छापाखानों से निकली पत्रकारिता सातवें आसमान से उतर कर अब जेबों में

Spread the love
  • अब जिसकी जेब में मोबाइल वह पत्रकार
  • बड़े-बड़े मीडिया संस्थान भी सोशियल मीडिया पर
  • पत्रकारिता में विश्वास का संकट
  • सत्य भी बिकाऊ हो गया
  • पत्रकारिता को प्रेस कहते हैं मगर प्रेस गायब है
  • छापेखाने से निकली पत्रकारिता कम्प्यूटर में घुस गयी

जयसिंह रावत

पहले समाचार या विचार अखबारों में पढ़े जाते थे, फिर समाचार आकाश से आकाशवाणी के रूप में लोगों के कानों तक पहुंचने लगे। बाद में टेलिविजन का जमाना आया तो लोग समाचारों और अपनी रुचि के विचारों को सुनने के साथ ही सजीव देखने भी लगे। इन इलैक्ट्रोनिक माध्यमों की बदौलत अशिक्षित लोग भी देश-दुनिया के हाल स्वयं जानने लगे। टेलिविजन का युग आने तक आप इन सभी माध्यमों से अपने घर या दफ्तर में बैठ कर दुनियां के समाचार जान लेते थे। लेकिन सूचना महाक्रांति के इस दौर में अब सारी दुनियां आपकी जेब में आ गयी है। आप कहीं भी हों, आपके जेब में पड़ा मोबाइल न केवल आपको अपने परिजनों और चाहने वालों से सम्पर्क बनाये रखता है, अपितु आपको दुनियां का पल-पल का हाल बता देता है।

अब जिसकी जेब में मोबाइल वह पत्रकार

सूचना प्रोद्यागिकी के इस युग में तो हर आदमी खबरची की भूमिका अदा करने लगा है। क्योंकि आप अपने आसपास जो कुछ भी हो रहा है, उसे सोशल मीडिया के जरिये वायरल कर दुनियां के किसी भी कोने में उस घटनाक्रम का आखोंदेखा हाल पहुंचा रहे हैं। अखबारों और टेलिविजन चैनलों से भी आगे पोर्टल निकलने लगे हैं। पत्रकारिता एक विशिष्ट विधा है। उस विधा में पारंगत लोग ही इस क्षेत्र में आगे बढ़ते हैं। लेकिन जब हर आदमी जेब में रखे मोबाइल की बदौलत सिटिजन जर्नलिस्ट हो जाये तो उस अनाड़ी पत्रकारिता की अविश्वसनीयता की कल्पना की जा सकती है। एक पत्रकार पत्रकारिता के नियमों से बंधा होता है। वह व्यवसायिक नैतिकता से भी बंधा होता है क्योंकि उसका काम समाज को सूचित कर जागरूक करना होता है। लेकिन एक अनाड़ी नागरिक पत्रकार से नियमों और पत्रकारिता की नैतिकता के पालन की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इसलिये सोशियल मीडिया में कुछ भी प्रसारित हो रहा है। राजनीतिक दल भी अफवाहों का पूरा लाभ उठा रहे हैं। अगर किसी राजनीतिक दल के नेता द्वारा बलात्कार किया जाता है तो उसका समर्थक सिटिजन जर्नलिस्ट उस बलात्कार को परोपकार की तरह पेश करता है। इस जेबी पत्रकारिता से भले ही जेब गरम हो जाय मगर समाज का नुकसान ही होगा।

बड़ेबड़े मीडिया संस्थान भी सोशियल मीडिया पर

इसीलिये बड़े-बड़े प्रतिष्ठनों ने भी सोशियल मीडिया की राह पकड़ ली है। समय का चक्र घूमता रहता है। यही प्रकृति का नियम है। लेकिन वह चक्र इतनी तेजी से घूमेगा, इसकी कल्पना शायद प्रख्यात भविष्यवक्ता नास्त्रेदमस ने भी नहीं की होगी। ऐसी स्थिति में मीडिया के भावी स्वरूप की भविष्यवाणी करना बेहद कठिन है। अगर इतनी ही तेजी से समय का चक्र घूमता रहा तो हो सकता है कि पढ़ा जाने वाला छपा हुआ अखबार भी टेलीग्राम की तरह कहीं इतिहास न बन जाय। वैसे भी अखबार कागज के साथ ही ई पेपर के रूप में कम्प्यूटर, लैपटाप या मोबाइल फोन पर आ गये हैं।

पत्रकारिता में विश्वास का संकट

यह भी जरूरी नहीं कि भविष्य के पुस्तकालयों का स्वरूप ई-लाइब्रेरी या डिजिटल लाइब्रेरी जैसा ही हो। सूचना प्रोद्योगिकी के इस उन्नत दौर में दुनियां एक वैश्विक गांव बन गयी है और आप दुनियां के किसी भी कोने का अखबार जब चाहे और जहां चाहे पढ़ सकते हैं, बशर्ते कि आप उस अखबार की भाषा जानते हों। अब तो इलैक्ट्रानिक मीडिया का स्वरूप भी बदल रहा है। बिना टीवी (टेलिविजन) के भी हम कोई टीवी चैनल कम्प्यूटर, लैपटाप या मोबाइल पर देख रहेे हैं। विश्वसनीयता को पत्रकारिता का प्राण माना जाता है और इसी विश्वास पर लोग अखबारों में छपी बातों को सत्य मान लेते हैं लेकिन आज की आधुनिक पत्रकारिता व्यावसायिक हो गयी है और उस व्यावसायिकता ने उस सहज और स्वाभाविक ‘‘विश्वसनीयता’’ के ‘‘प्राण’ निकालकर अपनी सहूलियत की विश्वसनीयता को पैदा कर नये जमाने की आधुनिक पत्रकारिता के अन्दर जान के रूप में फूंक दिया है। ऐसा नहीं कि पहले अखबारों को जीवित रखने के लिये सत्ता या संसाधनों पर काबिज लोगों के संरक्षण की जरूरत नहीं होती थी। लेकिन तब संरक्षणदाताओं की नीयत इतनी खराब नहीं होती थी और वे स्वयं अपनी या अपने वर्ग की आलोचना को सहन करने सहनशक्ति रखते थे। उनको लोकलाज का डर होता था। लेकिन आज स्थिति भिन्न है।

सत्य भी बिकाऊ हो गया

आज हमारा अखबार या हमारा मीडिया होने का मतलब ‘‘सच’’ भी हमारा ही होता है। जो हम बोलेंगे, जो हम लिखेंगे और जो हम दिखायेंगे वही नैसर्गिक है, क्योंकि हमने भारी भरकम रकम लगा कर ‘‘सच’’ उगलने वाली मशीन का स्वामित्व खरीदा हुआ है। इसका एक उदाहरण टेलिविजन पर चिल्लाने वाला व्यक्ति अर्णव गोस्वामी भी है। इस तरह के कथित पत्रकार सच कम और जहर ज्यादा उगल रहे हैं। बड़ों की देखा देखी कर हर कोई छुटभय्या भी ‘‘सत्य’’ पर मालिकाना हक जता कर उसे चौराहे पर बेच रहा है। सरकारों को भी ‘‘सत्य’’ के ये थोक और फुटकर विक्रेता रास आ रहे हैं और इन विक्रताओं की औकात के हिसाब से उनके बिकाऊ ‘‘सत्य’’ को खरीदा जा रहा है। ये तो रहा ‘‘सत्य’’ व्यवसाय पर निवेश करने वालों सत्य। मगर पत्रकारों में भी ‘‘सत्य’’ के लिये ‘‘असत्य’’ से लड़ने वालों की संख्या निरंतर गिरती जा रही है। कारण यह कि कांटों भरी राह पर खुद तो चल लो लेकिन अपने परिवार को उस राह पर झौंकना अक्लमंदी का काम नहीं रह गया है। आज पहले की तरह आज जुझारूपन और मुफलिसी मंे भी बुराई के खिलाफ लड़ाऊपन सम्मान की बात नहीं रह गयी है। चकाचौंध भरी जिन्दगी में समाज ने भ्रष्टाचार को न केवल मान्यता दे दी अपितु उसे सिर माथे पर बिठा दिया है। भ्रष्ट तरीके से अर्जित शानो शौकत को समाज ज्यादा महत्व दे रहा है। सत्य पर असत्य की जीत सुनिश्चित करने वालों का बोलबाला पत्रकारिता की मूल भावना के विपरीत होने के साथ ही एक सामाजिक अपराध ही है लेकिन आज ऐसे ही अवसरवादी और भ्रष्ट लोगों को सरकार और समाज से सम्मान और संरक्षण मिलता है। जिसका राज उसके पूत पत्रकारों को ही सफलतम् पत्रकार माना जा रहा है।

पत्रकारिता को प्रेस कहते हैं मगर प्रेस गायब है

सर्वविदित है कि आधुनिक पत्रकारिता का मूल अखबारी पत्रकारिता ही है और अखबारी पत्रकारिता को जन्म देने वाला कोई और नहीं बल्कि छापाखाना या प्रिंटिंग प्रेस ही है। यद्यपि आज पत्रकारिता छापेखानों से कहीं आगे साइवर स्पेस युग में चली गयी है और पुराने प्रिंटिंग प्रेस भी लगभग गायब ही हो गये हैं। फिर भी पत्रकारिता का प्रतीक अब भी ‘‘प्रेस’’ ही है। अखबार और प्रेस एक ही सिक्के के दो पहलू होते थे। कभी बिना प्रेस के अखबार छपने की कल्पना नहीं की जा सकती थी। एक जमाना मोनोटाइप कास्टिंग का भी था, जिसमें मोनो आपरेटर अपने कीबोर्ड की मदद से सारी स्क्रिप्ट का टंकण कर पेपर रील की पंचिंग करता था और फिर वह छेदी गयी रील मोनोकास्टिंग मशीन पर चढ़ाई जाती थी जिससे हूबहू टाइप की गयी सामग्री सीसे (लेड) के अक्षरों में ढल कर या कास्ट हो कर गैली में बाहर निकल जाती थी। यह व्यवस्था हैंड कम्पोजिंग से उन्नत थी जिससे कम्पोजिंग में काफी समय बचता था। इसमें हर बार नये अक्षरों के लिये पुराने सीसे के अक्षर गलाये जाते थे। लेकिन कम्पोजिंग के बाद की प्रकृया पुरानी ही होती थी। पहले हेडिंग फांट बहुत सीमित होते थे। हम लोग डेस्क पर अक्षण गिन कर शीर्षक बनाते थे।  आज कम्प्यूटर पर किसी भी आकार प्रकार का फांट उपलब्ध है। पुरानी ट्रेडल मशीनों का ‘दाब’ पांच सौ या छह सौ प्रति घंटा होता था और अब एक घंटे में लाखों प्रतियां छपकर फोल्ड भी हो जाती हैं। यही नहीं बंडलिंग भी मशीन ही करती है। छापेखानों से जिस तरह कम्पोजिटर, मशीनमैन और इंकमैन नाम के प्राणी गायब हो गये उसी तरह पेस्टर नाम का प्राणी भी इतिहास बन गया। गैली, फर्मा, स्टिक, लिड और कतीरा आदि सारे इतिहास के गर्त में जा चुके हैं।

छापेखाने से निकली पत्रकारिता कम्प्यूटर में घुस गयी

उस जमाने में अखबार निकालने से अधिक दुश्कर काम प्रेस लगाने का था। जब पहाड़ों में सड़कें न होने से मोटर वाहन नहीं चलते थे तो उस दौर में लोग कैसे छापेखानों की भारी भरकम लोहे की मशीनों को ढोकर अल्मोड़ा, पौड़ी और मसूरी ले गये होंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है। उस जमाने में प्रेस लगने पर शासन-प्रशासन के कान खड़े हो जाते थे। आशंका यह रहती थी कि कहीं कोई सरकार के खिलाफ बगावती साहित्य तो नहीं छाप रहा ? लेकिन उत्तराखण्ड में सबसे पहले छापाखाने लगाने और उन छापाखानों से अखबार निकालने वाले अंग्रेज ही थे। उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में उत्तराखण्ड के कुछ हिन्दी-अंग्रेजी के सम्पादकों और प्रकाशकों के नाम भी आज के बहुत ही कम पत्रकारांे ने सुने होंगे। पत्रकारिता के इतिहास पर मेरी पहली पुस्तक ‘विन्सर पब्लिशिंग कं0 द्वारा प्रकाशित की गयी। इसके पीछे प्रेरणा भाई कीर्ति नवानी की थी। नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया (एनबीटी) द्वारा प्रकाशित मेरी दूसरी पुस्तक ‘‘स्वाधीनता आन्दोलन में उत्तराखण्ड की पत्रकारिता’’ के दूसरे संस्करण में मैंने आर्चिबाल्ड इवांस, बॉडीकॉट और लिड्डेल जैसे उन ऐतिहासिक सम्पादकों द्वारा अपने हाथ से लिखे गये दस्तावेज खोज कर प्रस्तुत किये हैं। पुस्तक देशभर के बुक स्टॉलों पर उपलब्ध है।

 

जयसिंह रावत

ई-11, फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर

डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।

मोबाइल-9412324999

jaysinghrawat@gmail.com

 

3 thoughts on “छापाखानों से निकली पत्रकारिता सातवें आसमान से उतर कर अब जेबों में

  • October 10, 2021 at 11:53 am
    Permalink

    इस इतिवृत्त में आपने समाचार जगत की बारीकियों के साथ-साथ वर्तमान समय की पत्रकारिता की विसंगतियों को बेबाकी से रेखांकित किया है। जमाना बहुत तेजी से बदल रहा है, जीवन के हर क्षेत्र में गति तीव्र होती जा रही है जो खतरे की निशानी है।
    जेबी पत्रकारिता इसके क्षरण का चरमबिंदु है क्योंकि इससे समाज में अराजकता व्याप्त हो गई है और अराजकता नाश का कारण बनती है।
    पोर्टल पर समसामयिक विषयों के अलावा कुछ अन्य विषयों पर भी सामग्री आये तो अच्छा है।
    धन्यवाद।

    Reply

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!