिण्टर के समाचारों का सम्पादन तो बड़ी टेढ़ी खीर होती थी, क्योंकि उस समय भारी शोर मचाने वाली मशीनें होती थीं। वी०एफ०टी० लाइनों की डिस्टर्वेंस के कारण सामग्री समाचार के रूप में नहीं बल्कि बराखड़ी जैसी और अक्सर ओवरलैप्ड निकलती थी। आज कम्प्यूटर में हर साइज का अक्षर उपलब्ध है।
पत्रकारिता की पहचान लेखनी और प्रिंटिंग प्रेस से होती थी
कभी पत्रकारिता की पहचान लेखनी और कागज से होती थी, लेकिन अब वे दोनों ही गायब हो गये हैं। उत्तराखण्ड में कभी देहरादून से केवल दो लोकल दैनिक अखबार निकलते थे। उनमें से एक में मैं भी काम करता था तो मेरे रिश्तेदार पूछते थे कि मैं आजीविका के लिये और क्या काम करता हूं ? उन्हें यकीन नहीं होता था कि अखबार में भी वेतन मिलता होगा। जब प्रेस कन्फ्रेन्स होती थी तो मैं सबसे कम उम्र का पत्रकार होता था। शायद 19-20 साल का। उस समय साप्ताहिक अखबार ही ज्यादा होते थे इसलिये प्रेस कान्फ्रेंसों में परिपूर्णानन्द पैन्यूली, वाइ०डब्ल्यू० दत्ता , राधाकृष्ण कुकरेती, एस०एम० सिंह, आचार्य गोपेश्वर कोठियाल, सोमवारी लाल उनियाल, सी.एम. लखेड़ा, जगमोहन सेठी और एस०पी० सभरवाल जैसे वरिष्ठ पत्रकार शामिल होते थे। उस समय के ज्यादातर सम्पादक खुद रिपोर्टिंग कर खुद ही अपने छापेखाने में उसे कम्पोज करते थे और ट्रेडल मशीन पर छाप कर तथा अखबार फोल्ड करने के बाद टिकट लगा कर डाकखाने से ग्राहकों को भेज देते थे। अस्सी के दशक में मैं भी उसी दौर से गुजरा।
बदलाव का चश्मदीद ही नहीं, बल्कि उसका एक हिस्सा भी रहा
उत्तराखण्ड में आफसेट मशीनों का अगामन होने के साथ ही मेरठ से अमर उजाला और दैनिक जागरण आ गये। उŸाराखण्ड में अच्छी रीडरशिप के साथ विज्ञापन की सम्भावनाओं को देख कर फिर ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ और ‘राष्ट्रीय सहारा’ जैसे हिन्दी के बड़े पत्र ही नहीं बल्कि ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’, ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ और ‘पायनियर’ जैसे विख्यात अंग्रेजी पत्र भी यहां आ धमके। उनके बाद ‘ट्रिब्यून’ के कुछ पन्ने देहरादून के लिये छपने लगे। देहरादून के बाद बड़े अखबार हल्द्वानी से भी छपने लगे जबकि कभी कुमाऊं से एकमात्र दैनिक अखबार “अमर उजाला ” ही छपता था और बरेली से वहां दैनिक अखबार आते थे। मैं केवल इन लगभग चार दशकों में हुये परिवर्तन का उल्लेख इसलिये कर रहा था, क्योंकि मैं उस बदलाव का चश्मदीद ही नहीं, बल्कि उसका एक हिस्सा भी रहा हूं। इन कुछ ही दशकों में केवल पत्रकारिता में काम आने वाली टेक्नोलॉजी ही नहीं बदली, मूल्य भी बदल गये और पत्रकारिता के उद्देश्य ही बदल गये।
अब पत्रकारिता बाजारू भी हो गयी
पत्रकारिता न केवल बाजारवाद के शिकंजे में आ गयी बल्कि काफी हद तक बाजारू भी हो गयी है। आप कितने प्रतिभावान पत्रकार हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि आप से मीडिया संस्थान को कितनी आय होती है और आप व्यवसायी मालिकों के कितने काम के हैं, वह ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। आप अपने तथा मालिकों के लिये कितना कमा कर देते हैं या फिर कितनी लाइजनिंग कर सकते हैं, यही सफलता की कुंजी बन गयी है। देहरादून जैसे शहरों में पत्रकार अब विज्ञापन ऐजेण्ट की भूमिका निभाने के लिये मजबूर होने लगे हैं। यही नहीं ‘पेड न्यूज’ ने तो पत्रकारिता जैसे पवित्र व्यवसाय को बीच चौराहे पर नंगा कर दिया है। सम्प्रदायवाद, जातिवाद, भाषावाद और क्षेत्रवाद जैसी संकीर्णताए° पत्रकारिता के साथ ‘गैंग रेप’ कर रही हैं। दूसरों के भाण्डे फोड़ने वालों के अपने भाण्डे साबुत नहीं रह गये। ऊपर से तुर्रा यह कि हम दिन को रात कहें तो सबको मानना ही पड़ेगा। पहले हमारा लिखा हुआ एक पैराग्राफ का समाचार ही खलबली मचा देता था जबकि आज हम कई कालम के लेख और समाचार लिख डालते हैं फिर भी वे बेअसर ही रहते हैं। मैंने लगभग सभी राष्ट्रीय हिन्दी दैनिकों के सम्पादकीय पृष्ठों के लिये अग्रलेख लिखे। अंग्रेजी में भी थोड़ा बहुत लिखा मगर अब उन लेखों से भी किसी के कानों में जूं नहीं रेंगती।
अख़बारों से पुस्तकों तक का सफर
पिछले 45 सालों में पत्रकारिता में बहुत बदलाव आ गये हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि जब मसूरी से ‘द हिल्स’ और बाद में नैनीताल से ‘समय विनोद’ और अल्मोड़ा से ‘अल्मोड़ा अखबार’ निकले होंगे तो उसके बाद से लेकर आज तक कितना बदलाव आ चुका होगा। पत्रकारिता के इतिहास के उन्हीं स्वर्णिम पन्नों को आज की पीढ़ी के सम्मुख रखने के उद्देश्य से मैंने यह पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक के माध्यम से मैं पत्रकारिता की मण्डी को यह याद दिलाने का प्रयास कर रहा हूं कि कभी ऐसे भी पत्रकार हुये जिन्होंने देश और समाज के लिये न केवल अपनी भरी जवानी बल्कि सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। मैं अब तक 7 पुस्तकें लिख चुका हूं लेकिन पत्रकारिता पर केवल तीन पुस्तकें ही लिखी हैं। पहली पुस्तक हार्क संस्था के महेन्द्र सिंह कुंवर की प्रेरणा से लिखी थी जो उन्होंने ही छपवाई। दूसरी पुस्तक विन्सर पब्लिशिंग कम्पनी ने तथा तथा तीसरी पुस्तक राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत सरकार ने छापी है। मैंने विनसर प्रकाशन की हिंदी और “अंग्रेजी की ईयर बुक ” का संपादन भी किया। इन प्रकाशनों को युवाओं ने पसंद भी किया और अपना भविष्य भी बनाया। मेरे लिखे हुए शब्दों और सम्पादित तत्थ्यों से समाज और युवाओं को जो लाभ पहुंचा होगा वह मेरी अर्जित संपत्ति है। शायद उनकी दुआएं मेरे बच्चों पर लगीं।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
उत्तराखण्ड।
मोबाइल-9412324999
jaysinghrawat@gmail.com