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सदियों के अन्याय का प्रायश्चित ही होगा एक दलित का मुख्यमंत्री बनना

 

    –जयसिंह रावत

उत्तराखण्ड के प्रमुख राजनेता हरीश रावत द्वारा पंजाब में चरनजीत सिंह चन्नी की ताजपोशी के बाद उत्तराखण्ड में भी एक दलित नेता को शासन के शीर्ष में बिठाने की उनकी कामना से ठीक विधान सभा चुनाव से पहले इस हिमालयी राज्य में दलित राजनीति कुलबुलानी लगी ही थी कि यशपाल आर्य ने कांग्रेस में वापसी कर इस मुद्दे को और हवा दे दी। उत्तराखण्ड में लगभग 19 प्रतिशत जनसंख्या अनुसूचित जाति की है जो कि कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा का वोट बैंक रही है। अगर वास्तव में इस प्रदेश में एक दलित नेता को शासन के शीर्ष पर बिठाया जाता है तो इस समाज के प्रति युगों-युगों से हुये अन्याय का प्रायश्चित ही होगा। सदियों से इस समाज को न केवल अछूत माना गया अपितु उनके लोगों को आगे आने से बल पूर्वक रोका गया। उनके स्वाभिमान को रौंदा गया। इसलिये राजनीतिक सत्ता की प्राप्ति दलित स्वाभिमान का सवाल है। अगर प्रमुख राजनीतिक दल इस दिशा में आगे बढ़ते हैं तो तभी दलितोत्थान मामले में उनकी ईमान्दरी की परख हो सकती है।

नाराज गांधी जी ने गढ़वाल में सत्याग्रह पर रोक लगा दी थी

व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौरान सन् 1941 में महात्मा गांधी को समाचार पत्रों एवं कुछ समाजसेवियों के माध्यम से पता चला कि गढ़वाल में हरिजनों को दास के तौर पर रखा जाता है और सवर्णों द्वारा उनके विवाह समारोहों में दूल्हा एवं दुल्हन को डोला-पालकी में नहीं बैठने दिया जाता। गांधी जी को यह भी अवगत कराया गया कि अनुसूचित जाति की बारातों में डोला-पालकी का उपयोग होने पर बारात पर हमला किया जाता है और स्थानीय कांग्रेसी हरिजनोत्थान के नाम पर केवल दिखावा करते हैं। इतिहासकार डा0 योगेश धस्माना के अनुसार हरिजनों के उत्पीड़न से दुखी गांधी जी ने 23 फरबरी 1941 को गढ़वाल में व्यक्तिगत सत्याग्रह पर रोक लगा दी। सत्याग्रह पर रोक लगाते हुये गांधी जी ने कहा था कि, ‘‘जहां आज भी शिल्पकारों पर अत्याचार होते हैं वहां की जनता को सत्याग्रह करने का अधिकार नहीं है।” 26 जनवरी 1965 को कर्मभूमि में सांसद प्रतापसिंह नेगी के अनुसार गांधीजी ने कहा था कि ब्रिटिश गढ़वाल में व्यक्तिगत सत्याग्रह करने से पूर्व वहां डोला-पालकी अत्याचारों से शिल्पकारों को मुक्त कराना होगा। चाहे रामविलास पासवान हों या मायावती  दलित समाज के लोगों ने भी दलितों के नाम पर राजनीति की रोटियां खूब सेकीं हैं।

मार्च 1941 में हटाया गांधी जी ने गढ़वाल पर प्रतिबन्ध

गांधीजी के इस फैसले से गढ़वाल कांग्रेस कमेटी बहुत आहत एवं लज्जित अनुभव कर रही थी। इस सम्बन्ध में जहां तहां सम्म्ेालन होने लगे और हरिजनोत्थान पर खुली बहसें होनें लगीं। संयुक्त प्रान्त की कांग्रेस कमेटी द्वारा भी गढ़वाल में सवर्ण और शिल्पकारों के बीच सद्भाव कायम करने के उपाय करने के लिये ब्रिटिश गढ़वाल में प्रतिनिधि भेजा गया। इसके बाद सभी वर्गों की सर्वदलीय सभा लैंसडौंन में आयोजित की गयी जिसमें सद्भाव बनाये रखने तथा शिल्पकारों को डोला-पालकी के प्रयोग पर रोकटोक न करने के लिये जनजागरण का निर्णय लिया गया। कांग्रेस कमेटी द्वारा इस तरह के सेकड़ों शपथपत्र भरवाये गये। डा0 धस्माना के अनुसार 14 मई 1941 को लैंसडौंन में दूसरी सर्वदलीय सभा हरिजन सेवक संघ दिल्ली की अध्यक्ष श्रीमती नेहरू की अध्यक्षता में हुयी जिसमें शिल्पकारों के डोला पालकी के प्रयोग में सहयोग देने के साथ ही सवर्णों के खिलाफ अदालतों में चल रहे मुकदमें वापस लेने पर सहमति बनायी गयी। इसके बाद ब्रिटिश गढ़वाल में शिल्पकारों की डोला-पालकी वाली 30 बारातें शांतिपूर्ण ढंग से निकाली गयीं जिनमें 15 बारातें भक्तदर्शन, प्रतापसिंह नेगी, छवाणसिंह एवं रमेश चन्द्र बहुखण्डी आदि की सदस्यता वाली कांग्रेस कमेटी की स्थाई समिति के सहयोग से निकाली गयीं और 15 अन्य बारातें स्वयं शिल्पकारों ने बिना किसी सहायता के निकाली गयीं। इस सभा से पहले ही गांधी जी ने 12 मार्च 1941 को गढ़वाल में व्यक्तिगत सत्याग्रह पर लगी रोक हटा दी थी। इस तरह धीरे-धीरे सवर्ण समाज शिल्पकारों को शान से बारातें निकालने देने लगा।

कफल्टा में उत्तराखण्ड का भीषणतम् नर संहार

लेकिन आजादी के बाद केवल गढ़वाल ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में कभी शिल्पकारों के मंदिर प्रवेश पर तो कभी डोला-पालकी निकालने पर टोकाटोकी होती रही। आजादी के बाद उत्तराखण्ड के इतिहास में डोला-पालकी को लेकर सबसे दुर्भाग्यपूण और भयंकर घटना अल्मोड़ा जिले की सल्ट तहसील के कफल्टा मल्ला गांव में 9 मई 1980 को हुयी जिसमें 13 शिल्कार एवं 1 सवर्ण ब्राह्मण मारा गया और 7 लोग गंभीर घायल हुये। हालांकि यह मामला सवर्णों के गांव से शिल्पकारों की डोला-पालकी बारात के गुजरने का न हो कर मंदिर प्रांगण से शिल्पकारों की पालकी गुजरने और आतिशबाजी का था फिर भी यह सवर्ण-शिल्पकार संघर्ष और एक वर्ग के सम्मान को ठेस पहुंचाने का अवश्य था। सवर्ण पक्ष की ओर से अदालत में कहा गया कि कफल्टा मल्ला गांव में एक मंदिर है जिसे ग्रामीण बदरीनाथ का ही मंदिर मान कर पूजते हैं और उसके आंगन से जब किसी भी वर्ग की बारात गुजरती है तो दूल्हा या दुल्हन मंदिर पर आस्था के तौर पर पालकी या डोले से उतर कर मंदिर को नमन कर आगे निकलते हैं, जबकि बिरला गांव के हरक राम के बेटे की बारात ने परम्परा का पालन करने के बजाय वहां आतिशबाजी तक कर डाली जिस पर ग्रामीण महिलाओं ने ऐतराज किया तो झगड़ा हो गया। अदालत में दायर विवरण के अनुसार 9 मई की सांय जब बिरला गांव से शिल्पकारों की पालकी वाली बारात मंदिर प्रांगण से गुजरी तो दूल्हे के पालकी से न उतरने और बंदूकों से फायरिंग किये जाने पर वहां मौजूद 4 महिलाओं ने इस पर ऐतराज किया तो उनकी बारातियों से कहासुनी हो गयी। महिलाओं के साथ झगड़े की आवाज सुन कर असम रायफल्स का जवान  खिमानन्द जो कि छुट्टी पर आया हुआ था घटनास्थल पर पहुंचा और महिलाओं के पक्ष में झगड़़ने लगा। इस झगड़े में बात मारपीट तक आ गयी तो बारातियों में से किसी ने खिमानन्द को चाकुओं से घायल कर दिया जो उस समय बेहोश हो गया और कुछ दिन बाद उसकी मौत हो गयी। इस चाकूबाजी की खबर मिलते ही कफल्टा और आसपास के गावों के सवर्ण घटनास्थल पर पहुंचे और उन्होंने बारात पर हमला कर दिया। जान बचाने के लिये कुछ शिल्पकार बाराती जान बचाने के लिये नरीराम के घर में घुस गये। हमलावरों ने घर के दरवाजे बाहर से बंद कर घर पर आग लगा दी जिससे 6 लोग जिन्दा जल गये और 7 को वहीं आसपास के खेतों में लाठी-डण्डों, पत्थरों और धारदार हथियारों से मारा गया तथा 7 को गंभीर रूप से घायल किया गया।

दलितों को 17 साल बाद सुप्रीम कोर्ट से मिला न्याय

इस मामले में 32 लोगों पर मुकदमा चला जिनमें 4 तहिलाएं भी थीं। लेकिन जिला एवं सेशन जज अल्मोड़ा ने सबूतों के अभाव में संदेह का लाभ दे कर  15 अप्रैल 1981 को सभी को बरी कर दिया। इस विभत्स काण्ड में कानूनी लड़ाई भी बेहद रोचक रही। जिला अदालत से हार जाने पर राज्य सरकार इस मामले को इलाहाबाद हाइकोर्ट में ले गयी जिसकी सुनवाई जस्टिस बी.एन. काटजू और जस्टिस रामेश्वरसिंह की बेंच ने की। सुनवाई के बाद दोनों जजों ने 22 आरोपियों को तो दोषमुक्त कर दिया गया मगर जस्टिस रामेश्वर सिंह ने 6 आरोपियों को आजीवन करावास तथा 4 महिला आरोपियों को एक-एक माह की सजा और 100-100 रुपये अर्थदण्ड की सजा सुनाई। जबकि जस्टिस काटजू ने केवल जीतसिंह और किशन सिंह को 5-5 साल की सजा सुनाई और बाकी को बरी कर दिया। मत भिन्नता होने पर सीआरपीसी की धारा 392 के तहत मुख्यन्यायाधीश ने तीसरे जज वी.पी. माथुर को मामला सौंपा तो जस्टिस माथुर ने जस्टिस काटजू के फैसले को सही ठहराया और इस मामले में अंतिम फैसला 19 मई 1988 को आ गया। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार इस फैसले से सन्तुष्ट नहीं हुयी और उसने सुप्रीमकोर्ट में अपील दायर कर दी। सुप्रीमकोर्ट में यह मामला जस्टिस एम.के. मुखर्जी और जस्टिस बी.एन. कृपाल की बेंच में गया, जिसने 3 फरबरी 1997 को अपना फैसला दिया जिसमें हाइकोर्ट का फैसला उलट दिया और 6 आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुये बरी कर दिया जबकि 14 को भदंसं की धारा 147, 302/149, 436/149, 323/149 और 307/149 के तहत आजीवन कारावास की सजा सुना दी। चूंकि राज्य सरकार की अपील में हाइकोर्ट द्वारा दंडित 4 महिलाओं को शामिल नहीं किया गया था, इसलिये वे सजा से बच गयीं। इस मामले में कुल 32 आरोपी जिनमें से 4 की मौत ट्रायल के दौरान हो गयी थी और 4 महिलाओं के खिलाफ अपील नहीं थी। शेष 22 के बारे में ही सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुयी।

संशोधित एससी एसटी एक्ट भी कारगर नहीं

इस घटना के बाद 1989 में अनुसूचित जाति, जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम बना जो कि जम्मू कश्मीर को छोड़ कर शेष सारे देश में 30 जनवरी 1990से प्रभावी हुआ जिसमें आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज होते ही जांच से पहले ही गिरफ्तारी का प्राविधान था। इस कानून का दुरुपयोग होने पर सुप्रीमकोर्ट ने बिना जांच के किसी की गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी। लेकिन मोदी सरकार ने सुप्रीमकोर्ट के आदेश से बचने के लिये संसद से अनुसूचित जाति, जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम 1989 में संशोधन 6 अगस्त 2018 को लोकसभा और 9 अगस्त को राज्यसभा में पारित करा कर बिना जांच के ही गिरफ्तारी को बाध्यकारी बना दिया। लेकिन सरकार का यह कठोरतम् कानून भी अनुसूचित जातियों और जनजातियों पर अत्याचार रोक नहीं पा रहा है, जिसका ण्क उदाहरण टिहरी गढ़वाल के बसाण गांव में दलित युवक जितेन्द्र दास की निर्मम हत्या भी है। यह कानून दलितों को तो बचा नहीं पा रहा है लेकिन न्याय के नाम पर अन्याय को अवश्य जन्म दे रहा है। जितेन्द्र दास हत्या के मामले में ऐसे लोगों की गिरफ्तारी भी हुयी है जिनका दावा है कि वे उस दिन घटनास्थल पर नहीं बल्कि देहरादून में थे। लोग जब बेगुनाही के सबूत लेकर पुलिस के पास गये तो पुलिस ने कह दिया कि सबूत हमें नहीं बल्कि अदालत में देना। इससे पहले भाजपा के राज्यसभा सांसद रहे तरुण विजय और दलित नेता दौलत कुंवर पर देहरादून के जौनसार बावर में दलितों के मंदिर प्रवेश को लेकर जनलेवा हमला हो चुका है। देश के अन्य भागों की तरह उत्तराखण्ड में भी ऑनर किलिंग समाप्त नहीं हो सकी है।

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