पुरस्कारों की होड़ में भटक गया उत्तराखण्ड में जन्मा चिपको आन्दोलन
–जयसिंह रावत
पर्यावरण चेतना आज समय की मांग जरूर है लेकिन लोगों में पेड़-पौधों और जीव जन्तुओं से ज्यादा पुरस्कारों के प्रति चेतना जाग रही है। कह सकते हैं कि पर्यावरण का राग अलापना कुछ लोगों के लिये फैशन तो कुछ के लिये पुरस्कार हासिल करने का जरिया बन गया है। जबकि गोविन्द सिंह रावत और गौरा देवी जैसे वे लोग गुमनामी में खो गये जिन्होंने पर्यावरण की विश्वव्यापी अलख जगाने वाले चिपको आन्दोलन की शुरूआत की थी। लगता है कि अब लोगों के स्मृति पटल से दुनिया को पर्यावरण का नया दर्शन देने वाले चण्डी प्रसाद भट्ट और सुन्दरलाल बहुगुणा का नाम भी धुंधला हो चुका है।
चिपको पेड़ काटने के लिये शुरू हुआ और बचाने के लिये विख्यात हुआ
विश्व विख्यात चिपको आन्दोलन ऐसा विचित्र जन प्रतिकार था जो कि पेड़ काटने के लिये शुरू हुआ और पेड़ बचाने को लेकर प्रसिद्ध हो गया। चिपको आन्दोलन के संस्थापक सर्वोदयी नेता ही थे जिनका उद्ेश्य पेड़ बचाना नहीं बल्कि समाज के दबे कुचले लोगों को सक्षम बना कर मुख्यधारा में लाना था।इसीलिये इन सर्वोदयी नेताओं की मांग जंगलों के बड़े ठेकेदारों के बजाय स्थानीय संस्थाओं को पेड़ काटने की अनुमति देने की थी ताकि स्थानीय लोगों की जरूरतें भी पूरी हो सकें और उनकी आर्थिकी भी मजबूत हो सके। ये भी विचित्र संयोग ही है कि आन्दोलन में गोविन्दसिंह रावत और घनश्याम सैलानी जैसे जिन लोगों का योगदान केवल पेड़ बचाने में था वे गुमनामी में खो गये। चमोली जिले में मंडल, केदार घाटी और नीती घाटी में सन् 73 से 77 तक की घटनाओं ने चिपको आंदोलन के ताने-बाने को बुना और उसे एक आकार दिया। बाद में हेंवल घाटी, भ्यंूडार घाटी, उत्तरकाशी, चांचली धार, अल्मोडा़ आदि स्थानों पर आन्दोलन के नये-नये पड़ाव बने। ठीक 180 डिग्री पर घूमने वाले इस आन्दोलन की एक खासियत यह भी रही कि इसने पर्यावरण के नाम पर बड़े-बड़े सरकारी और गैरसरकारी पुरस्कारों के लिये रास्ता खोल दिया। सुन्दर लाल बहुगुणा और चण्डी प्रसाद भट्ट ने तो धरती के एक कोने से दूसरे कोने तक नाप कर पर्यावरण चेतना की अलख जगाई लेकिन अब अखबारों में पेड़ लगाने की तस्बीरें छपवा कर और मीडिया में इंटरव्यू चलवा कर कई लोग पदम् और अन्य पुरस्कारों की दौड़ में शामिल हो रहे हैं। इसीलिये अब चिपको के कुछ पुराने कार्यकर्ता लोगों के हक हुकूकों के लिये नये चिपको की मांग करने लगे हैं।
चिपको से 244 साल पहले अमृता देवी चिपक गयी थी पेड़ों पर
चिपको आन्दोलन चमोली गढ़वाल के रेणी गांव से भी 244 साल पहले ही सन् 1730 में राजस्थान के खेजड़ली गांव में शुरू हो चुका था जिसमें विश्नाई समाज की अमृता देवी और उनकी पुयिों समेत 363 लोगों ने पेड़ बचाने के लिये शहादत दे दी थी। लेकिन इतनी शहादतों के बाद भी अमृता देवी की कीर्ति रेणी की गौरा देवी के समान वैश्विक स्तर तक नहीं पहुंची। चिपको आन्दोलन मूल रूप से पेड़ बचाने के लिये नहीं बल्कि स्थानीय लोगों की जरूरतों के अनुसार पेड़ कटवाने के लिये शुरू हुआ था। सर्वोदय की संस्था दशोली ग्राम स्वराज्य संघ ने गोपेश्वर में आरामशीन लगा रखी थी जिसे वन विभाग कृषि यंत्र और खेल का सामान बनाने के लिये अंगू के पेड़ देने के बजाय साइमन कंपनी को बड़े पैमाने पर पेड़ काटने को दे रहा था। 26 मार्च 1974 को रेणी के चिपको आन्दोलन के तीन साल बाद टिहरी गढ़वाल के गैरगढ़ जंगल में 4 अप्रैल 1977 को पेड़ काटने वाली आरियों और कुल्हाड़ियों की शस्त्र पूजा भी हुई थी। इन हथियारों को श्रमिकों के धनुष बाण बता कर गरीबी के खिलाफ हथियार उठाने का आवाहन स्वयं सुन्दर लाल बहुगुणा ने किया था। इस प्रयोजन के लिये बहुगुणा जी ने गैरगढ़ जंगल में उस वर्ष 11 दिन का उपवास किया था।
चिपको 180 डिग्री तक घूम गया
चिपको के एक प्रमुख कार्यकर्ता रमेश गैरोला पहाड़ी के अनुसार वनवासी ही वनों के प्राकृतिक और स्वाभाविक रखवाले हैं इसलिये उनके बिना वनों की रक्षा संभव नहीं है। पहाड़ी कहते हैं कि उन लोगों ने स्थानीय लोगों के हकहुकूकों के लिये चिपको शुरू किया था जो कि भटक गया है। ऐसे आन्दोलन से पुरस्कार तो मिल सकते हैं मगर वनों की रक्षा नहीं हो सकती। इसलिये आज एक नये चिपको आन्दोलन की आवश्यकता है। एक अन्य चिपको कार्यकर्ता महेन्द्र सिंह कुंवर के अनुसार वनवासियों को वनों से अलग नहीं किया जा सकता। स्वयं चण्डी प्रसाद भट्ट ने पहले वन आयोग के सदस्य के तौर पर वनवासियों के परम्परागत वनाधिकारों के विपरीत सिफारिश करने पर अपनी आपत्ति दर्ज करने के साथ ही वनग्राम विकसित करने का सुझाव दिया था।
रेणी से पहले केदार घाटी में सफल रहा था चिपको
रेणी से पहले जून 1973 में वनान्दोलन केदार घाटी के रामपुर फाटा के जंगलों में सफल हो चुका था। जिसके नायक ब्लाक उपप्रमुख केदारसिंह रावत थे। उससे भी पहले चण्डी प्रसाद भट्ट और आनन्द सिंह बिष्ट आदि सर्वोदयी नेताओं की प्रेरणा से चमोली के जिला मुख्यालय गोपेश्वर से 13 किमी दूर मण्डल घाटी में 24 अप्रैल को लोगों ने ग्राम प्रधान आलमसिंह बिष्ट और बचनलाल एवं विजय शर्मा के नेतृत्व में पेड़ों पर चिपके बिना ही पेड़ काटने वालों को जंगल से भगा दिया गया था। इन सभी आन्दोलनों के पीछे सर्वोदयी ही थे।
गोविन्द सिंह रावत ने रेणी में रखी चिपको की बुनियाद
रेणी के चिपको आन्दोलन के प्रणेता चण्डी प्रसाद भट्ट और आनन्द सिंह बिष्ट आदि सर्वोदयी नेता अवश्य थे मगर इसकी असली बुनियाद रखने वाले जोशीमठ के ब्लाक प्रमुख कामरेड गोविन्दसिंह रावत ही थे जिनको हयात सिंह और वासवानन्द का सहयोग मिला था। क्षेत्र विकास समिति के निर्वाचित प्रमुख होने के नाते कन्युनिस्ट नेता गोविन्द सिंह की भारत-तिब्बत सीमा से लगे इस सीमान्त विकासखण्ड में जबरदस्त पकड़ थी। जबकि 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद कम्युनिस्टों पर चीन समर्थक होने के आरोप लगते थे। लेकिन चण्डीप्रसाद बखूबी जानते थे कि इस सीमान्त जनजातीय क्षेत्र में गोविन्द सिंह के सहयोग के बिना आन्दोलन सफल नहीं हो सकता।
संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र रेणी में ढाइ हजार पेड़ कटने थे
दरअसल मण्डल और केदार घाटी में पेड़ों के कटान के प्रयास विफल हो जाने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने जब जोशीमठ ब्लाक के ढाक नाले से लेकर रेणी गांव तक के जंगल में 2451 देवदार, कैल, सुरई आदि के पेड़ काटने का ठेका देहरादून के एक व्यापारी को 4.71 लाख में दिया तो सबसे पहले जोशीमठ क्षेत्र विकास समिति की फरबरी 1974 की बैठक में ब्लाक प्रमुख गोविन्द सिंह रावत ने इस आबंटन के विरोध में प्रस्ताव पारित कर क्षेत्र की जनता को वनों के कटान के विरुद्ध एकजुट होने का आवाहन कर दिया था। इसके बाद उन्होंने रेणी क्षेत्र में होने जा रहे वन कटान के खिलाफ एक बहुचर्चित पर्चा क्षेत्र में बंटवा दिया। पर्चे का शीर्षक ‘‘ चिपको आन्दोलन का शुभारंभ’’ था, और उप शीर्षक था, ‘‘आ गया है लाल निशान, लूटने वालो सावधान’’। इस पर्चे में 12 मार्च 1974 को जोशीमठ में ‘‘चिपको आन्दोलन’’ शुरू करने की घोषणा की गयी थी। जाहिर है कि रेणी में महिलाओं द्वारा पेड़ों से चिपक कर पेड़ बचाने से पहले ही 12 मार्च को गोविन्दसिंह रावत ने चिपको आन्दोलन शुरू कर दिया था।
कमला राम नौटियाल ने उत्तरकाशी में छेड़ दिया था अभियान
रेणी से भी काफी पहले कमलाराम नौटियाल के नेतृत्व में कम्युनिस्ट कार्यकर्ता उत्तरकाशी जिले के बयाली में 1973 में जंगल बचाओ आन्दोलन चला चुके थे। जिससे जरमोला और गडूगाड़ में वनखड़ीक वृक्षों के कटान पर रोक लगी। बाद में कम्युनिस्टों ने टोंस वन प्रभाग में भी आन्दोलन चलाया जिसमें कमलाराम के अलावा कम्युनिस्ट विधायक गोविन्दसिंह नेगी और विद्यासागर नौटियाल समेत 14 लोग गिरफ्तार कर टिहरी जेल भेजे गये जो कि 22 दिन तक जेल में रहे।
चण्डी प्रसाद के सहयोगी रहे गोविन्द सिंह रावत
सन् 1962 के भारत चीन युद्ध के बाद चीन से लगे सीमा क्षेत्र में लाल निशान वाले पर्चों का बंटना शासन प्रशासन को बेचैन करने वाला था। पर्चे के साथ ही गोविन्द सिंह ने चण्डीप्रसाद भट्ट और हयातसिंह को साथ लेकर जोशीमठ से लेकर नीती घाटी के ढाक, तपोवन, भांगला, बणगांव और रेणी आदि दर्जनों गांवों की पदयात्रा कर लोगों को समझाया कि जंगलों के खत्म होने से भूस्खलन के साथ ही पानी-चारा का संकट हो जायेगा। उनकी चेतावनी को 7 फरबरी 2021 को ऋषिगंगा-धौली की बाढ़ ने सच साबित कर दिया। अब तो रेणी गांव का अस्तित्व ही संकट में है।
ब्लाक प्रमुख गोविन्द सिंह भोटिया जनजाति से थे
रेणी के आन्दोलन की सफलता के बाद उत्तर प्रदेश के राज्यपाल ने डा0 वीरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में जब 9 सदस्यीय रेणी जांच समिति गठित की जिसमें चण्डी प्रसाद भट्ट के साथ ही गोविन्द सिंह रावत को भी शामिल किया गया था। इसके बाद मुख्य समिति के अधीन एक उपसमिति का गठन हुआ और उसमें भी चण्डीप्रसाद के साथ ही गोविन्दसिंह को भी सदस्य रखा गया। जो कि चिपको आन्दोलन में गोविन्द सिंह रावत की महत्वपूर्ण भूमिका का पुख्ता सबूत है। गोविन्द सिंह का जन्म नीती घाटी के भोटिया जनजाति के कोषा गांव में 23 जून 1935 को चंद्रा देवी और उमराव सिंह रावत के घर हुआ था। वह 1 फरवरी तक 1978 तक वे ब्लाक प्रमुख रहे। 19 नवम्बर 1988 को वह दुबारा सीमान्त ब्लाक जोशीमठ के ब्लाक प्रमुख चुने गए, और दिसम्बर 1996 तक इस पद पर रहे। जीवनपर्यंन्त लोगों के लिए लड़ने वाले गोविन्द सिंह 21 दिसम्बर 1998 को दुनिया को छोड़ कर चल बसे और अपने पीछे छोड़ चले चिपको की अनमोल विरासत।
चिपको के प्रसार में सुन्दरलाल बहुगुणा की रही महत्वपूर्ण भूमिका
हिमालय से चला यह पर्यावरण आन्दोलन न केवल केरल और कर्नाटक अपितु स्विट्जरलैण्ड, फ्रांस, मैक्सिको, डेनमार्क, आस्ट्रेलिया, कनाडा, और मलेशिया समेत धरती के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंच गया। इस विस्तार में सुन्दरलाल बहुगुणा की महत्वपूर्ण भूमिका रही। आन्दोलन के दबाव में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार को पहाड़ी क्षेत्रों में वनों के व्यावसायिक कटान पर 10 साल की रोक लगानी पड़ी। आन्दोलन के बाद 1980 को बहुचर्चित वन अधिनियम आने के साथ ही 1988 की वन नीति भी आई। प्रमुख चिपको नेता रमेश गैरोला पहाडी के अनुसार प्रसिद्ध के चक्कर में चिपको का स्थानीय नागरिकों के वनाधिकार का मूल उद्ेश्य ही भटक गया।
जिन्होंने भी चिपको को उठाया वे गुमनामी में खो गये
चिपको आन्दोलन में एक नहीं अपितु अनेक लोगों का योगदान रहा। चिपको के दो स्तम्भों में से एक चण्डीप्रसाद भट्ट की टीम में मुरारीलाल, महेन्द्र सिंह कुंवर, रमेश पहाड़ी, शिशुपाल सिंह कुंवर, कल्याण सिंह रावत, सच्चिदानन्द भारती और अल्मोड़ा से उत्तराखण्ड वाहिनी के नेता शमशेर सिंह बिष्ट जैसे युवा शामिल थे। उधर टिहरी में सुन्दरलाल बहुगुणा के साथ धूमसिंह नेगी, विजय जड़धारी, घनश्याम रतूड़ी और कुंवर प्रसून जैसे समर्पित एक्टिविस्ट थे। इनके अलावा बड़ी संख्या में महिला आन्दोलनकारियों को भी चिपको को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा। प्रख्यात चिपको नेता सुन्दरलाल बहुगुणा ने ‘‘गंगा का मैत बिटी’’ काव्य संग्रह की प्रस्तावना में लिखा है कि ‘‘चिपको आन्दोलन शायद गोपेश्वर के मण्डल जंगल में ही केन्द्रित हो जाता अगर मई के प्रथम सप्ताह में घनश्याम सैलानी कुछ अन्य सर्वोदय सेवकों के साथ वहां से नैल-नौली होते हुये ऊखीमठ की पैदल यात्रा पर न निकल पड़ते।’’ वास्तव में गांधी शांति प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित पुस्तक में भी कहा गया है कि ‘‘3 मई को सुन्दर लाल बहुगुणा के नेतृत्व में गोपेश्वर से पदयात्रा टोली रवाना हुयी जिसमें राजीव बहुगुणा, घनश्याम रतूड़ी ‘सैलानी’ आनन्द सिंह बिष्ट और मार्क्सवादी नेता मनवरसिंह बिष्ट शामिल थे, जिसका उद्श्य चिपको आन्दोलन को गांव-गांव तक पहुंचाना था।’’ लोक कवि घनश्यम सैलानी के गीतों ने वास्तव में चिपको आन्दोलन में उत्प्रेरक का काम किया। उनके पर्यावरण चेतना संबंधी गीत आकाशवाणी लखनऊ से नियमित प्रसारित होते थे।
–जयसिंह रावत
पत्रकार एवं लेखक
ई-11,फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
शाहनगर, डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मेबाइल-9412324999
jaysinghrawat@gmail.com