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उत्तराखण्ड में रहती है भारत की एक दुलभ आदिम जाति

Raji is one of the five tribes (Raji, Bhotia, Tharu, Jaunsari, and Buxa) of Uttrakhand state in India and it possesses the status of PVTGs (Primitive Vulnerable Tribal Groups) as declared by the government of India. The Raji tribe is one of the smallest tribes in India and is an educationally and economically backward tribe of the Central Himalayan region of Pithoragarh and Champawat districts in Uttarakhand.–JSR

 

-जयसिंह रावत

अंडमान निकोबार की बिलुप्ति की कगार पर बैठी आदिम जातियों की ही तरह राजी भी भारत की उन डेढ दर्जन आदिवासी जातियों में शामिल है जिनकी कुल जनसंख्या 1000 से कम होने के कारण उनका अस्तित्व ही संकट में माना जा रहा है। मानव विज्ञान सर्वेक्षण विभाग ने भी राजी को उत्तराखण्ड की प्राचीनतम् जाति मान लिया है। इनके अस्तित्व के संकट को देखते हुये उत्तराखण्ड सरकार ने इनके क्षेत्र में नसबंदी जैसे परिवार नियोजन के कार्यक्रम रोके हुये हैं। उत्तराखण्ड की “वन राजी” या “वन रौत“ अपने वनवासी जीवन, अपने शर्मीलेपन और विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान के कारण मुख्य धारा के लोगों और शोधार्थियों के लिये सदैव जिज्ञासा का विषय रहे हैं।

राजी जनजाति से जनसामान्य का परिचय 1823 में हुआ। राजि मूलतः आदिम आखेट आधारित जाति है जिसे ‘वन रावत‘ या ‘वन मानुष‘ के नाम से भी जाना जाता है। यह विशिष्ट जाति भारत के पिथौरागढ़ से लेकर दक्षिण नेपाल तक पाई जाती है। इन्हंे नेपाल में पुरबिया राजि कहते हैं। भारत में 427 जनजातियां निवास करती हैं जिनमें से 74 को आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त है। उन आदिम जातियों में से उत्तराखण्ड की राजि या वन रौत और बोक्सा जाति भी शामिल है। इन को 1967 में जनजाति का दर्जा दिया गया। सन् 1975 में भारत सरकार ने देश की 75 जनजातियों के साथ ही राजी और बोक्सा को आदिम जातियों में शामिल कर दिया। वन राजी उत्तराखण्ड के दो जिले पिथौरागढ़ और चम्पावत में अधिकता से पाये जाते हैं। इन दो जिलों में इनके 143 परिवार निवास करते हैं।

                    उत्तर प्रदेश की जनजातियों की सूचि में राजी को 12 वें  नंबर पर रखा गया है और कोष्ठक में  उन्हें वन मानुस लिखा गया है।  

जार्ज विलियम ट्रेल ने स्टेटिस्टिकल स्केच ऑफ कुमाऊं-1826 ( वाल्यूम-16 पृष्ठ-160) में इनके परिवारों की संख्या 20 के आसपास बतायी थी। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार उनकी आबादी 592 थी। बाद में मानव विज्ञान सर्वेक्षण विभाग द्वारा घर-घर जा कर किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार उनकी जनसंख्या 679 पायी गयी। इनमें से 556 पिथौरागढ़ और 123 चम्पावत जिलों में बताई गयी (2012 का सर्वे) लेकिन 2011 की जनगणना में राजियों की संख्या 812 बताई गयी।  आंकड़े बताते हैं कि इस आदिम जनजाति में मृत्युदर अधिक होने के कारण आज यह दुर्लभ मानव समुदाय विलुप्ति के कगार पर हैं। अनुमान के अनुसार इनके 70 प्रतिशत बच्चे आज भी पांच साल की उम्र पार नहीं कर पाते और जो बच जाते हैं वे कुपोषण, भूख, प्राकृतिक आपदा आदि से असमय काल के ग्रास बन जाते हैं। वनरावतों का निवास स्थान दुर्गम क्षेत्रों में होने के कारण वे अब भी पूर्णतया मुख्यधारा से कटे रहते हैं। इस कारण वे बिजली, पानी, सड़क, और स्वास्थ्य आदि मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहते हैं। वन राजियों में शिक्षा और जागरूकता का अभाव है।उत्तराखण्ड की राजी एकमात्र ऐसी जनजाति है, जिसमें मदिरा का प्रचलन नहीं रहा है। पूर्व में ये लोग कभी भी नशा नहीं करते थे लेकिन अब तथाकथित मुख्यधारा उनके लिये सम्पन्नता लाये या नहीं मगर नशे का रिवाज जरूर ला रही है।

राजी आदिम जाति के लोग हिन्दू तो हैं मगर पूर्व में उन्हें हिन्दुत्व का कोई ज्ञान नहीं था। अधिकांश जनजातियों की ही तरह वनवासी राजी प्रकृति पूजक हैं और देवताओं के रूप में वृक्ष और भूमि आदि की पूजा करते हैं। पूजा के दौरान बकरी आदि की पशु बलि प्रचलित हैं। जब कोई राजी बीमार हो जाता है तो देवताओं का दोष दूर करने के लिये बलि दी जाती है। वे अन्धविश्वासी और भूत-पिशाच से डरने वाले होते थे। उन्हें रामायण और महाभारत से भी कोई सरोकार या उनकी जानकारी नहीं थी। ये प्रकृति पूजक गणेनाथ, मणेनाथ और मल्लिकार्जुन की पूजा करते थे और कभी-कभी अपनी सुख शांति तथा कन्दमूल, फलों और अच्छे आखेट की उपलब्धता के लिये बकरियों और मुर्गियों की बलि चढ़ाते थे। किमखोला के गगन सिंह को उत्तराखण्ड विधानसभा  का  सदस्य बनने का दो बार  गौरव हासिल हुआ है जो कि एक ऐतिहासिक घटना है।

मुख्य धारा में जुड़ने के बाद आदिम जाति राजी के लोगों के रीति रिवाज भी बदलने लगे हैं। लेकिन अतीत के आइने में देखा जाय तो राजियों की विवाह परम्परा भी बेहद सरल और आडम्बर रहित थी। कन्दमूल और आखेट पर निर्भर रहने वाले इन लोगों के विवाह में जंगली कन्दमूल तरुड़ जिसे गढ़वाल में तैड़ू कहा जाता है, की मुख्य भूमिका होती थी। दशकों पहले अगर लड़का और लड़की एक दूसरे को पसन्द कर लेते थे तो उनके द्वारा अपने माता पिता के पास तरुड़ का कन्द खोद कर ले जाने का रिवाज था। वे उसे पका कर साथ में मिल कर खाते थे। इस प्रकार वे माता पिता से आज्ञा लेकर अपना अलग वैवाहिक जीवन शुरू करते थे। तरुड़ का इन लोगों के जीवन में बहुत महत्व होता था क्योंकि यह उनका मुख्य भोजन होता था।

दुनियां में ऐसी मिसाल शायद ही कोई और हो कि जब एक व्यापारी अपनी वस्तु को रात के अंधेरे में किसी खरीदार के दरवाजे पर चुपचाप छोड़ जाय तथा दूसरी रात उसी प्रकार चोरी छिपे आकर बिना खरीददार को बताये वहीं पर पड़ी अपने माल की कीमत उठा कर ले जाय। इसीलिए मानव विज्ञानी मजूमदार (1944ः142) ने राजियांे के कुमांउनियों के साथ व्यापार को अदृष्य व्यापार की संज्ञा दी है। यह व्यापार प्राचीन काल से चलता रहा। दरअसल यह व्यापार का वस्तु विनिमय ( Barter System) है। प्राचीन काल से लेकर हाल ही तक राजि लोग निकटवर्ती कुमांउनी गांवों के किसी घर के दरवाजे पर रात को चुपचाप अपना बिक्री का सामान छोड़ जाते थे तथा बदले में उन्हंे क्या चाहिए उसका संकेत भी सामान के साथ छोड़ जाते थे। फिर दूसरी रात उसी प्रकार बिना किसी को दिखाई दिए उस घर के दरवाजे पर उनके सामान के बदले उस घर वालों द्वारा रखी गई अन्न या फटे पुराने कपड़े आदि सामग्री को चुपचाप उठा कर ले जाते थे। यह अदृष्य व्यापार का कारण उनका अत्यधिक शर्मीला होना था। शर्मीलापन इसलिए कि वे सर्दियों से मुख्यधारा से कटे रहे तथा वनवासी बने रहे। वे गांव में भी अत्यधिक सावधानी से आते थे ताकि रात में भी दिखाई न दें।

( इस आलेख का यह  छोट सा  अंश जयसिंह रावत की पुस्तक ’’ बदलते दौर से गुजरती जनजातियां’’ नामक पुस्तक से साभार लिया गया है। बिना अनुमति इसका किसी भी प्रकार का उपयोग कापी राइट का उल्लंघन होगा जो कि कानूनन दंडनीय अपराध है।)

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