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बागेश्वर उपचुनाव : कई लोगों के भाग्य का फैसला होगा शुक्रवार को


महिपाल गुसाईं
आठ सितम्बर 2023 का दिन उत्तराखंड के लिए कई मायनों में निर्णायक रूप से आ रहा है। इधर राज्य की धामी सरकार इन्वेस्टर समिट की तैयारियों में जी जान से जुटी है और उधर बागेश्वर के उपचुनाव का नतीजा आना है। निश्चित रूप से यह उपचुनाव कई दृष्टियों से बेहद महत्वपूर्ण हो चला है। यह महज एक विधायक का चयन नहीं बल्कि एक साथ कई लोगों की प्रतिष्ठा का चुनाव है। वैसे इस एक उपचुनाव के नतीजे से न तो सरकार की सेहत प्रभावित होगी न विपक्ष के हाथ कोई बटेर ही लग जायेगा लेकिन सत्ता पक्ष और विपक्ष के साथ मीडिया की प्रतिष्ठा की परीक्षा जरूर है।

उत्तराखंड का यह पहला उपचुनाव है जिसे सत्तारूढ़ दल और विपक्ष ने पूरी शिद्दत से लड़ा है। सत्तापक्ष की ओर से मुख्यमंत्री से लेकर तमाम मंत्री, विधायक, पार्टी संगठन ने अपनी पूरी ताकत चुनाव में झोंकी तो पहली बार कांग्रेस भी पूरी मजबूती से मैदान में डटी नजर आई। पहली बार कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी, प्रदेश अध्यक्ष करण महरा, नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य और उपनेता प्रतिपक्ष भुवन कापड़ी, पूर्व सीएम हरीश रावत, विधायक मनोज तिवारी, ममता राकेश, सुमित हृदयेश, मदन बिष्ट, समेत तमाम नेता पूरे चुनाव अभियान के दौरान मोर्चे पर डटे रहे। सत्तापक्ष की ओर से कैबिनेट मंत्री सौरभ बहुगुणा को कमान सौंपी गई थी। मुख्यमंत्री ही क्या प्रदेश भाजपा अध्यक्ष महेंद्र भट्ट से लेकर मंडल अध्यक्ष तक सभी जी जान से चुनाव अभियान में जुटे रहे। जाहिर है यह नाक का सवाल बन गया था।

अब देखना यह है कि किसकी नाक ऊंची रह पाती है। शुक्रवार दोपहर तक इसका खुलासा हो जायेगा। मीडिया ने भी इस उपचुनाव को लेकर बड़े बड़े दावे किए हैं, उसकी भी इस बार परीक्षा होनी है। सोशल मीडिया तो कई मौकों पर एकतरफा रिपोर्टिंग करता भी दिखा। एक मीडिया आउटलेट ने तो वार्डवार मतदान का रुझान तक बताया कि मंडलसेरा में किसको कितने वोट मिले।

पिछली विधान सभा के दौरान हमने दो उपचुनाव देखे थे। पहला थराली और दूसरा सल्ट का। दोनों बार मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस कहीं भी लड़ती नहीं दिखी थी। नतीजतन भाजपा को अपेक्षित सफलता मिल गई थी। इस पांचवीं विधानसभा का भी यह दूसरा उपचुनाव है। पहला उपचुनाव चंपावत का था जिसमें कांग्रेस ने एक तरह से सीएम धामी को वॉक ओवर दे दिया था। तब कांग्रेस की निर्मला गहतोड़ी चुनावी चक्रव्यूह में अकेली अभिमन्यु की तरह शहीद हो गई थी। औपचारिकता के तौर पर तब बेशक हरदा और महरा चुनाव प्रचार में दिखे जरूर थे लेकिन जो शिद्दत इस बार बागेश्वर में दिखी, वह एक पहली बार नजर आई। इसका एक कारण यह रहा कि कांग्रेस को पहली बार आर्थिक दृष्टि से ऐसा हैवीवेट प्रत्याशी मिला जो संसाधनों की दृष्टि से पार्टी पर बोझ नहीं बना।

जाहिर है कांग्रेस के लिए यह हींग लगे न फिटकरी की स्थिति रही है। वरना उपचुनाव में पार्टी बहुत ज्यादा गंभीर कभी नहीं दिखी। पहला उपचुनाव जो रामनगर से प्रथम निर्वाचित मुख्यमंत्री पण्डित एन. डी. तिवारी ने लड़ा था, वह एक अपवाद कहा जायेगा।

संसाधनों की दृष्टि से रामनगर के बाद बागेश्वर में ही कांग्रेस मुक्त हस्त से अभियान चलाती दिखी। इस तरह का थोड़ा सा परिदृश्य विजय बहुगुणा के उपचुनाव में देखने को मिला था।
बहरहाल यह उपचुनाव कई अर्थों में ऐतिहासिक है। इसमें भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री धामी की प्रतिष्ठा या चुनाव है तो साथ ही चुनाव प्रभारी सौरभ बहुगुणा की नाक का सवाल भी है तो प्रदेश भाजपा अध्यक्ष महेंद्र भट्ट और उनकी टीम का लिटमस टेस्ट भी है। भाजपा के लिए नाक का सवाल इसलिए भी है कि अगले साल लोकसभा चुनाव होने हैं और इस चुनाव से धामी सरकार के साथ महेंद्र भट्ट की परीक्षा भी होनी है।

दूसरी ओर कांग्रेस के लिए भी यह उपचुनाव जीवन मरण का सवाल है। इस चुनाव इस नतीजा अगर उसके पक्ष में रहा तो आगामी लोकसभा चुनाव में वह भाजपा को चुनौती देती दिख सकती है। उसके लिए विधायक संख्या उन्नीस से बीस हो जाना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना अगले चुनाव के लिए मजबूत होना है। इससे बढ़ कर यह उपचुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिष्ठा से भी जुड़ा है।

आखिर भाजपा ने उनके नाम पर ही तो वोट मांगे थे। एक स्थापित सत्य यह भी है कि कांग्रेस को जनता नहीं बल्कि उसके अपने ही हराते आए हैं। यह बात कई मौकों पर उजागर हुई है। बागेश्वर में ऐसा नहीं होगा, इसका खुलासा होने में कुछ ही घंटे शेष रह गए हैं। तब तक इंतजार करते हैं। शुक्रवार मध्याह्न तक इस लिहाज से सभी के भाग्य या फैसला हो जायेगा। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष।

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