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विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई पहाड़ की सांस्कृतिक विरासत

 

नावेतल्ली, रिखणीखाल से प्रभुपाल सिंह रावत

पहले कहा करते थे कि भारत कृषि प्रधान देश है क्योंकि उस समय पालतू पशुओं तथा मानव जाति का आपसी मेल मिलाप था।वे एक दूसरे के बिना अधूरे थे।लेकिन अब समय दिन प्रतिदिन बदलता जा रहा है।

पहले समय में अप्रैल (बैशाख) माह से रात में पशुओं को बाहर खुले खेतों में बाँधते थे जब तक कि बरसात शुरू न हो।रात में उनके साथ एक आदमी ग्वाला बतौर रहता था।रात में गर्मियों के समय में पहले ऑधी तूफान( औडल) काफी होते थे उस समय पशुओं को गौशाला में लाना होता था।गर्मियों के अन्त में उनके रहने के लिए गोठ बनाकर छप्पर ( फडिका) जो बांस,स्योलू,छैडी,मालू के पत्तों से बनाते हैं।बरसात शुरू होते ही जून के आखिर से खेतों में गोठ बनाकर रहते थे।भेड़ बकरियों के लिए गोठ के अन्दर जगह देते थे तथा गाय बैल बाहर ही अहाते में रहते थे।गोठ के तीनों तरफ सुरक्षा के लिए टान्टा भी लगाते हैं। काफी लोग संयुक्त गोठ बनाते थे तथा रात में भी पशुओं की रखवाली करते थे।हर सुबह गोठ को दूसरी जगह सरकाया जाता था सुबह चार पांच बजे उठकर छप्पर तथा पशुओं का कीला,ज्यूडा,घिसकाते हैं।जिसे भैस्वार कहते हैं।

गोठ में एक भोटिया कुत्ता भी होता है जो रात को जंगली जानवरों की आहट से चौंकना करता है।पशुओं के लिए रात के लिए परिवार की महिलाए बन्दोबस्त करती थी,बकरियों के लिए घास की जरूरत नहीं होती।सुबह पशुओं को जंगल में चरने के लिए खोल देते हैं।बकरियां अधिकतर कंटीली पत्तियों वाला घास खाती है जैसे मेलू,किनगोडा,हिसला आदि।यदि गोठ घर से दूर है तो गुठ्यला के लिए रात का खाना वहीं आता था,उस समय दारू आदि का प्रचलन नहीं था और तो और कोई नाम तक नहीं जानते थे।

ये प्रथा सदियों से चलती आ रही थी कि गोठ में रहने की।उस समय रोजगार नहीं था सबका ध्यान पशुधन,खेती पाती पर लगा था।अन्न भी खूब व कयी प्रकार का होता था।सिर्फ नमक,गुड़ खरीदते थे।बरसात में गोठ में ही मुन्गरी,मक्का भट्टी में पकाते थे।गोठ में आग की भट्टी बराबर जलती थी।वहीं पर चाय,तम्बाकू,आदि होता था।आग जलाने के लिए माचिस भी नहीं थी,अगेला से आग पैदा करते थे।तम्बाकू भी पतबेडा बनाकर पीते थे।रात के लिए कमाण्डर टार्च रखनी पडती थी।ताकि रात में जंगली जानकर दिखायी दे सकें।

पूरा परिवार पशुओं व खेती पाती,घास लकड़ी,पानी लाना,हल चलाना आदि पर व्यस्त रहते थे।खाने तथा आराम करने का समय नही लगता था।उस समय मनुष्य का ध्यान फालतू कार्य,बातों पर नहीं था।सब मेल मिलाप से रहते।गलत सोचने व गलत विचार मन में नहीं थे।गायों का दूध भी गोठ में ही निकालते,कुछ दूध गुठ्याला के लिए ही गोठ में रहने देते थे।गोठ में चारपाई,बिस्तर,कम्बल आदि होता था।दिन में उसे छप्पर के कनात पर बाँधते थे।ताकि बकरी,गाय न चबा सके।जो रात का गोबर होता था उसे सुब्ह बारीक छानकर खेत में फैलाते थे।बकरी का बुकर्याल काफी पैदावार बढाता है।सुबह हल लगाने के लिए बैलों को समय पर घास,पीन्डा देना पडता है।हल,नाडू,जू आदि तैयार रहता था।खाली समय में गोठ में ज्यूडा, म्वाला, डोर, तन्दयूडा आदि बनाते थे।

गोठ में आग जलाने के लिए लकड़ी,मुछेला रखते थे ताकि आग चौबीस घंटे रहे।आग जलाने से जंगली जानवर नजदीक नहीं आते।जितनी ज्यादा बकरी होगी,गोठ उतनी ज्यादा बड़ी होती थी।कभी कभी दो परिवार मिलकर गोठ करते थे।बारी बारी से खेत मैला करते थे।ये गोठ अक्टूबर के अंत तक रहती थी।उसके बाद गौशाला में रखते थे क्यों कि ठंड पडने लगती है।आग जलाने के लिए माचिस नही होती थी,अगेला कोरते थे।ये अगेला दो पत्थरों के घर्षण को कहते हैं।देर सबेर गोठ में रहने वाला अपने लिए पत्थर को आग में गर्म करके रोटी(ढुन्गला)बनाता था।

समय बदलता गया अब तो लोग गोठ के बारे में जानते भी नहीं है नयी पीढ़ी तो अनभिज्ञ है।उस समय न रोजगार,नन शिक्षा,न सड़क,न फोन,न नेटवर्किंग टावर,न बिजली, आदि कुछ नहीं था।अब वो दिन आज भी याद आते है कि वही अच्छे दिन थे।आज के मोदी जी के अच्छे दिन नहीं

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