सांझी विरासत की कहानी है, गढ़वाल मुगल चित्रकला शैली
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-डा.योगेश धसमाना
कला संस्कृति के इतिहास मेमाध्यकालीन युग में जिस चित्रकला शैली का उदय गढ़वाल चित्रकला शैली के रूप में हुआ , उसका श्रेय मुगल वंश के राजकुमार और औरंगजेब के भतीजे सुलेमान शिकोह को जाता है । 1658 ईस्वी में दारा शिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह को जब सत्ता के संघर्ष में औरंगजेब के भय से बचकर श्रीनगर गढ़वाल के गढ़वाल नरेश पृथ्वीपति शाह के पास आना पड़ा था , तब वह अपने साथ अपनी पत्नी , बच्चों और दो चित्रकार श्यामदास और हरिदास के साथ श्रीनगर आए ।
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इनकी पांचवी पीड़ी में मौलाराम का जन्म 1743 में श्रीनगर में हुआ । इनका संबंध दिल्ली के तंवरवंश से था । इनके द्वारा बनाए गए चित्रों में मुगल शैली का स्पर्श प्रभाव था । मौलाराम के पिता मंगतराम के चित्रों में चटख रंगों के साथ मुगल शैली के राज दरबारों के चित्रों का अंकन था । वहीं मैलाराम के चित्रों में गढ़ राजवंशों के राजाओं के चित्रों के साथ प्रकृति चित्रण और श्रीनगर की अलकनंदा का स्पर्श दर्शन होता है ।
सुलेमान शिकोह हिंदी , संस्कृत और पारसी का विद्वान था । सूत्र बताते हैं कि उसने कई पांडुलिपियों का पारसी में भी अनुवाद किया था । श्रीनगर गढ़वाल उसे बहुत पसंद आया । दो वर्ष के श्रीनगर में रहने के बाद जब औरंगजेब ने गढ़वाल नरेश से सुलैमान को वापस दिल्ली बुला लिया तब उनके साथ श्रीनगर आए दोनो चित्रकारों ने श्रीनगर में ही रहने का फैसला किया । राजा पृथ्वीपती शाह द्वारा उन चित्रकारों को राज आश्रय दिए जाने के बाद श्रीनगर एक चित्रशाला के रूप में उभर कर सामने आया ।
मौलाराम के चित्रों को प्रकाश में लाने का श्रेय बैरिस्टर मुकंदिलाल को जाता है । 1905 में उन्होंने बनारस में कालाविद कुमार स्वामी को एक चित्रों को दिखाया । इससे प्रभावित होकर कुमार स्वामी ने मौलाराम को गढ़वाल चित्रकला शैली का जनक बताया ।
आगे चलकर 1947 – 1948 में मुकंदीलाल के प्रयासों से लंदन में इन चित्रों की प्रदर्शनी आयोजित की गई। इसके साथ इनके चित्र बोस्टन म्यूजियम में भी प्रदर्शित किए गए । इसके बाद 1930 में जब विश्व के प्रसिद्ध कलाविध जे.सी. फ्रेंच गढ़वाल आए थे। उन्होंने लैंडसडाउन में मुकंदीलाल से भेंट की और मौलाराम के चित्रों को देखा ।
इसके बाद उन्होंने 1931 में श्रीनगर पहुंच कर मौलाराम से उनके चित्रों को खरीदा और हिमालय आर्ट पुस्तक में गढ़वाल चित्रकला शैली को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाया । 1833 में मौलाराम के निधन के बाद ब्रिटिश शासकों द्वारा इस कला को प्रोत्साहित न किए जाने के कारण इस कला ने भी धीरे धीरे दम तोड़ दिया ।
इस तरह मौलाराम के निधन के बाद गढ़वाली चित्रकला शैली का एक अध्याय समाप्त हो गया । मौलाराम की उपलब्धि हमारे लिए एक कवि , साहित्यकार , इतिहासकार और कालाविध के साथ गढ़वाल – मुगल चित्रकला शैली के रूप मे सांझी विरासत का गौरवशाली युग रहा है , जिसकी प्रसिद्धि भारत , नेपाल , अमेरिका सहित देसी रियासतों के कला वैभव के साथ जुड़ी हुई थी ।
किंतु मृत्यु से पूर्व मौलाराम द्वारा श्रीनगर मे जिस चित्रशाला का निर्माण किया गया था , उसे देखने के लिए देश विदेश के कलाकार श्रीनगर पहुंचते थे । आज उनके वंशज के रूप में द्वारिका प्रसाद तोमर इस सांझी विरासत को संभालें हुए हैं । इसी का एक फोटो पाठकों के साथ साझा कर रहा हूं।