हमारी भाग्यवादी सोच का परिणाम
-गोविंद प्रसाद बहुगुणा –
पंडित भीमसेन जोशी ब्रह्मानंद का एक भजन गाया करते थे जिसको
मैं भी अक्सर सुना करता हूं कि-
“श्री राम कहे समझाई , सुन लछमन प्यारे भाई। बनवास पिता ने दीन्हा I मैंने बचन शीश धर लीनाI संग जनक सुता सुखदाई सुन लछमन प्यारे भाई।
नही दोष कैकई माता ,ये लिखिया लेख बिधाता जी l मेरे मन में सोच कछु नाहीं। सुन लछमन प्यारे भाई।
सुख-दुख सब दैव अधीना ,नहीं दोष किसी को दीनाl
जग मूरख मन भरमाई सुन लछमन प्यारे भाई।l….”
सुख-दुःख के चिंतन पर हमारे देश का सारा धर्मिक साहित्य टिका हुआ है लेकिन विदेशी चिंतकों के विचार को भी पढ़ने का आनंद लेना चहिए I
जर्मन कवि और नाटककार गेटे ने सुख के विषय में अपने दोस्त को कहा कि – प्यारे दोस्त! अब
अपने दु:खों के गीत गाना बंद करो , ये दु:ख चील गिद्धों की तरह तुम्हे नोच -नोच कर खा जाएंगे । सारे विचार उजले और स्याह दोनों तरह के होते हैं दोस्त लेकिन जिंदा विचार एक अकेले सुनहरे रंग के जीवन वृक्ष का ही है जो जीवन की हरियाली में ही उगता है-
लेकिन शेक्सपियर महाशय का अंदाज़ हमेशा निराला होता था, जब वह कहते हैं कि हंसते हँसते जब तक चेहरे पर झुर्रियां न पड़ जाए वह खुशी भी क्या ख़ुशी हुई..
मै जब यह पढ़ रहा था तो मुझे अपने मित्र स्वनामधन्य लीलाधर जगूडी की एक बहुत पुरानी कविता की एक पंक्ति याद आ गई उनको कभी कब्ज की शिकायत रहती थी तो बोले यार-
” सुख कोई चीज नहीं अगर दो जून खाना मिल जाए और सुबह साफ पाखाना हो जाय ।”…GPB