देहरादून में भीषण युद्ध और तख्त बदलते देखे इस झण्डे ने
–जयसिंह रावत
उदासीन पन्थ की परम्परानुसार आज गुरुराम राय दरबार में आरोहण के साथ ही झण्डा साहिब एक बार फिर पूरी शानों शौकत से लहरा गया। यह ऐतिहासिक झण्डा न केवल देहरादून में गुरु रामराय के डेरे की स्थापना का प्रतीक है बल्कि देहरादून के जीवनकाल के 335 सालों के इतिहास का भी जीता जागता गवाह है। इन सेकड़ों सालों में इस झण्डे ने गढ़वाल नरेश की शहादत के साथ ही गोरखों का राज और फिर गोरखों के पतन के साथ ही अग्रेजों की हुकुमत भी देखी है। उदासीन सम्प्रदाय का यह परचम उत्तराखण्ड आन्दोलन के बाद नये राज्य के जन्म का गवाह बना।
उत्तराखण्ड की राजधानी स्थित गुरु रामराय दरबार में वृहस्पतिवार सायं दरबार के दसवें महन्त देवेन्द्र दास द्वारा झण्डारोहण के साथ ही उत्तर भारत का विख्यात झण्डा मेला भी शुरू हो गया। यह मेला न केवल देहरादून में गुरु राम राय के डेरे की स्थापना की जयन्ती बल्कि देहरादून शहर की स्थापना का भी समारोह है जिसका दूनवासी सालभर से इन्तजार करते हैं। इसने देहरादून के खुड़बुड़ा में रामराय के डेरे की स्थापना के बाद की तीन सदियों में कई उतार चढ़ाव और कई तख्त बदलते देखे हैं।
ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार औरंगजेब के दरबार में हाजिर होने पर अपने पिता और सिखों के सातवें गुरु हर राय द्वारा घर से बेदखल किये जाने पर जब राम राय घर छोड़ कर नये ठिकाने के लिये यात्रा पर निकले थे तो वह लाहौेर पहुंचे और वहां से अवध और आगरा होकर देहरादून के खुड़बुड़ा में ठहरे। बाद में उन्होंने आचार्य श्रीचन्द के शिष्य बालू हसना से उदासीन पन्थ की दीक्षा ली और यहीं तपस्या करने लगे। कहा जाता है कि गुरू राम राय ने इसी दिन चैत्र माह की पंचमी को सन्1676 में वर्तमान झण्डा साहिब के स्थान पर झण्डा गाढ़ कर अपना डेरा जमा दिया था। बाद में औरंगजेब ने गढ़वाल नरेश फतेहशाह को राम राय को हर सम्भव मदद करने का आदेश दिया। इस मुगल फरमान पर राजा ने गुरु राम राय को 7 गांव जागीर में दिये। ये 7 गावं आज एक महानगर देहरादून के रूप में विकसित हो गये। देहरादून का नामकरण भी राम राय के डेरा दून से हुआ माना जाता है। कुछ विद्वान इसका नाम द्रोणाचार्य की तपस्थली कंे रूप में मानते हैं। इसीलिये इस अवसर को लोग देहरादून का जन्म दिन भी मानते हैं।
किलानुमा गुरु राम राय दरबार की प्राचीर के चारों तरफ प्रवेश द्वार खुलते हैं और उनके ऊपर मीनारें बनीं हैं। पश्चिमी छोर पर विशाल फाटक के सामने सफेद सीढ़ीनुमा गोल चबूतरा नजर आता है । इसी चबूतरे पर खड़ा है आस्था का वह प्रतिबिंब है, झण्डा साहिब। गुरु रामराय महाराज ने 1699 में धामावाला में झंडा दरबार की स्थापना की। यह मुगल वास्तुकला की अनूठी प्रतिकृति है, जिसे 1707 में उनकी चार में से सबसे छोटी पत्नी पंजाब कौर ने भव्यरूप प्रदान किया। चित्रकार की अनूठी कृति दरबार साहिब के महराबों पर अंकित फूल-पत्तियां, पशु-पक्षी, वृक्ष, ऊंची नासिका वाले एक जैसे चेहरे, बड़े नेत्र और उनकी रंग योजना कांगड़ा-गुलेर और मुगल शैली के मिश्रण हैं। ऊंची मीनारें और गोल बुर्ज मुस्लिम वास्तुकला के ऐसे नमूने हैं।
दरबार साहिब और उसके चारों ओर बसा झंडा मोहल्ला वर्तमान देहरादून का मूल है । इसमेंएक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक परंपरा समाहित है जो देहरादून में पनपी और पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, हिमाचल व दिल्ली तक फैल गई।
अतीत के गवाह इस इस झण्डा साहब ने 1804 में इसी के पास खुड़बुड़ा में गोरखों और गढ़़वाल नरेश का तुमल संग्राम देखा जिसमें हाथी पर सवार महाराजा प्रद्युम्न शाह की आंख में गोली लगने से वह शहीद हो गये और गढ़व़ाल राज्य अग्रेजों के अधीन हो गया।इसने फिर 10 साल बाद खलंगा का युद्ध देखा जिसमें गोरखा जनरल बलभद्र बड़ी बहादुरी से तो लड़ा मगर अन्ततः अग्रेजों ने उसे खलंगा का दुर्ग छोड़ कर पंजाब की ओर भाग जाने पर विवश कर दिया। दुर्ग के पतन के बाद गढ़ावल गोरखों के अत्याचारी शासन से मुक्त हुआ।ये गोरखा सैनिक फिर सिखों के साथ मिल गये। गोरखा राज के पतन के बाद इस झण्डा साहिब ने गढ़वाल के नये राजा सुदर्शन शाह को गद्दीनसीं होते तो देखा मगर उसका आधा गढ़वाल देहरादून समेत अंग्रेजों के पास चला गया। इसके बाद मसूरी जाते हुये इसने कई अंग्रेज लाट साहब देखे और अन्ततः नब्बे के दशक का वह प्रचण्ड उत्तराखण्ड आन्दोलन भी देखा जिसके आगे भारत सरकार को झुकना पड़ा और उत्तर प्रदेश का विभाजन कर उत्तराखण्ड राज्य बनाना पड़ा जिसकी राजधानी भी देहरादून ही बनीं।
दरबार साहिब की परंपरा के महंत महंत
औददास (1687-1741) महंत हरप्रसाद (1741-1766)महंत हरसेवक (1766-1818) महंत स्वरूपदास (1818-1842) महंत प्रीतमदास (1842-1854) महंत नारायणदास (1854-1885) महंत प्रयागदास (1885-1896) महंत लक्ष्मणदास (1896-1945) महंत इंदिरेशचरण दास (1945-2000) महंत देवेंद्रदास (25 जून 2000) से गद्दीनसीन