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अतीत के झरोखे से ( भाग-1 ) सत्रहवीं शताब्दी तक उजड़ता-बसता रहा देहरादून

–अनन्त आकाश

संस्कृत भाषा में घाटी को द्रोणी या द्रोण कहा जाता है। यह उपत्यका उत्तर में हिमालय और दक्षिण में शिवालिक पर्वत श्रृखलाओं के बीच स्थित है। दून उपत्यका के पूर्व में गंगा और पश्चिम में यमुना बहती है। दून घाटी के साथ संपूर्ण उत्तराखंड क्षेत्र का पौराणिक काल से अपना महत्व रहा है। पौराणिक साहित्य केदारखण्ड में गढ़वाल क्षेत्र का व मानस खंड में कुमायूँ का वर्णन मिलता है। दक्ष प्रजापति, शिव-पार्वती, राम-लक्ष्मण-भरत व उनके पूर्वज भगीरथ के साथ पांडव- कौरव और उनके गुरू द्रोणाचार्य आदि-आदि पौराणिक काल की कथाओं, कहानियों का सम्बन्ध इस क्षेत्र से किसी न किसी रूप में हमें देखने को मिल जाता है। पौराणिक कथायें यहाँ की लोक संस्कृति में आज भी खूब रची-बसी हैं।

Astley hall of Dehradun, once upon a time. picture- social media

आज हम सभी इस बात से परिचित हैं कि आज से लगभग साठ पैंसठ मिलियन वर्ष पहले यूरेशियाई और इंडियन प्लेट की टकराहट के कारण हिमालय पर्वत की उत्पति संभव हुई। इसी हिमालय के एक हिस्से में  अपना उत्तराखण्ड प्रदेश स्थित है और देहरादून इसकी तलहटी में शिवालिक श्रृंखला के मध्य की उपत्यका में बसा है। भूगर्भीय घटनाओं के फलस्वरूप दून घाटी में कुदरत ने अपना खजाना जमकर लुटाया है। घाटी के बीच में कई छोटी-छोटी घाटियाँ भी हैं, जिसके कारण यहाँ पूरब-पश्चिम दोनों तरफ कई नदी-नाले देखने को मिल जाते हैं। कुछ नदियाँ तो सदानीरा हैं और कुछ बरसाती। साल के जंगल यहाँ की खूबसूरती में चार चांद लगा देते हैं। यही कारण है कि यहां की भूमि खेती- किसानी के मामले में काफी समृद्ध रही है। अनियोजित, अवहनीय विकास कार्यों और सरकारों की जनविरोधी, पर्यावरण विरोधी नीतियों के चलते यह खूबसूरत घाटी अपने प्राकृतिक वैभव को खोती जा रही है।

               A walk in the old Paltan bazar. photo-Social media

कालसी में स्थित अशोक कालीन शिलालेख इस बात की ताकीद अवश्य करते हैं कि दून घाटी का यह क्षेत्र मौर्य शासनकाल ई0पू0 321-184 में अवश्य ही फलता-फूलता रहा होगा, तभी सम्राट अशोक ने यहाँ अपना शिलालेख स्थापित करना उचित समझा होगा। कालसी में अशोक कालीन, 273-232 ईसा पूर्व का यह शिला-लेख आज भी मौजूद है। सन् 1860 में एक अंग्रेज अफसर मि0 फोरेस्ट ने इसकी खोज की थी। दून उपत्यका में शिव भवानी और शील वर्मन के अभिलेख भी मिले। शील वर्मन के अभिलेख अंबाड़ी से पूर्व बाड़वाला के जगत ग्राम के यज्ञ कुण्ड से मिले जिसके बारे में कहा जाता है कि वहाँ यज्ञाग्नि प्रज्वलित की गई थी।

Paltan Bazar in the past , photo. social media

दून के इतिहास में रानी कर्णावती का विशेष योगदान देखने को मिलता है। गढ़वाल के अधिकतर इतिहासकारों का मानना है कि कर्णावती गढ़वाल के राजा महिपति शाह की रानी थी। महिपति शाह की मृत्यु के समय उनके पुत्र पृथ्वीशाह की आयु कम थी, इस कारण रानी कर्णावती को शासन की बागडोर अपने हाथ में लेनी पड़ी। राजपुर की नहर जो रिस्पना नदी से निकलती है, उसका निर्माण रानी कर्णावती ने सन् 1635 ई0 में कराया था। रानी कर्णावती की राजधानी नवादा रही जहाँ  उन्होंने किले का निर्माण भी कराया। दून के अजबपुर, करणपुर, कौलागीर, क्यारकूली व भोगपुर आदि गाँवों की स्थापना भी उसी समय की गई थी। सत्रहवीं शताब्दी तक यह क्षेत्र उजड़़ता-बसता रहा।

 

आधुनिक नगर की स्थापना :-

सन् 1676 ईसवी में सिक्खों के सातवें गुरू हर राय के पुत्र गुरू राम राय अपने अनुयायियों के साथ औरंगजेब के परिचय पत्र को लेकर यहाँ आये। वे पहले टोंस नदी के किनारे कांदली में कुछ समय तक रहे और बाद में खुड़़बुड़़ा आकर रहने लगे। यह क्षेत्र उस समय गढ़वाल के राजा फतेह शाह के आधीन था। गढ़वाल नरेश फतेह शाह ने उन्हें खुड़़बुड़़ा, राजपुर और चामासारी गांव दान में दिये, बाद में फतेह शाह के पौत्र प्रदीप शाह ने धामावाला, धरतावाला, पण्डितवाड़़ी सहित कुछ और गांव प्रदान किये। गुरूरामरायजी ने धामावाला में एक कच्चा मन्दिर बनवाया था . जिसे बाद में माता पंजाब कौर ने पक्का कराया। इस स्थान को डेरा कहा जाने लगा। इसी मन्दिर “दरबार˝ के चारों ओर खुड़़बुड़़ा और धामावाला गांवों में नगर का विस्तार हुआ। पंजाबी में गुरू के स्थान को डेरा कहा जाता है और दो पहाड़़ों के बीच की घाटी को द्रोण कहते हैं।

   Memories of Dehradun Railway station. Photo- social media

.  गुरू राम राय का यहाँ डेरा होने से ही इस स्थान को पहले डेरादून कहा गया जो कालान्तर मे ‘‘देहरादून‘‘ नाम से जाना जाने लगा। औरंगजेब की मृत्यु के बाद दिल्ली का शासन कमजोर पड़ गया था। सहारनपुर में रुहेलों का सरदार नजीबुद्दोला बैठा था, जिसे नजीब खाँ के नाम से भी जाना जाता है। वैभवशाली देहरादून ने नजीबुद्दोला को अपनी ओर आकर्षित किया। सन् 1757 में रुहेला सरदार नजीब खॉं ने दून पर पहला आक्रमण किया। बहुत हल्के प्रतिरोध का सामना करते हुए जल्द ही दून पर उसका आधिपत्य स्थापित हो गया। उसने यहाँ कुओं, नहरों आदि का निर्माण भी कराया। यहाँ  के निवासियों को और अधिक जमीन देकर खेती, व्यापार आदि के लिये प्रोत्साहित किया तथा बिना अत्यधिक कर लगाये उसने सवा लाख रुपये का राजस्व प्राप्त किया। उसके शासन काल,  सन् 1757 से सन् 1770, में देहरादून और समृद्ध हुआ। सन् 1770 में नजीब खाँ की मृत्यु के साथ ही दून का वैभव भी कम होने लगा। यह क्षेत्र पुनः गढवाल राज्य के अधीन आ गया। सन् 1804 ईसवी के जनवरी महीने में गढवाल के राजा प्रद्युम्न शाह गोरखाओं से लड़ते हुए खुड़बुड़ा में वीर गति को प्राप्त हुए। इस प्रकार सन् 1804 में देहरादून सहित सम्पूर्ण गढ़वाल पर गोरखाओं का शासन स्थापित हो गया जो 1814 तक रहा। 1814 के अक्तूबर-नवंबर महीने में एंग्लो गोरखा युद्ध के दौरान दून में अंग्रेजी सेना को जान माल का काफी नुकसान सहना पड़़ा। नवंबर के अंत में दून के खलंगा किले पर, अंग्रंजों ने कब्जा कर लिया था। अब दून अंग्रेजों के अधीन आ गया।

17 नवंबर 1815 को देहरादून को सहारनपुर जिले में शामिल करने का आदेश जारी हुआ। उत्तरी सहारनपुर के तत्कालीन सहायक कलेक्टर मि0 काल्वर्ट को देहरादून जाने का हुक्म हुआ। सन् 1822 में एफ0 जे0 शोर ने काल्वर्ट का स्थान लिया। एफ0 जे0 शोर को यहाँ का ज्वाइंट मजिस्टट्रेट व सुपरिटेंडेंट ऑफ दून बनाया गया। शोर के कार्यकाल में यहाँ काफी विकास के कार्य हुये। सन् 1822-23 में ही सहारनपुर से दून को जोड़ने वाली पक्की सड़क का निर्माण हुआ जो लक्खीबाग से धामावाला होते हुये राजपुर जाती थी। सन् 1854 में ए0पी0 मिशन स्कूल की स्थापना हुई । सन् 1864 में ओल्ड सिरमौर राइफल को यहाँ रुकने का आदेश हुआ। इसके बाद पल्टन के लिये पल्टन बाजार बना, पास ही परेड ग्राउण्ड भी अस्तित्व में आया और इस तरह देहरादून के आधुनिक नगर बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई।   ब्रिटिश शासन काल में यहाँ नहरों के निर्माण, लीची के बाग लगने, चाय बागान की स्थापना, बासमती धान की खेती आदि काम प्रारंभथ हुये। देहरादून की बासमती विश्व प्रसिद्ध रही। बासमती धान के बीज को यहाँ लाने का श्रेय अफगानिस्तान के शासक दोस्त गुलाम मौहम्मद को जाता है, जो यहाँ निर्वासित जीवन बिता रहे थे।   ब्रितानिया हुकूमत के दौरान ही यहाँ एफ0 आर0 आई0, सर्वे आफ इण्डिया, आई0 एम0 ए0, आर0 आई0 एम0 सी0 आदि जैसे केन्द्रीय संस्थानों की स्थापना हुई। उस दौर की ऐतिहासिक ईनाममुल्ला, एल0 आई0 सी0 बिल्डिंग भी आज भी शहर के मध्य में है। सन् 1901 में दून रेल सेवाओं से जुड़ा।

 

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