उत्तराखण्ड राज्य के विरोधी थे फिर भी उत्तराखण्डियों के दिलों में छाये रहेबहुगुणा
-जयसिंह रावत
हिमालय पुत्र हेमवती नन्दन बहुगुणा का व्यक्तित्व इतना विराट था कि वह अपने कृतित्वों के कारण अपनी जन्मभूमि उत्तराखण्ड और कर्मभूमि उत्तर प्रदेश की सीमाओं से भी बाहर देशभर में याद किये जाते रहे। एक समय ऐसा भी था जब उन्हें राष्ट्रीय राजनीति का चाणक्य माना जाता था। यद्यपि वह मात्र 2 साल 21 दिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे फिर भी देश के इस सबसे बड़े राज्य के राजनीतिक, सामाजिक और विकास की प्रकृया का इतिहास बिना हेमवती नन्दन बहुगुणा के अधूरा ही रहेगा। उत्तराखण्ड उनकी केवल जन्मभूमि रही और एक बार के अलावा वह जन्मभूमि से कभी चुनाव नहीं लड़े। फिर भी उनसे उत्तराखण्ड के लोगों का सदैव भावनात्मक जुड़ाव रहा और पहाड़ के लोग उन्हें अपना गौरव मानते रहे। उत्तराखण्ड उनकी राजनीतिक कर्मभूमि न होते हुये भी यहां उनकी राजनीतिक विरासत सुरक्षित रही जिसका लाभ उनके भान्जे भुवन चन्द्र खण्डूड़ी और पुत्र विजय बहुगुणा के बाद उनकी पीढ़ियां उठा रही हैं। लेकिन उनके बारे में एक सच्चाई यह भी रही कि वह उत्तराखण्ड के अन्य राष्ट्रीय नेताओं की तरह पृथक राज्य के सदैव खिलाफ रहे। यहां तक कि उत्तर प्रदेश में अलग पर्वतीय विकास मंत्रालय और विभाग के गठन में भी उनकी भूमिका नहीं रही।
बहुगुणा साम्प्रदायिकता के सदैव घोर विरोधी रहे। उनकी जनसंघ और भाजपा से हमेशा दुरी रही ,फिर भी उनकी विरासत पर सत्तासुख भोग रहे लोग बहुगणा के विचारों के धुर विरोधियों के साथ हैं।
वास्तव में भौगोलिक दृष्टि से दुर्गम और विकास की दृष्टि से पिछड़े इस पहाड़ी क्षेत्र के लिये अलग मंत्रालय का श्रृजन मील का पत्थर होने के साथ ही उत्तराखण्ड राज्य के सपने के साकार होनेे की दिशा में भी एक शुरूआती कदम था। लेकिन इस मंत्रालय का श्रृजन हेमवती नन्दन बहुगुणा ने नहीं बल्कि कमलापति त्रिपाठी में 1973 में अपने मुख्य मंत्रित्व काल में किया था। पं. कमलापति त्रिपाठी के कार्यकाल में सचिवालय स्तर पर मार्च 1973 में सीमान्त विकास विभाग में कुछ वृद्धि कर पर्वतीय विकास विभाग का गठन कर उसमें एक पूर्णकालिक सचिव की नियुक्ति की गयी। कमलापति त्रिपाठी ने बदरी-केदार के विधायक और राज्यमंत्री नरेन्द्र सिंह भण्डारी को इस विभाग का दायित्व सौंपा था। कमलापति त्रिपाठी 4 अप्रैल 1971से लेकर 12 जून1973 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। उन्हीं के कार्यकाल में कम्पनी एक्ट 1956 के तहत मई 1971 में पर्वतीय विकास निगम की स्थापना हुयी, जिसके अध्यक्ष टिहरी गढ़वाल के तत्कालीन सांसद परिपूर्णानन्द पैन्यूली बनाये गये। नवम्बर 1973 में हेमवती नन्दन बहुगुणा के मुख्यमंत्री बनने पर एस.पी. नौटियाल को निगम का अध्यक्ष बनाया गया। जनवरी 1976 में जब नारायण दत्त तिवारी ने उत्तर प्रदेश की बागडोर सम्भाली तो उनके कार्यकाल में पर्वतीय विकास निगम को गढ़वाल और कुमाऊं विकास निगमों में विभाजित करने के साथ ही पूरे उत्तर प्रदेश में मण्डलीय विकास निगमों की स्थापना कर दी गयी। बहुगुणा के कार्यकाल में पहाड़ में काम करने के इच्छुक अधिकारियों और कर्मचारियों के लिये हिल काडर अवश्य बना था। वही हिल काडर बाद में राज्य के गठन के समय उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के बीच कार्मिकों के बंटवारे में काम आया।
उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों (आज के उत्तराखण्ड) की विशेष भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये क्षेत्र के विकास को गति देने के लिये सबसे पहले सन् 1969 में तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्त ने पर्वतीय विकास परिषद का गठन किया और उसका मुख्यालय नैनीताल में रखा गया। चन्द्रभानु गुप्त उस समय कुमाऊं की रानीखेत विधानसभा सीट से चुनाव जीते थे। मुख्यमंत्री गुप्त स्वयं इस परिषद के अध्यक्ष बने थे तथा पर्वतीय क्षेत्र के सांसदों और विधायकों को इसका सदस्य मनोनीत किया गया था। इस परिषद के उपाध्यक्ष के तौर पर पौड़ी के नरेन्द्र सिंह भण्डारी, देहरादून के हीरा सिंह बिष्ट एवं मायावती के कार्यकाल में हरक सिंह रावत आदि नेता रह चुकेे थे।
पर्वतीय विकास मंत्रालय के अस्तित्व में आने के बाद भण्डारी के अलावा कोई भी मंत्री अपनी इच्छानुसार इस विभाग का संचालन नहीं कर सका। विभाग में शुरू में राज्यमंत्री स्तर के मंत्री को ही इस विभाग की जिम्मेदारी दी जाती थी लेकिन मुलायम सिंह यादव ने पहली बार बर्फिया लाल ज्वांठा को इस विभाग का कैबिनेट स्तर का मंत्री बनाया था। कल्याण सिंह के कार्यकाल में इस विभाग में रमेश पोखरियाल निशंक को कैबिनेट मंत्री तथा उनके साथ मातबर सिंह कण्डारी समेत तीन राज्य मंत्री रखे गये। कल्याण सिंह के मुख्यमंत्रित्व में नवम्बर 1991 में इस विभाग को उत्तरांचल विकास विभाग नाम दिया गया और फिर मुलायम सिंह यादव के शासनकाल में जनवरी 1994 में इसका नाम उत्तराखण्ड विकास विभाग रखा गया। लेकिन 1997 में कल्याण सिंह फिर वापस सत्ता में लौटे तो इस विभाग का नाम पुनः उत्तरांचल विकास विभाग कर दिया गया।
हेमवती नन्दन बहुगुणा ने राष्ट्रीय स्तर पर उत्तराखण्ड का नाम रोशन अवश्य किया मगर उनकी जन्मभूमि गढ़वाल होने के बावजूद कर्मभूमि हमेशा इलाहाबाद ही रही। उन्होंने कांग्रेस छोड़ने के बाद पहली बार 1981-82 में केवल एक चुनाव अपनी जन्मभूमि गढ़वाल से लड़ा था और इंदिरा गांधी से उनके राजनीतिक टकराव ने गढ़वाल ने उनका पूरा साथ दिया। उसके बाद वह पुनः अपनी राजनीतिक कार्यस्थली इलाहाबाद लौट गये थे। जहां उन्हें फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन ने 1984 के लोकसभा चुनाव में 1.87 लाख से अधिक मतों से पराजित किया। हार के बाद हेमवती नंदन बहुगुणा लोकदल में चले गए और यहीं से उनके राजनीतिक करियर में ढलान आने लगी। वास्तव पी.सी. जोशी के अलावा हेमवती नन्दन बहुगुणा सहित उत्तराखण्ड का कोई भी राष्ट्रीय स्तर का नेता उत्तराखण्ड राज्य का गठन का पक्षधर नहीं रहा।
बहुगुणा जब भी पहाड़ आते थे तो अपनी प्रेस कान्फ्रेंसों में तहसीलों को जिलों और जिलों को कमिश्नरियों में बदल कर प्रशासनिक इकाइयां छोटी करने पर बल देते थे। हम लोग प्रेस कान्फ्रेंसों में जब उनसे पृथक उत्तराखण्ड राज्य की मांग पर सवाल करते थे तो वह झिड़क देते थे। उनकी इस पहाड़ी भूभाग के विकास के लिये अपनी अलग ही सोच थी। वह पहाड़ के लिये छोटी प्रशासनिक इकाइयों के पक्षधर थे। वह कहते थे कि पहाड़ों में छोटी प्रशानिक इकाइयों के गठन से शासन-प्रशासन आम आदमी के करीब आयेगा और विकास कार्यों पर पैनी नजर रखने के साथ ही आम आदमी की समस्याओं को समझ कर उसे दूर करेगा।
Rawat jee
These are all paper as well as Administrative work which can not reflect on the ground resulting migration of hill people and vacating of villages.
Still except Road no fruitful result or work towards employment in Hilly region done by any Politician as done by late S Shri Pant and Tiwari jee in Kumari.