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बेजुबानों की आवाज, असहाय-उत्पीड़ितों की ढाल और अन्याय के खिलाफ तलवार थे अवधेश कौशल

-जयसिंह रावत
गरीबों के मसीहा, बेजुबानों की आवाज और समाज की विसंगतियों तथा अन्याय-शोषण और ज्यादतियों के खिलाफ निडर हो कर लड़ने वाले महान योद्धा अवधेश कौशल नहीं रहे। उन्होंने मंगलवार सुबह देहरादून के एक निजी अस्पताल में अंतिम संास ली। पद्मश्री अवधेश कौशल वो अजात शत्रु थे जिनको उनसे लड़ने में मजा आता था जिनसे सारा जमाना डरता था।वह मानवाधिकारों के बहुत बड़े पैराकार थे। देहरादून की ऐसी महान शख्शियत के न होने से हुये खालीपन को शायद ही कभी भरा जा सकेगा।

Avdhash Kaushal and author Jay Singh Rawat on the occasion of Rawat’s book release.

पांच पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकार बंगलों से बाहर निकाला

अवधेश कौशल का व्यक्तित्व और कृतित्व इतना विशाल था कि जिसका वर्णन चन्द पंक्तियों में नहीं किया जा सकता। फिर उनके व्यक्तित्व के सागर से चन्द बाल्टियां निकालने से पहले बता दूं कि अवधेश कौशल वही सख्श थे जिन्होंने उत्तराखण्ड के पांच पूर्व मुख्यमंत्रियों से सरकारी भवन खाली कराने के साथ उनसे वाहन, स्टाफ आदि सरकारी सुविधाएं भी छिंनवाई और अदालत से उन पूर्व मुख्यमंत्रियों से किराया, बिजली, पानी आदि की वसूली का आदेश भी कराया जो कि करोड़ों में बैठता है।

Avdhas Kaushal dedicating school van to Van Gujjar children who reside in Rajaj ji National Park .

कौशल के प्रयासों से बंधुवा मजदूरों को मुक्ति मिली

उत्तराखण्ड के जनजातीय क्षेत्रों की परम्परागत सामंती व्यवस्था में बंधुवा मजदूर पीढ़ी दर पीढ़ी अपने मालिकों के खेत खलिहानों में काम करते थे। इस व्यवस्था के खिलाफ सबसे पहले आवाज उठाने वाले अवधेश कौशल के साथ ही पत्रकार नीवन नौटियाल, भारत डोगरा तथा कुंवर प्रसून ही थे। आज अगर देश में बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम-1976 लागू है तो उसका श्रेय पद्मश्री अवधेश कौशल को ही जाता है। वर्ष 1972 में कई गांवों का भ्रमण करने के बाद जब अवधेश कौशल ने पाया कि बड़े पैमाने पर लोगों से बंधुआ मजदूरी कराई जा रही है तो वह इसके खिलाफ खड़े हुये। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मुलाकात कर बंधुआ मजदूरों का सर्वे करवाया। उस समय सरकारी आंकड़ों में ही 19 हजार बंधुआ मजदूर पाए गए थे। इसके बाद उन्होंने वर्ष 1974 बैच के अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के प्रशिक्षु अधिकारियों को बंधुआ मजदूरी प्रभावित गांवों का भ्रमण कराया। जब सरकार को स्थिति का पता चला तो वर्ष 1976 में बंधुआ मजदूरी उन्मूलन एक्ट लागू किया गया।

सरकार ने उन्हें आइएएस अफसरों को पढ़ाने भेजा

मुझे याद है जब अवधेश कौशल नेहरू युवा केन्द्र से सेवा निवृत हुये थे तो सरकारी नौकरी में रहते हुये भी सामाजिक कार्य करते रहने से उनकी छवि और अनुभव को देखते हुये भारत सरकार ने उन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवा एवं विदेश सेवा के अधिकारियों को प्रशिक्षित करने वाली देश की शीर्ष संस्था लाल बहादुर शास्त्री प्रशासनिक अकादमी मसूरी में असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्त किया था। मुझे याद है कि ज बवह सरकारी सेवा में भी तो मेरे जैसे पत्रकारों को समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, शोषण और अत्याचार के खिलाफ लिखने के लिये प्रेरित ही नहीं करते बल्कि सामग्री भी उपलब्ध कराते थे। उनके सहयोग से उत्तराखण्ड और खासकर देहरादून संबंधी कई मुद्दे राष्ट्रीय प्रेस में सुर्खियों में आ जाते थे। उन्होंने हमारे जैसे कई पत्रकारों की कलम को नुकीली बनाया, सहयोग दिया, हौला दिया और संरक्षण भी दिया।

Avdhash Kaushal along with Harish Rawat and ex-cabinet minister Kedar Singh Fonia released Jay Singh Rawat’s book on Uttarakhand’s Tribal diversity and rich heritage in Dehradun.

मसूरी की पहाड़ियों की नैसर्गिक शोभा लौटाई

मसूरी की पहाड़ियों को जब चूना पत्थर लॉबी ने छलनी कर दिया था। माइनिंग से मसूरी के नीचे के हरे-भरे पहाड़ सफेद हो चुके थे। तब ये वहीं अवधेश कौशल थे जो पहाडों की रानी को बचाने के लिये सुप्रीम कोर्ट गये और माइनिंग को पूरी तरह बंद कराकर ही दम लिया।

पूर्व प्रधान न्यायाधीश ने अपनी पुस्तक में सराहा

लाल बहादुर शास्त्री अकादमी से रिटायर होने के बाद उन्होंने रूरल लिटिगेशन एण्ड एण्टाइटिलमेंट केन्द्र (रुलक) की स्थापना कर वन गुजर जैसे समाज के उपेक्षित वर्ग को कानूनी सहायता देने की शुरुआत की। अवधेश कौशल के बारे में भारत के प्रधान न्यायाधीश रहे जस्टिस पी.एन. भगवती ने अपनी पुस्तक ‘‘माइ ट्रीस्ट विद जस्टिस‘‘ में पूरा एक अध्याय कौशल द्वारा स्थापित रूरल लिटिगेशन एण्ड एण्टाइटिलमेंट केन्द्र को दिया है। जिसमें जस्टिस भगवती ने लिखा है कि रुलक के प्रयासों, लॉबीइंग तथा पैरवी की बदौलत, बंधुआ श्रम प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 भारत में अस्तित्व में आया। जस्टिस भगवती ने यह भी लिखा है कि रुलक द्वारा दायर केस के कारण पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 अस्तित्व में आया। रुलक ने सरकार से बहुत पहले कानूनी साक्षरता कार्यक्रम शुरू किया था जिसे भारत में भी बाद में सोचा गया

सुप्रीम कोर्ट ने भी कौशल के योगदान को सराहा

अवधेश कौशल द्वारा मसूरी में चूना पत्थर खनन रोकने के लिये सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका पर फैसला देते हुये तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश न्यामूर्ति भगवती ने कहा था कि:-
‘‘हमें रूरल लिटिगेशन एण्ड एण्टाइटिलमेंट केन्द्र द्वारा उठाए गए कदमों की सराहना करनी चाहिए। …. वनों का संरक्षण और पारिस्थितिक संतुलन को अप्रभावित रखना एक ऐसा कार्य है जिसे न केवल सरकारों को बल्कि प्रत्येक नागरिक को भी करना चाहिए। यह एक सामाजिक दायित्व है और आइए हम प्रत्येक भारतीय नागरिक को याद दिलाएं कि संविधान के अनुच्छेद 51 ए (जी) में निहित यह उसका मौलिक कर्तव्य है।’’

जस्टिस भगवती रुलक और खास कर अवधेश कौशल के कार्यों से इतने प्रभावित थे कि बाद में वह कौशल के अभिन्न मित्र बन गये। जस्टिस भगवती को जूडिशियल एक्टिविज्म के पुरोधाओं में से एक माना जाता है जिन्होंने पोस्ट कार्ड पर सुप्रीम कोर्ट में जनहितकारी याचिका दायर करने की शुरुआत की थी।


एनजीओ वाले डरते हैं मगर कौशल भिड़ते थे

एनजीओ चलाना बहुत ही नाजुक मसला है। कोई भी एनजीओ की छाती पर चढ़ने को बेताब रहता है। साथ ही पर्यावरण की ही तरह पद्म जैसे पुरस्कारों के लिये एनजीओ एक आसान सीढ़ी मानी जाती है। इसलिये एनजीओ चलाने वाले सरकार और सत्ताधारियों से बुराई मोल लेने की सोच भी नहीं सकते। लेकिन अवधेश कौशल का एनजीओ सबसे कमाऊ और खर्चीला होते हुये भी सरकारों और सत्ताधारियों से डरने के बजाय उनसे लड़ता रहा। उन्होंने अधिकांश मुख्यमंत्रियों, मुख्य सचिवों और प्रमुख वन संरक्षकों से टकराव मोल लिये। वन गुजरों के कारण वन विभाग के लिये अवधेश कौशल आंख की किरकिरी बने रहे। गुज्जरों के हितों के लिये कौशल को जेल की हवा भी खानी पड़ी। उन्होंने वन गुजरों के हितों की लड़ाई लड़ने के साथ ही उन्हें वनों में ही साक्षर भी बनाया ताकि वे स्वयं अपनी लड़ाई लड़ सकें। बहुचर्चित जैनी सेक्स काण्ड में जब पीड़ित युवती सत्ताधारियों के दबाव में थी और उसे जान का तक खतरा था तो अवधेश कौशल उस पीड़िता के साथ भी अदालत में खड़े रहे। उन्होंने देहरादून के बहुचर्चित रणवीर मुठभेड़ काण्ड का पर्दाफाश कराने में भी पूरा सहयोग दिया। उसी का नतीजा है कि 3 जुलाई 2009 के बाद उत्तराखण्ड में पुलिस दुबारा कोई मुठभेड़ ही नहीं कर सकी। उस मुठभेड़ काण्ड के आरोपी पुलिसकर्मी अभी तक जेल में हैं। वह मानवाधिकारों के बहुत बड़े पैरोकार थे। उनकी संस्था ने शांति निकेतन के एफिलिएशन में मानवाधिकार पर डिप्लोमा पाठ्यक्रम भी शूरू किया जिसमें भारत के जानेमाने न्यायविद और मानवाधिकार कार्यकर्ता विजिटिंग फैकल्टी रहे।

पुरस्कारों के लिये जीहुजूरी कभी नहीं की

अपनी असाधारण सेवाओं के लिये उन्हें दर्जनभर से अधिक राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने कई पुरस्कारों से अलंकृत किया। उन्हें 1986 में पद्मश्री पुरस्कार मिला मगर उनके लिये पद्म पुरस्कारों की श्रृंखला कई अन्य की तरह आगे नहीं बढ़ सकी। क्योंकि वह सदैव धारा के विपरीत चले और सत्ता से भिड़ते रहे। जबकि पुरस्कारों के लिये कई एनजीओ संचालक सत्ताधारियों के आगे नतमस्तक रहते हैं। उन्हें दर्जनों प्रतीष्ठित राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय गैर सरकारी अवार्ड मिले। वर्ष 2003 में ’’द वीक’’ मैग्जीन ने उन्हें मैन ऑफ द इयर घोषित किया।
पदमश्री अवधेश कौशल को 2004 में महाराणा मेवाड़ फाउंडेशन द्वारा पन्ना धाई पुरस्कार, भारत के उपराष्ट्रपति द्वारा ग्रामीण उत्थान के लिए जीडी बिड़ला अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार, स्कोच पुरस्कार – ग्रासरूट मैन ऑफ द ईयर, 2005, भारत में सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए इमान इंडिया सम्मान पुरस्कार -2012, सिविल लिबर्टीज, 2014 के संरक्षण के लिए नानी ए पालखिवाला पुरस्कार, मानवता को उत्कृष्ट सेवा प्रदान करने के लिए सतपॉल मित्तल राष्ट्रीय पुरस्कार 2016 अलंकृत किया गया।

 

 

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