गढ़वाल राइफल्स का इष्टदेव है बद्रीनाथ, जिसकी छत्र छाया में दुश्मन के काल बनते हैं गढ़वाली
–जयसिंह रावत-
देश की सरहदों से लेकर सात समन्दर पार के युद्ध के मोर्चों पर अपनी बहादुरी का जलवा बिखेरने वाली थल सेना की एक बेहतरीन यूनिट ‘गढ़वाल राइफल्स’ का आराध्य देव बद्रीनाथ ही है और उसी की प्रेरणा से इस लड़ाकू रेजिमेंट के जांबाज ”बद्री विशाल की जय“ का रणघोष कर दुश्मन पर कयामत बन कर टूट पड़ते हैं। इस रेजिमेंट का अभिवादन वाक्य भी ‘‘जय बदरी विशाल’’ ही है। इस रेजिमेंट के सैनिकों के लिये सबसे बड़ी सौगंध भी बदरीनाथ के नाम पर ही होती है।

रेजिमेंट का ईष्ट देव बद्रीनाथ
विक्टोरिया क्रास से लेकर महावीर चक्र और कीर्ति चक्र जैसे बहादुरी के ढाइ हजार से भी अधिक वीरता पुरस्कार जीतने वाली गढ़वाल राइफल्स की मौजूदगी प्रायः बद्रीनाथ के कपाट खुलने और बन्द होने के समय रहती है। सालभर हिमाच्छादित चोटियों पर बैठे आइटीबीपी के जवानों के साथ ही गढ़वाल स्काउट के जवान अपने ऊपर बदरीनाथ की साया मानकर नीती-माणा दर्राे के साथ ही बाड़ाहोती पठार से चीनी घुसपैठ को रोकने के लिये चट्टान की तरह खड़े रहते हैं। बहादुरों की इस रेजिमेंट का ईष्ट देव बद्रीनाथ ही है और उसके जांबाज सैनिकों की मान्यता है कि जब तक बद्री विशाल की कृपा उनके ऊपर रहेगी तब तक दुश्मन के टैंक भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ेंगे और मौका आने पर उन्हें देश के लिये सर्वोच्च बलिदान देने की भी हिम्मत भी मिलेगी। अपने ऊपर बदरीनाथ की कृपा मानकर ही गढ़वाली सैनिकों ने देश की सरहदों और उससे बाहर बहुत दूर युद्ध के मोर्चों पर अपना लोहा मनवाया है।

अभिवादन भी बद्री विशाल और रणघोष भी बद्रीविशाल
गढ़वाल राइफल्स में सैनिक जब भर्ती होता है तो लगभग 9 माह की कठोर ट्रैनिंग पूरी करने पर पास आउट होते समय वह ’’बद्री विशाल’’ को साक्षी मान कर मातृ भूमि की रक्षा में अपना सर्वोच्च बलिदान तक देने की शपथ लेता है और शपथ ग्रहण के बाद सभी नव प्रशिक्षु “बद्री विशाल की जय” का उद्घोष करते हैं।रेजिमेंटल मार्चपास्ट के अंत में भी ‘‘बदरी विशाल लाल की जय’’ का उद्घोष होता है। इस रेजिमेंट का सैन्य अभिवादन भी ’’जय बदरी विशाल’’ ही है। इसी वाक्य का उच्चारण कर इस रेजिमेंट के जवान से लेकर कर्नल ऑफ द रेजिमेंट ( जो कि एक वरिष्ठ लेफ्टिनेंट जनरल होता है) तक के सैनिक एक दूसरे का अभिवादन करते हैं। सैन्य अधिकारी जब भारतीय सैन्य अकादमी या आफिसर्स ट्रैनिंग अकादमी में प्रशिक्षण के बाद गढ़वाल राइफल्स में कमीशन प्राप्त करते हैं तो रेजिमेंटल सेंटर लैंसडाउन पहुंचने पर अपनी यूनिट में जाने से पहले उन्हें बद्रीनाथ आर्शिवाद के लिये भेजा जाता है।

आयुद्धजीवियों को हिम्मत देता रहा बदरी विशाल
6 फरबरी 2012 को रेजिमेंट के लिये एक ऐतिहासिक दिन तब आया जब बदरीनाथ के रावल ने स्वयं लैंसडौन छावनी में जाकर रेजिमेंट के मंदिर में बदरीनाथ की आरती की। ‘‘बदरी विशाल लाल की जय’’ का उद्घोष रेंजिमेंटल सेंटर के उस युद्ध स्मारक पर शहीदों और बहादुरों के नामों के साथ लिखा हुआ है जो कि प्रथम विश्व युद्ध से लेकर अब तक युद्धों मंे बहादुरी और सर्वोच्च बलिदान के लिये बदरीनाथ की प्रेरणा का प्रमाण है। इसीलिये कहा जाता है कि बद्रीनाथ युगों -युगों से उत्तराखण्ड के आयुद्धजीवियों को हिम्मत और ताकत दोनों ही देता रहा है।

गढ़वाल के राजा को लोग बोलान्दा बदरी मानते थे
प्राचीन काल से ही मंदिरों के रखरखाव के लिये राजाओं द्वारा कुछ गांव मंदिरों को दिये जाते थे जिनसे वसूला गया लगान मंदिरों पर खर्च होता था। इसे गूंठ व्यवस्था कहा जाता था। 1804 से 1815 तक गढ़वाल पर गोरखा शासन में भी गोरखों ने यह व्यवस्था जारी रखी। कभी गढ़वाल के राजा को लोग बोलान्दा बदरी याने कि साक्षात बदरीनाथ मानते थे। आक्रमणकारी गोरखा सेना का कमाण्डर अमरसिंह थापा बहुत धार्मिक व्यक्ति था। गंगोत्री का प्राचीन मंदिर उसी ने बनवाया था। गढ़वाल नरेश प्राचीनकाल से ही बदरीनाथ मंदिर के मुखिया रहे हैं।

इसीलिये गढ़वालियों के लिये स्थापित ‘द गढ़वाल राइफल्स’ का ईस्टदेव भी बदरीनाथ को माना गया। प्रथम विश्व युद्ध में टिहरी गढ़वाल राज्य की सेना‘‘ सैपर्स एण्ड माइनर्स’’ के शेरसिंह, नत्थू सिंह, भगवान सिंह,और महेन्द्र सिंह आदि की बहादुरी से प्रभावित हो कर टिहरी गढ़वाल के महाराजा नरेन्द्र शाह को रेजिमेंट के मानद लेफ्टिनेंट कर्नल की उपाधि दी गयी। अंतिम महाराजा मानवेन्द्र शाह को भी यह मानद सैन्य रैंक मिला था। उन्होंने रेजिमेंटल सेंटर के पहले वाले मंदिर का शिलान्यास भी किया। ठाकुर युद्धवीर सिंह पंवार को राजपरिवार से संबंधित होने के नाते गढ़वाल रेजिमेंटल सेंटर का पहला भारतीय कमांडेंट बनाया गया था। गढ़वाल रियासत की सेना की ‘‘गढ़वाल सैपर एण्ड माइनर्स’’ का एक बड़ा हिस्सा भी गढ़वाल राइफल्स में शामिल किया गया था।

बद्री विशाल लाल की जय के रणघोष से टूट पड़ते हैं दुश्मन पर
एक वरिष्ठ पूर्व सैन्य अधिकारी के अनुसार युद्ध के समय जब हमले का हुक्म मिलता है तो परम्परागत “बद्री विशाल लाल की जय” का उद्घोष जवानों में अदम्य साहस भर देता है। इस रण उद्घोष से रणबांकुरों के रांेगटे खड़े हो जाते हैं। इसी उद्घोष के साथ प्रथम विश्व युद्ध में 24 नवम्बर 1914 को फ्रांस में फेस्टुवर्ड की लड़ाई में दरबान सिंह नेगी ने गोलियों की बौछार को झेलते हुये केवल रायफल की संगीन की नोक से दुश्मनों की लांशें बिछा दीं और मोर्चा जीत लिया था। उन्हें ब्रिटेन के सम्राट जॉर्ज पंचम ने स्वयं फ्रांस पहुंच कर विक्टोरिया क्रास पहनाया था। उसके एक साल बाद फिर गबर सिंह नेगी ने भी ‘‘बदरी विशाल के रणघोष के साथ वैसा ही जलवा दिखा कर दुनियां में बहादुरी की एक और मिसाल कायम कर दूसरा विक्टोरिया क्रास (मरणोपरांत) जीत लिया। इसी गढ़वाल राइफल्स का एक महावीर जसवंत सिंह रावत भी था जिसके शौर्य और बलिदान के किस्सों को अमर रखने के लिये अरुणाचल के नूरानांग मोर्चे पर ही जसवंत गढ़ नाम से स्मारक बनाया गया है जहां हर रोज उसका आसन उसे जीवित मान कर सजाया जाता है। जसंवत की बहादुरी के किस्से को लेकर 1964 में सुपर हिट हकीकत फिल्म बनी थी।

दुनियाँ में रहा जलवा : भारत का पहला विक्टोरिया क्रॉस विजेता
स्वतंत्रता से पहले गढ़वाल राइफल्स को 25 बैटल ऑनर (युद्ध सम्मान) और आजादी के बाद 5 बैटल ऑनर मिले हैं। आजादी से पहले इस रेजिमेंट के रणबांकुरों को 453 और आजादी के बाद 1228 वीरता पुरस्कार मिले हैं। इन में विक्टोरिया क्रास से लेकर परम वीर चक्र सेना में सबसे आगे रही है।

आजादी से पहले गढ़वाल राइफल्स को 3 विक्टोरिया क्रास, 17 डिस्टिंग्वस्ड सर्विस ऑडर, एक बार टु मिलिट्री क्रास, 38 आइओएम, 64 आडीएसएम, 24 मिलिट्री मेडल, एक बार टु मिलिट्री मेडल और 262 मेंशन इन डिस्पैच शामिल हैं। आजादी के बाद कश्मीर में कबाइलियों को खदेड़ने से लेकर कारगिल युद्ध और उसके बाद के शांतिकाल के अभियानों में गढ़वाल रायफल्स को एक अशोक चक्र, 8 परम विशिष्ट सेवा मेडल, 4 महावीर चक्र, एक युद्ध विशिष्ट सेवा मेडल, 15 कीर्ति चक्र,15 अति विशिष्ट सेवा मेडल, 52 वीर चक्र, 49 शौर्य चक्र, 4 उत्तम युद्ध सेवा मेडल, 13 युद्ध सेवा मेडल, 350 सेना मेडल, 35 विशिष्ट सेना मेडल एवं 107 मेंशन इन डिस्पैच मेडल आदि अनेक मेडल हासिल हुये हैं। इनके अलावा रेजिमेंट को 13 बार टु युद्ध सेवा मेडल, दो जीवन रक्षक पदक 30 बीएएसएल, 16 पीवीएसएम, 375 सीओसीसी इन सीसी, 220 जीओ एल इनसीसी अलंकरण प्राप्त हुये हैं।
सर्वोच्च बलिदान से कभी नहीं हिचके
1962 के चीन के युद्ध से लेकर कारगिल युद्ध तक में गढ़वाल राइफल्स के वीरों ने सबसे ज्यादा शहादतें दी हैं। प्रथम विश्व युद्ध में गढ़वाल के 721 और द्वितीय विश्वयुद्ध में 349 रणबाकुरे शहीद हुये । कारगिल युद्ध के कुल 526 शहीदों में से 75 उत्तराखण्ड के थे जिनमें से अधिकांश गढ़वाल राइफल्स के वीर सैनिक थे। पैदल सेना की कुछ इकाइयां रेजिमंेट और कुछ राइफल्स के रूप में वर्गीकृत होती है। राइफल्स वाली यूनिटें पूरी तरह एक कौम की हुआ करती थी जबकि रेजिमेंट मिली जुली कौमों की होती थीं। हालांकि अब बदलाव हो रहा है। राष्ट्रीय राइफल्स इसका एक उदाहरण है। राष्ट्रीय राइफल्स में भी गढ़वाल की 14वीं 38वीं और 48वीं बटालियनें हैं। इसीकी 22 रेगुलर और 6 अन्य युनिटें देश की सीमाओं की सुरक्षा की गारंटी बनी हुयी हैं। गढ़वाल राइफल्स के शौर्य और बलिदान को अलग से प्रदर्शित करने के लिये उनके कन्धों पर ब्रिटिश सम्राट की ओर से लाल रॉयल रस्सी अधिकृत की गयी थी जो कि आज भी चल रही है। रेजिमेंट के शिखर चिन्ह अशोक चक्र और उसके नीचे ताज है जो कि रेजिमेंट के गौरवमयी अतीत को दर्शाता है।




