चारधाम यात्रा शुरू: भारत की सांस्कृतिक एकता का अद्भुत संगम है उत्तराखण्ड
-जयसिंह रावत-
अक्षय तृतीया पर गंगोत्री और यमुनोत्री मंदिरों के कपाट ग्रीष्मकाल के लिये खुलने के साथ ही उत्तराखण्ड की विख्यात चारधाम यात्रा शुरू हो गयी है। भगवान शंकर के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक केदारनाथ के कपाट आगामी 6 मई को और भूबैकण्ठ के नाम से भी पुकारे जाने वाले बदरीनाथ के कपाट 8 मई को खुल रहे हैं। ग्रीष्म ऋतु के शुरू होते ही गत 6 महीनों से कई फुट मोटी वर्फ की चादर ओढ़ कर गहरी निद्रा में सोये मध्य हिमालय के विश्वविख्यात चार धामों के लिये सबेरा आ गया है। इसके साथ ही आसमान से आग बरसने के साथ ही तपती गरमी से परेशान देशवासियों को हिमालय का शीतल आकर्षण खींचने लगा है। इधर देवभूमि उत्तराखण्ड एक बार फिर देश विदेश के लाखों मेहमान श्रद्धालुओं के आतिथ्य में जुट गयी है। बदरी केदार के साथ ही केदार समूह के पंचकेदारों और बदरीनाथ समूह के पंच बदरी मंदिरों की रौनक भी लौटने लगी है। चार धामों की यात्रा शुरू होने के बाद अब पहली जून से विश्व के सर्वाधिक उंचाई वाले गुरुद्वारे हेमकुण्ड साहिब और लक्ष्मण मंदिर लोक पाल की यात्रा शुरू होनी है।
चारधाम यात्रा को सर्वाधिक पुण्यदायी मानते हैं सनातन धर्मावलम्बी
भारत के सभी तीर्थों में चार धाम की यात्रा को सर्वाधिक पुण्यदायी माना गया है। हिमालय के पवित्र क्षेत्र में स्थित गंगोत्री-यमुनोत्री और बदरीनाथ-केदारनाथ तीर्थों की यात्रा किये बिना देश के चार कोनों पर बने धामों की यात्रा पूरी नहीं मानी जाती है। इनमें यमुनोत्री पवित्र यमुना नदी का जन्मस्थल है। पुराणों में मां यमुना सूर्य पुत्री कही गयी हैं।सूर्य भगवान की छाया और संज्ञा नामक दो पत्नियों से यमुना, यम, शनिदेव तथा वैवस्वत मनु प्रकट हुए। इस प्रकार यमुना यमराज और शनिदेव की बहन हैं। भ्रातृ द्वितीया (भैयादूज) पर यमुना के दर्शन का विशेष माहात्म्य है। यमुना सर्व प्रथम जलरूप से कलिंद पर्वत पर आयीं इसलिए इनका एक नाम कालिंदी भी है। सप्तऋषि कुंड, सप्त सरोवर कलिंदी पर्वत के ऊपर ही है।
पाण्डवों ने सतोपन्थ ग्लेशियर से किया स्वर्गारोहण
आदि गुरू श्ंाकराचार्य हों या फिर उससे पहले पाण्डवों का प्रायश्चित और स्वार्गारोहण के लिये आगमन, नगाधिराज हिमालय की गोद में उत्तुंग तुंग श्रंृगों के बीच बसे उत्तराखण्ड के तीर्थ और इसकी दिव्य संरचना युगों -युगों से धर्मपरायण और आत्मिक शांति की खोज के लिये निकले मानवों को आकर्षित करते रहे हैं और यह सिलसिला अब भी जारी है। मान्यता है कि महाभारत युद्ध के बाद गोत्र हत्या के पाप से मुक्ति के लिये पाण्डव शिव की उपासना के लिये उत्तराखण्ड पहुंचे थे। केदारनाथ में नन्दी के रूप में आखिर उन्हें शिव के दर्शन हुये। आज भी वहां पाण्डवों द्वारा निर्मित पाषाण मंदिर मौजूद है। इसके बाद पाण्डव गंगा की मुख्य धारा अलकनन्दा के किनारे-किनारे होते हुये बद्रीनाथ की ओर से सतोपन्थ ग्लेशियर से स्वर्गारोहण कर गये। आठवीं सदी में जब आदि गुरू शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा के लिये देश के चार कोनों पर चार मठों की स्थापना की तो अन्तिम हिमालयी मठ, ज्योर्तिमठ की स्थापना और बद्रीनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करने के बाद वह केदारनाथ चले गये, जहां शंकर की उपासना के बाद उन्होंने मात्र 32 साल की उम्र में समाधि ले ली।
विश्व का सर्वाधिक ऊंचाई वाला गुरुद्वारा उत्तराखण्ड में
उत्तराखण्ड केवल हिन्दुओं का ही नहीं बल्कि सभी धर्मों का परमधाम है। सिखों की मान्यता है कि उनके 10वें गुरू गोविन्द सिंह जी ने अपने पूर्व जन्म में यहीं सप्तश्रृंगों से घिरी हेमकुण्ड झील के किनारे तपस्या की थी। विश्व में सर्वाधिक 4320मीटर की उंचाई पर स्थित गुरुद्वारा भी इसी झील के किनारे बना हुआ है। उत्तराखण्ड का भी यह सबसे ऊंचाई वाला तीर्थ है। प्राचीन मान्यता यह भी है कि रावण पुत्र मेघनाथ को जीतेने के लिये इसी झील के किनारे लक्ष्मण ने तपस्या की थी। यहां पर लक्ष्मण का प्राचीन मंदिर है जिसकी सदियों से पूजा हो रही है। वहां गुरुद्वारा तो अभी सत्तर के दशक में बना है।यही नहीं कुछ लोग बद्रनाथ को बोद्ध मंदिर भी मानते हैं। यहीं से निकटवर्ती दर्राें से होते हुये बौद्ध धर्म के प्रचारक तिब्बत तथा चीन गये थे। जैन धर्म के लोग भी बद्रीनाथ को अपना धर्मस्थल मानते हैं। इसलिये देखा जाय उत्तराखण्ड सभी धर्मों का परमधाम है जहां हर मजहब के मानने वालों को रुहानी शुकून मिलता है।
विभिन्न संस्कृतियों का अद्भुत मिलन स्थल है उत्तराखण्ड
उत्तराखण्ड के चार धाम देश विदेश की विभिन्न संस्कृतियों का अद्भुत धार्मिक मिलन स्थल हैं। ये उत्तर और दक्षिण भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक एकता के भी प्रतीक हैं। शंकराचार्य ने आठवीं सदी में हिमालय स्थित उत्तर की पीठ जोशीमठ की स्थापना के साथ ही उत्तर और दक्षिण को जोड़ने के उद्ेश्य से बद्रीनाथ की पूजा के लिये दक्षिण भारत के केरल प्रदेश के नम्बूदरी ब्राह्मण को
रावल बनाने की व्यवस्था भी कर दी। केदारनाथ भले ही उत्तराखण्ड में है मगर उसके लिंगायत रावल दक्षिण से ही आते हैं। उत्तराखण्ड के प्रवेश द्वार रुड़की के निकट पिरान कलियर स्थित बाबा अलाउद्दीन अली अहमद साबिर की दरगाह पर इस्लामिक महीने रवी-उल-अव्वल की तिथि 11, 12,13 और 14 को हर साल उर्स लगता है।
पतित पावनी गंगा जहां से शुरू होती है
यद्यपि ग्ंागा नदी का उद्गम गोमुख है और वह स्थान गंगोत्री से 18 कि.मी.आगे हैं, किंतु आगे की यात्रा बहुत कठिन होने पर भी आस्था की डोर यात्रियों को वहां खीच ले जाती है। यही धाम गंगा की दो प्रमुख शाखाओं में से एक भागीरथी का उद्गगम स्थल है, इसलिए इसे गंगोत्री धाम कहा गया है। माना जाता है कि राजा भगीरथ की तपस्या के पश्चात यहां गंगा का प्राकट्य हुआ। ज्यादातर पवित्र स्थल अलकनन्दा घाटी में ही हैं तथा गंगा नदी की बड़ी शाखा अलकनन्दा ही है इसलिय एक धारणा यह भी है कि भगीरथ ने बद्रीनाथ के निकट सतोपन्थ की ओर भगीरथ खर्क में तपस्या की थी। भगीरथ ने कपिल मुनि के श्राप से भस्म अपने पुरखों को तारने, मां गंगा के प्राकट्य के लिए कठोर तपस्या की थी। गंगोत्री मंदिर समुद्र स्तर से 3048 मीटर की ऊंचाई पर भागीरथी के दक्षिण तट पर है। भागीरथी यहां केवल 44 फुट चौड़ी हैं और लगभग तीन फुट गहरी है। गंगोत्री में सूर्यकुंड, विष्णु कुंड, ब्रह्मकंुड आदि तीर्थ हैं। यहीं विशाल भगीरथशिला है। इस शिला पर पिंडदान किया जाता है। शीतकाल में गंगोत्री की पूजा मुखवा में होती है।
आदि शंकराचार्य ने केदारनाथ में ही समाधि ली
बारह ज्योतिर्लिंगांे में से एक केदारनाथ नगाधिराज हिमालय की सुरम्य उपत्यका केदार में स्थित है।यहां सबसे पहले पांडवों ने मंदिर का निर्माण कराया। केदार क्षेत्र प्राचीन काल से ही मानव मात्र के लिए पावन और मोक्षदायक माना जाता रहा है। इसकी प्राचीनता और पौराणिक माहात्म्य का वर्णन स्कंद पुराण में है।शिव महापुराण की कोटिरुद्र संहिता में द्वादश ज्योतिर्लिंगों की कथा में उत्तराखंड हिमालय स्थित केदारनाथ को उनमें सर्वोपरि माना गया है। क्योंकि शिव का निवास ही हिमाच्छादित हिमालय है। समुद्रतल से 3,581 मीटर की उंचाई पर स्थित इस में प्राचीन शिवालय के साथ ही शंकराचार्य की समाधि भी है। केदारनाथ के लिये गौरीकुण्ड से लगभग 14 कि.मी.की पैदल यात्रा है।
भारत के चारधामों में से एक बदरी धाम
समुद्रतल से 3124 मीटर की उंचाई पर स्थित बदरीनाथ धाम को भारत के पवित्र चारधामों में सबसे प्राचीन माना जाता है। इसे भू-बैकुंठ भी कहा जाता है। पौराणिक कथा है कि हिमालय के गंधमार्दन पर्वत शिखर पर बद्री बेर के वन में महाविष्णु ने नर-नारायण के रूप में तपस्या की थी। बद्रिकाश्रम में इन्हीं नामों से दो पर्वत वर्तमान में भी अस्तित्व में हैं। इस धाम की यात्रा बैकुंठ प्राप्ति के लिए की जाती है। मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने बद्रीश की मूर्ति को एक कुंड से निकाल कर पुनर्स्थापित किया था। बद्रीनाथ के कपाट खुलने की तिथि टिहरी नरेश के नरेन्द्रनगर स्थित राजमहल में बसन्त पंचमी को निकाली जाती है तथा बन्द करने की तिथि विजयादशमी के दिन तय होती है। शीतकाल में भगवान विष्णु के सखा उद्धव पाण्डुकेश्वर और शंकराचार्य की गद्दी को जोशीमठ लाया जाता है।
उत्तराखण्ड में कण-कण में शंकर
उत्तराखण्ड के बारे में कहा जाता है कि जितने कंकर उतने शंकर। इसका अभिप्राय यह है कि यहां जितने पत्थर या कंकड़ मिलेंगे उतने ही शिवालय भी मिलेंगे। हालांकि यह शैव प्रदेश है मगर यहां विष्णु की भी उतनी ही उपासना होती है। उत्तराखण्ड में एक बद्रीनाथ नहीं बल्कि पांच बद्रीनाथ हैं। इन पंच बद्रियों में पाण्डुकेश्वर स्थित योगध्यान बद्री, जोशीमठ के निकट अनीमठ में वृद्ध बद्री, कर्णप्रयाग के निकट आदि बद्री तथा तपोवन स्थित भविष्य बद्री शामिल हैं जिनका अपना अलग-अलग महात्म्य है। इसी तरह केदारनाथ के अलावा भी 4 केदार हैं। इन पंच केदारों में केदारनाथ के अलावा तुंगनाथ, मदमहेश्वर, रुद्रनाथ और कल्पेश्वर शामिल हैं।
उत्तराखण्ड से यात्रा शुरू करती हैं पतित पावनियां
गंगा और यमुना इन पंच केदारों की धार्मिकता की अभिन्न अंग हैं। ये नदियां नहीं पतित पावनियां ह,ैं जो कि न केवल मानव जाति के पाप धोती हैं बल्कि इनके किनारे एक उत्कृष्ठ मानव सभ्यता का विकास हुआ है। करोड़ों हिन्दुओं की आस्था की प्रतीक गंगा की एक धारा भागीरथी गंगोत्री से दूसरी मंदाकिनी केदारनाथ से तथा तीसरी विष्णु गंगा या अलकनन्दा बद्रीनाथ से अपनी यात्रा शुरू करती हैं। यमुनोत्री से निकली यमुना भी अन्ततः प्रयागराज इलाहाबाद में गंगा से मिल जाती है। उत्तराखण्ड में गंगा की इन पवित्र जलधाराओं के संगम पर पंच प्रयाग हैं। जिनमें भागीरथी और अलकनन्दा के संगम पर देवप्रयाग, अलकनन्दा और मंदाकिनी के मिलनस्थल पर रुद्रप्रयाग, अलकनन्दा और पिण्डर के संगम पर कर्णप्रयाग, अलकनन्दा और नंदाकिनी के संगम पर नन्दप्रयाग तथा अलकनन्दा और धौलीगंगा के संगम पर विष्णुप्रयाग स्थित हैं। ये पांचों प्रयाग अपने आप में ही तीर्थस्थल हैं। देवप्रयाग में भगवान राम का प्राचीन मंदिर है। जम्मू के रघुनाथ मंदिर का निर्माण 1835 से लेकर 1860 के बीच महाराजा गुलाबसिंह और रणवीर सिंह ने किया था मगर देवप्रयाग के राम या रघुनाथ मंदिर का निर्माण हजारों साल पहले होना बताया जाता है।