विशेषज्ञों ने किया सावधान: वरना एक दिन अलकनंदा में समा जायेगा जोशीमठ (ज्योतिर्पीठ)

–जयसिंह रावत
आपदा निवारण और प्रबंधन से जुड़े विशिषज्ञों के स्वेछिक मंच ‘‘रिस्क प्रीवेंसन मिटिगेशन एण्ड मैनेजमेंट फोरम’’ के ताजा संस्करण ‘‘फोलो डॉट इट’’ में पौराणिक नगरी जोशीमठ को भूधंसाव के कारण उत्पन्न खतरे के बारे में अध्ययन रिपोर्ट जारी की गयी है, जिसमें कहा गया कि है कि आद्य गुरू शंकराचार्य द्वारा देश के चार कोनोें में स्थापित सर्वोच्च चार धार्मिक पीठों में से एक ज्योतिर्मठ पर मंडराते खतरे लिये पावर प्रोजेक्ट की सुरंग और भारी निर्माण कार्य मुख्य रूप् से जिम्मेदार हैं। रिपेार्ट के अनुसार जोशीमठ की नाजुक स्थिति का 1976 में गठित मिश्रा समिति ने खुलासा कर दिया था लेकिन उसके बाद आधा सदी गुजर गयी मगर मिश्रा समिति की चेतावनी की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
रिपोर्ट में कहा गया हैं कि नैनीताल में 1880 के शेर-का-डांडा भूस्खलन के बाद नैनी झील के चारों ओर पहचाने गए कमजोर ढलानों पर निगरानी के लिये स्तंभ बनाए गए थे और 1997 तक थियोडोलाइट का उपयोग करके इस झील नगरी के लिए खतरे का आंकलन करने और शमन उपायों के साथ ही चेतावनी देने के अलावा इसकी निगरानी की गई थी। लेकिन जोशीमठ के बारे में ऐसा नहीं हुआ।
पौराणिक नगरी जोशीमठ की जमीन की भूस्खलन प्रवृति का अध्ययन करने के लिये 1976 में गढ़वाल के कमिश्नर मिश्रा की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया था। इस कमेटी के विशेषज्ञों ने जोशीमठ की जमीन के नीचे खिसकने की प्रवृत्ति का अध्ययन कर रिपोर्ट सरकार को भेजी थी। लेकिन उसके बाद लगभग आधा सदी गुजर गयी लेकिन किसी अन्य विशेषज्ञ संस्था ने जोशीमठ की स्थिति का आगे अध्ययन नहीं किया। जिस कारण आज जोशीमठ के भूगर्व के बारे में अध्ययन के लिये कोई वैज्ञानिक डाटा उपलब्ध नहीं है। यही नहीं जोखिम वाले स्पॉट्स को न तो चिन्हित किया गया है और ना ही वर्षा या अन्य कारणों से जमीन के खिसकने या धंसने की गति का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध है।
जोशीमठ के भूधंसाव पर निगरानी के लिये नियमित निगरानी की आवश्यकता है जिसकी शुरुआत उत्तराखण्ड आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने एक बहुपक्षीय विशेषज्ञ समिति के गठन से कर दी है। इस समिति में आईआइटी, सेंट्रल ब्यूरो ऑफ बिल्डिंग रिसर्च, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियॉलॉजी और भूगर्व सर्वेक्षण विभाग के वैज्ञानिक शामिल हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि वास्तव में, निगरानी द्वारा मूल्यांकन किए गए विभेदक जोखिम के आधार पर शमन कार्यों की योजना बनाई जानी चाहिए और प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
रिपोर्ट में कहा गया है कि विशेषज्ञ समिति के सभी सदस्य भली-भांति परिचित हैं कि जोशीमठ में जमीन नीचे खिसक रही है। जोशीमठ के आसपास के धरातल और जमीन पर दरारें और दरारों वाले स्ट्रक्चर्स के बारे में भी हर कोई जानता है। समिति द्वारा रविग्राम, सुनील, सेमा और मारवाड़ी के आसपास के स्थान संवेदनशील बताये गये हैं, लेकिन स्थानीय लोगों को स्पष्ट रूप से लगता है कि अन्य क्षेत्र भी वास्तव में सुरक्षित और स्थिर नहीं हैं।
जमीन के खिसकने में पानी या जलतंत्र की भूमिका के संबंध में, समिति ने स्पष्ट रूप से माना है कि जोशीमठ के नीचे अलकनन्दा द्वारा भूकटाव के कारण भी ऊपर की जमीन अस्थिर हुयी है। इस भूअस्थिरता को 2013 और फिर 2021 की बाढ़ ने भी और अधिक बढ़ाया है। अस्थिरता के लिये स्थानीय जलतंत्र तो स्पष्ट रूप से जिम्मेदार है, हालांकि, लोग पानी के दबाव के बारे में नहीं जानते हैं, लेकिन लोग नियोजित अपशिष्ट जल और वर्षा जल के निपटान की आवश्यकता को अवश्य महसूस करते हैं। यही नहीं स्थानीय लोग यह भी महसूस करते हैं कि संवेदनशील ढलान पर बेतहासा निर्माण और विशालकाय भवन और अनियोजित ढांचे जमीन पर दबाव बढ़ा कर संवेदनशीलता को बढा़ रहे हैं।
इस मंच की रिपोर्ट कहती है कि ऐसी नाजुक भूगर्वीय स्थिति तथा जमीन की अस्थिता के बावजूद संवेदनशील क्षेत्र में सुरंग निर्माण किया जा रहा है। जबकि सभी को पता है सुरंगों के कारण जमीन की अस्थिता और अधिक बढ़ेगी। फिर भी किसी वैज्ञानिक संस्था या कमेटी ने इस ओर संकेत करने या आवाज उठाने की हिम्मत नहीं की। हालांकि किसी भी वैज्ञानिक संस्थान या समिति ने अब तक ढलानों के माध्यम से सुरंग बनाने की भूमिका पर टिप्पणी करने का साहस नहीं किया है, जो लंबे समय से अस्थिर होने के लिए जाने जाते हैं,जबकि जनता इस विवादास्पद मुद्दे पर भी मुखर है।
कमेटी का मानना है कि जोशीमठ वैसे ही एक पुराने भूस्खलन के भारी भरकम मलबे के ऊपर स्थित है और इसके मध्य और ऊपरी हिस्से में लैंड मॉस चिपका हुआ है। इसके अलावा, अलकनंदा नदी के विपरीत तट पर चट्टानों की प्रवृत्ति यह स्पष्ट रूप से स्पष्ट करती है कि ढलान सामग्री अस्थिरता के लिए तैयार है जिसे सुरंग निर्माण और अन्य अनियंत्रित और भारी निर्माण जैसी मानवजनित गतिविधियों से बढ़ सकती हैं।
कोई तथ्यात्मक डेटा उपलब्ध नहीं होने के कारण, समिति ने संरचनाओं और धरातल पर नजर आ रहे दृष्य प्रभाव के आधार पर रविग्राम, सुनील, सेमा और मारवाड़ी क्षेत्र को भूधंसाव या जमीन की अस्थिरता के लिये ज्यादा संवेदनशील माना है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि जहां तक सिफारिशों का संबंध है, विशेषज्ञ समिति के पास नया कुछ कहने के लिये नहीं था। भूस्खलन शमन के लिये पानी के ठहराव को कम करने और अपवाह को तेजी से आसान बनाने के तरीके और साधन क्षेत्र के लोगों द्वारा पारंपरिक रूप से उपयोग किए जाते रहे हैं। भूस्खलन की रोकथाम के लिये 1880 में गठित रैम्जे कमेटी की भी लगभग यही सिफारिशें थीं। इनके अलावा समय-समय पर कुछ अन्य सुझाव भी आते रहे हैं।
ऐसे में समिति के पास सुझाव देने के लिए बहुत कुछ जानकारी नहीं है। फिर भी समस्या के फौरी निदान के लिये ढलान की निगरानी और जल निस्तारण की योजना तुरंत शुरू की जा सकती है।
इस दिशा में जोशीमठ में निर्माण को विनियमित करना एक अच्छा सुझाव माना जा सकता है, लेकिन इसे लागू करना उतना आसान नहीं है। यही हाल चिन्हित संवेदनशील क्षेत्रों से लोगों को वहां से हटाने का भी है। लोग आसानी से अपने पुराने घर नहीं छोड़ते। जोशीमठ और औली के आसपास केंद्रित आर्थिक गतिविधियों के कारण लोगों के पास जोखिम लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है।
क्षेत्र की निगरानी के डाटा को फाइलों में बंद रखने से बेहतर है कि उसे सार्वजनिक कर स्थानीय समुदाय का वस्तुस्थिति के बारे में जागरूक रखा जाय तो कि लोग अधिक विवेकशील हों और स्वेच्छा से स्थिति का सामना करने के लिये तैयार रहे।