Front Page

ज्ञान कर्म दोनों पंखों की समानता में विकास संभव : आचार्य ममगांई

बदरीनाथ धाम, 9 अक्टूबर।  पंछी के जब दोनों पंख समान होते हैं, तब उड़ान भरते हैं। एक पंख छोटा और एक बड़ा होगा तो लुढ़क जाएगा। कर्म में भी दो पंख हैं – ज्ञान व कर्म सांसारिक और व्यवहारिक ज्ञान होना चाहिए। ज्ञान और कर्म दो पंख समान होने पर विकास, व्यवस्थायें व कार्य सफल होते हैं। यदि ज्ञान रूपी पंख बड़ा व कर्म रूपी पंख छोटा हो तो वह व्यक्ति अटक जाता है। उसके कार्य रुक जाते हैं और वह दूसरे के कार्यों को भी रोकता है। कर्म रूपी पंख बड़ा व ज्ञान रूपी पंख छोटा हो तो लुढ़कना अवश्यंभावी होता है जबकि स्वयं लुढ़कना और दूसरे को लुढ़काना हो जाता है। आज के परिपेक्ष्य में ठीक यही हो रहा है। ज्ञान के अनुरूप पद को कार्य नहीं मिलता और योग्य लोग पीछे अटके हैं, जिन्होंने विकास, व्यवस्था करनी थी जिनको ज्ञान नहीं, उनको अधिक पद देने पर कार्य व्यवस्था को लटकाए हुए हैं। वह वेद का सूत्र है कि ज्ञान और कर्म दोनों पंख समान होने चाहिए।
यह बात  बदरीनाथ नाथ धाम के भारत सेवाश्रम में स्वर्गीय कैप्टन निशांत नेगी की पुण्य  स्मृति में परिजनों के द्वारा आयोजित श्रीमद्भागवत सातवें दिन की कथा में व्यक्त करते हुए कही। ज्योतिष्पीठ व्यास आचार्य शिव प्रसाद ममगाईं जी ने कहा कि जहाँ जन्म है, वहीं मनुष्य का क्रम भी है। जीवन कर्म का पर्याय है, इसलिए जीवन ही कर्म है मृत्यु कर्म का अभाव है, मृत्यु के बाद चित पर उनकी स्मृतियां शेष रहती हैं जो बुराई को जन्म देती है। संसार की गति अविरल व वृताकार है। इसका न कहीं आदि है, न अंत। सृष्टि निर्माण एवम विध्वंस का कार्य सतत रूप से चल रहा है। जहाँ यह व्रत पूरा होगा तथा नई सृष्टि के लिए अवसर उपस्थित होगा। इसी प्रकार कर्म व वासनाओं की गति भी वृत्ताकार है। कर्म से स्मृति व संस्कार बनते हैं तथा इन संस्कारों के कारण विषय वासना, दुर्भावना जागृत होती है। वासना आसक्ति से जन्म, मृत्यु, पुनर्जन्म का चक्र आरम्भ होता है। वासना का मूल अहंकार है। अहंकार के गिर जाने से विषय वासनाएं समाप्त हो जाती हैं। भोग प्रारब्ध है व भगवान ने मनुष्य को क्रिया शक्ति दी है। क्रिया को व्यर्थ गवाने पर पाप व अर्जित करने पर सुखा नुभूति होती है। अहिंसा के सिद्धांत जिस तत्व में मानने की व्यवस्था है, वही सनातन धर्म है। हमारा चित्त संसार व आत्मा के बीच का सेतु है, जो विषय वासना की पूर्ति के साधन हैं। दूसरी ओर चित्त जड़ है, यह आत्मा के प्रकाश से प्रकाशित होता है। यह चेतन आत्मा सूक्ष्म है, अतः प्रवृत्ति सदैव दिखती है जब योगी को समाधि अवस्था में प्रकृति पुरुष का भेद स्पष्ट हो तब वह निज स्वरूप आत्मा की ओर प्रवृत्त होता है। प्रकृति को अपने से सदा विदा करना ही उसकी कैवल्य अवस्था है, वह प्रकृति के दास से उसका स्वामी बन जाता है। उससे वह विषयों की ओर आकर्षित होता था। वह छोड़ कर आत्मानंद की ओर अभिमुख होता है। जीवन से क्रोध रूपी चाणूर, लोभ रूपी मुष्टिक, देहाभिमान रूपी कंस जाता है तो ऋतम्भरा देवमयी बुद्धि होने पर परमात्मा स्वयम चलकर जीवात्मा के समीप पहुंचते हैं। उसके दुख, बन्धनों से छुड़ा कर लक्ष्मी रूपी रुक्मणि से प्रणय कर उस व्यक्ति के साथ उसका पूर्ण संबंध होता है, जैसे बसुदेव और देवकी का यशोदा नन्द जी का।
आचार्यश्री द्वारा शनिवार को जीवन का मर्म और कर्तव्यबोध कराने के साथ ही भंडारे के साथ श्रीमदभागवत कथा का समापन हुआ। इस अवसर पर भारी संख्या में आकर लोगों ने कथा का श्रवण किया। विशेष रूप से पुष्कर  सिंह नेगी, रेखा नेगी, वेदपाठी उपधर्माधिकारी  बद्रीनाथ धाम  के आचार्य  रविंद्र भट्ट, पूर्व कैबिनेट मंत्री मोहन सिंह रावत गांववासी, डिमरी केन्द्रीय पंचायत के अध्यक्ष विनोद  डिमरी, महामंत्री दिनेश  डिमरी, बर्फानी बाबा मोदी थाली के चन्द्रमोहन ममगांई, बीना डिमरी, लक्ष्मण सिंह मोल्फा,  मधुर मेहर, आस्था मेहर, संजय बिष्ट, रविंद्र नेगी, मोनिका बिष्ट, डॉ. हरीश गौड़, विनोद डिमरी, श्रीराम प्रभा नेगी, आचार्य दामोदर सेमवाल, आचार्य सुनील ममगाईं, आचार्य संदीप बहुगुणा, आचार्य सन्दीप भट्ट, आचार्य हिमांशु मैठाणी, सुरेश जोशी, धर्मानंद आदि भक्तगण भारी संख्या में उपस्थित थे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!