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सपना दिखाया था स्मार्ट का, लेकिन शहर वही ठहरा पुराना अपना

 

-दिनेश शास्त्री

वर्ष 2017 में देहरादून को स्मार्ट बनाने का एक बड़ा सपना दिखाया गया था। सपना था बेहतर यातायात प्रबंधन, ई गवर्नेंस, अर्थव्यवस्था को बढ़ाना, जीवन को सुरक्षित गुणवत्ता युक्त बनाना आदि आदि। लोग भी प्रफुल्लित थे कि चलो अच्छे दिन आयेंगे लेकिन आज जो तमाशा सामने है, वह निराशा के गहरे कुंए में धकेल रहा है। जबकि इस बहाने करोड़ों रुपए अब तक ठिकाने लग चुके हैं। केंद्र और राज्य सरकार की पचास पचास फीसद की भागीदारी वाली इस परियोजना में पैसा कहां खर्च हो रहा है, यह शोध का विषय है।

 

 

शहर की कुछेक दीवारें रंग रोगन अथवा भित्ति चित्रों से सजा कर बाहर से आने वाले लोगों को बेशक लुभाने का उपक्रम दिखाती हों, लेकिन यहां के नागरिकों का जीवन पहले से ज्यादा कठिन हुआ है, इस बात को वे अधिकारी भी मानेंगे, जो इस परियोजना के क्रियान्वयन से जुड़े हैं। यह हाल तब है जबकि आधा शहर भी इस परियोजना के दायरे में नहीं लाया गया है। दून पुस्तकालय के अलावा कोई और उपलब्धि अगर आपको दिख जाए तो हमें भी जरूर बताएं।


देहरादून को स्मार्ट सिटी बनाने के नाम पर स्मार्ट शौचालय, मल्टी यूटिलिटी डक्ट, जल आपूर्ति में सुधार, सीवेज लाइन का सुधार और विस्तार, स्मार्ट स्कूल, स्मार्ट वाटर सप्लाई सिस्टम, सरकारी भवनों में अनिवार्य सौर ऊर्जा समाधान और वर्षा जल संचयन, वृक्षारोपण और क्रेच बिल्डिंग जैसे कार्यक्रम घोषित किए गए थे लेकिन मिला क्या? यह बात किसी भी नागरिक से दिल पर हाथ रख कर पूछी जा सकती है। अगर परेड ग्राउंड में आपको कुछ दिखता है तो वह सिर्फ रूटीन ही है। कई बार इस मैदान में मंच बनते बिगड़ते देखे गए हैं। अलबत्ता दो शौचालय जरूर आपका स्वागत करते दिख जायेंगे। इस बीच पलटन बाजार का भगवाकरण हुआ है, इसे दूसरी उपलब्धि आप गिन सकते हैं लेकिन अगर स्मार्ट सिटी के यही दो पैमाने हैं तो नियंताओं के कर्म कौशल की दाद तो देनी ही पड़ेगी।

एक बड़ा सवाल यह है कि सीमेंट कंक्रीट के बढ़ते जंगल ने यहां की हरियाली को लील लिया। स्मार्ट सिटी के एजेंडे में वृक्षारोपण भी एक बिंदु है लेकिन कितनी हरियाली दून में लौटी, इस सवाल का जवाब आपको मिल जाए तो साझा जरूर करें। सच तो यह है कि देहरादून शहर के पहले राजधानी और अब स्मार्ट बनने की कीमत अगर किसी ने चुकाई है तो वह सिर्फ और सिर्फ यहां की हरियाली है। आधुनिक शहरी जीवन की कड़वी सच्चाई बढ़ते शहर और पर्यावरण के बीच संतुलन न बिठा पाना इस शहर की नियति बन गयी है। भौगोलिक और पर्यावरणीय बदलाव ने इसे और तीव्र कर दिया है। निसंदेह बढ़ते शहरीकरण की बलि शहर के भीतर और आसपास की हरियाली ही चढ़ती आ रही है।

अस्थाई राजधानी में बीते कुछ सालों में हजारों पेड़ काटे जा चुके हैं और जो बचे हैं उन्हें स्मार्ट होता शहर लील लेगा, इसमें संदेह की गुंजाइश कम ही है।

इस तथ्य से कौन इनकार कर सकता है कि कार्यदाई संस्थाओं ने निर्माण के नाम पर सिर्फ नागरिकों की असुविधा में इजाफा ही किया है। आगे भी निर्माण की यही सुस्ती रही तो स्थानीय लोगों के लिए तकलीफें ही बढ़ेंगी।

इसमें दो राय नहीं कि देहरादून स्मार्ट सिटी परियोजना क्रियान्वयन की देरी का नमूना है। इसकी कीमत यहां के लोग चुका रहे हैं। जगह जगह सड़कें खोदी जा रही हैं और कोई काम नहीं हो रहा है, पूरे शहर में धूल और बजरी बिखरी है। इन दिनों बारिश ने और पोल खोल दी है। स्मार्ट सिटी की सड़कें सरकार को आईना दिखा रही हैं। इन सबके चलते कई इलाकों में ट्रैफिक जाम आम बात हो गई है। यह हाल तब है जबकि बहुत छोटा इलाका स्मार्ट सिटी के लिए लिया गया है।

एसडीसी फाउंडेशन के प्रमुख अनूप नौटियाल की इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि लोग एक ठोस बुनियादी ढांचा चाहते हैं, न कि आधे अधूरे उपाय, क्योंकि इस तरह के प्रयास सिर्फ अराजकता का सबब बनते हैं।

बेशक स्मार्ट सिटी के अधिकारी कुछ भी सफाई दें या बड़े बड़े दावे करें किंतु धरातल पर स्थिति बेहद निराशाजनक है। वर्ष 2017 से स्मार्ट सिटी का सपना साकार करने के लिए इसकी समयावधि बार बार बढ़ाई जाती रही है। डेढ़ हजार करोड़ रुपये से अधिक के बजट वाली परियोजना का दूसरा चरण अब 2024 तक बढ़ा दिया गया है।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और मीडिया पैनलिस्ट राजीव महर्षि स्मार्ट सिटी को महज एक झुनझुना मानते हैं। श्री महर्षि के अनुसार यदि बदहाल सड़कें, बारिश के पानी की निकासी का अभाव, सीवेज की अव्यवस्था और सपने के विपरीत की दशा का नाम स्मार्ट सिटी है तो जुमलेबाजी के लिए पुरस्कार दिया जाना चाहिए।

श्री महर्षि के मुताबिक सड़कों के गड्ढे जानलेवा स्थिति में हैं, इन दिनों जबकि बारिश में सब कुछ बह रहा है, तब नालियों का निर्माण हो रहा है। स्कूलों को स्मार्ट बनाने का वादा किया गया था लेकिन तस्वीर एकदम उलट है। एकाध स्कूल को सजा देने भर से शहर स्मार्ट नहीं हो जाता जबकि होना यह चाहिए था कि सबसे पहले शहर के तमाम सरकारी स्कूलों को इस कदर आदर्श बनाया जाना चाहिए था कि आम आदमी वहां अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए इच्छुक हो, लेकिन इस दिशा में सोचा ही नहीं गया। वे कहते हैं कि इस मद में उतना पैसा भी खर्च नहीं होता जितना दीवारों के रंग रोगन पर निरंतर किया जा रहा है।

सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध धाद संस्था के संस्थापक लोकेश नवानी के अनुसार शहर की प्राथमिकता कनेक्टिविटी होनी चाहिए। इसके लिए सस्ता, सुगम सार्वजनिक परिवहन तंत्र होना चाहिए। शहर के एक कोने से दूसरे कोने जाने के लिए आज दस बार सोचना पड़ता है। गिनती की ई बस से काम नहीं चल सकता। रेंगती बसों के भरोसे स्मार्ट नहीं बन सकते। इसके लिए बेहतर सड़क और बेहतर परिवहन व्यवस्था से ही शहर को स्मार्ट बनाया जा सकता है, अन्यथा यह जनता से वसूले गए धन की बर्बादी के अलावा कुछ नहीं है।

विडंबना यह है कि देहरादून शहर कभी व्यवस्थित रहा ही नहीं, यहां एक भी सड़क सीधी नहीं मिलेगी। अनियोजित शहरीकरण के चलते आज इस कदर स्थिति बदहाल हो गई है कि कुछ भी संवार पाना टेढ़ी खीर ही नहीं बल्कि पैसे की बर्बादी ही है।

निष्कर्ष यह कि देहरादून को स्मार्ट बनाने की कोशिश में कुछ लोग बेशक “स्मार्ट” हो गए हों, लेकिन आम लोगों के हिस्से में सिर्फ समस्याओं का पहाड़ ही आया है। सवाल अगले साल भी यही पूछा जायेगा जब स्मार्ट सिटी परियोजना के दूसरे चरण की समाप्ति होगी। अगर आपको इससे इतर कुछ नजर आता हो तो अपनी राय जरूर दें और साथ ही यह भी बताएं कि नीति नियंता आपके सपनों को कितना साकार कर पाए हैं?

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