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चिपको आन्दोलन के प्रणेता के जीवन की खुली किताब है- गुदगुदी,


-जयसिंह रावत
ऐसा कोई संवेदनशील मनुष्य नहीं जिसे गुदगुदी न लगती हो। यह ऐसा मर्म स्पर्ष है जो रोते हुओं को भी हंसा देता है। एक गुदगुदी ऐसी भी है जो शरीर के स्वर्श से नहीं बल्कि मन के तारों को छूने से महसूस होती है और इस तरह की गुदगुदी सामान्यतः मधुर स्मृतियों को कुरेदने या स्मरण दिलाने से दिलो दिमाग में पैदा होती है। ऐसी ही एक गुदगुदी महान पर्यावरणवादी पद्मभूषण चण्डी प्रसाद भट्ट की भी

है जो कि किताब के रूप में पाठकों को गुदगुदा रही है।

चिपको नेता की जीवन गाथा आयी बाजार में

दरअसल गुदगुदी चिपको आन्दोलन के प्रणेता, महान पर्यावणविद और पद्मभूषण जैसे कई राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सम्मानों से अलंकृत चण्डी प्रसाद भट्ट की जीवनगाथा पर आधारित एक पुस्तक है जो कि सेतु प्रकाशन की ओर से बाजार में आ गयी है। यह गुदगुदी साधारण से पहाड़ी परिवार में जन्म लेने वाले उस सख्श के जीवन की खुली किताब है जिसने भारत के अंतिम गांव रेणी से अपने साथियों के साथ वृक्षों की रक्षा के लिये चिपको आन्दोलन की मशाल उठायी और सुन्दर लाल बहुगुणा जैसी हस्तियों के साथ मिल कर पर्यावरण चेतना की ज्योति विश्व के कोने-कोने तक पहुंचाई।

टिकट बुकिंग क्लर्क से लेकर पद्मभूषण तक की गाथा

कुल 550 पृष्ठों वाली यह पुस्तक 103 शीर्षकों में चण्डी प्रसाद भट्ट के बाल्यकाल से लेकर अब तक के जीवनकाल की एक खुली किताब है जो कि हर पाठक को गुदगुदाने के लिये काफी है। जीवनगाथा की शुरुआत बचपन से होनी ही थी जिसमें उन्होंने भोजन के अभाव में ननिहाल जाने और कभी दीदी की सुसराल में रहने के जैसे बेहद भावुक अनुभवों को साझा किया है। शायद बहुत ही कम लोगों को मालूम होगा कि भट्ट जी ने आजीविका के लिये अपने कैरियर की शुरुआत गढ़वाल में चलने वाली निजी परिवहन कंपनी जी.एम.ओ. यू. में बुकिंग क्लर्क (बस के टिकट काटने वाला) से की थी जिसे उन्होंने समाजसेवा के जुनून में छोड़ दिया और सर्वोदय अभियान में जुट गये। इस पुस्तक के सम्पादक और उत्तराखण्ड के प्रख्यात पत्रकार रमेश गैरोला ‘पहाड़ी’ ने भी अपने सम्पादकीय में लिखा है कि ‘‘भट्ट जी ने ‘जैसा था, वैसा ही’ की स्थिति में लिखा है। कोई दुराव, छिपाव या अतिरंजना नहीं। प्रत्येक घटना की पुष्टि में प्रमाण और साक्ष्य उपलब्ध है।’’ पहाड़ी जी चिपको जैसे अभियानों में भट्टजी के पांच दशकों के सहयोगी रहे हैं।


प्रकृति के मिजाज से साक्षात्कार का अनुभव किया साझा

इसमें उनके निजी जीवन के अलावा उन्होंने न केवल कश्मीर से कन्याकुमारी तक बल्कि हिमालय से आल्पस तक प्रकृति के मिजाज का साक्षात्कार करने के साथ ही प्रकृति के साथ हो रहे अनावश्यक छेड़छाड़ से स्थानीय समुदाय पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को समझाने के साथ ही खतरे का अलार्म भी बजाया है। पुस्तक में उन्होंने देश विदेश की ज्ञानवर्धक यात्राओं के अनुभव भी साझा किये हैं। उन्होंने इस प्रुस्तक में विभिन्न वैश्विक मानवीय त्रासदियों और खास कर बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन और हिमस्खलन जैसी आपदाओं का उल्लेख और विश्लेषण कर मानवता को जगाने का प्रयास भी किया है। देश में जब भी कोई महाआपदा आयी वहां चण्डी प्रसाद भट्ट पहुंचे और उन्होंने उन आपदाओं के कारणों और बचाव के रास्तों से जनता और सरकार को अवगत कराने का प्रयास किया।


पर्यावरण के साथ ही प्रकृतिपुत्रों की भी चिन्ता

चण्डी प्रसाद भट्ट घोर पर्यावरणवादी अवश्य हैं, लेकिन अति पर्यावरणवादी कभी नहीं रहे। उन्होंने पेड़-पौधे, जीव-जन्तु और प्राकृतिक लैण्डस्केप की चिन्ता अवश्य की मगर स्थानीय समुदाय की मूलभूत आवश्यकताओं और विवेकपूर्ण विकास का समर्थन भी अवश्य किया। भारत के पहले वन आयोग के सदस्य के रूप में उन्होंने आयोग की रिपोर्ट में उन्होंने स्थानीय समुदाय विरोधी अतिवादी सिफारिशों पर अपना डिसेंट नोट (असहमति) भी अवश्य दर्ज कराया और यह असहमति सीधे तत्कालीन प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह के सम्मुख भी प्रकट की। भट्ट जी भारत सरकार द्वारा ग्लेशियरों के पीछे हटने के मामले में गठित पहली हाइ लेवल कमेटी के सदस्य भी रहे जिसमें उन्होंने ग्लोवल के साथ लोकल वार्मिंग की ओर भी विशेषज्ञों और सरकार का ध्यान आकृष्ठ किया।


जीवन के 75 सालों का सफरनामा

अगर आपको चण्डी प्रसाद भट्ट के व्यक्तिगत जीवन के पन्ने पलटने हैं और उनसे प्रेरणा हासिल करनी है तो इस पुस्तक के पृष्ठ 537 से उनके जीवन के 75 सालों के सफर पर एक नजर डाली जा सकती है। इन्हीं कुछ पन्नों में उन्होंने अपनी जीवन के साथ ही आज के विकास और सामाजिक संरचना पर बहुत ही कम शब्दों में अधिकतम् सच्चाई उजागर की है। एक पहाड़ी गांव में जन्म लेकर विश्व पटल पर छाने वाले इस सख्श ने अपनी सफलता में अपने साथियों के योगदान को कभी नहीं बिसराया। उन्होंने गोविन्द सिंह रावत हो या शिशपाल सिंह कुंवर या फिर आनन्द सिंह बिष्ट, अपने सभी साथियों के योगदान का इस पुस्तक में उल्लेख किया है। पुस्तक में भट्टजी ने स्वयं लिखा है कि चिपको आन्दोलन की सफलता के बाद उन्होंने जीवन गाथा लिखने की शुरुआत 1978 से कर दी थी। शेखर पाठक और समीर बनर्जी के सुझाव पर उन्होंने यह कार्य पूरा किया। इसके अधिकांश अंश 2017 में अपने नाती गौरव वशिष्ठ के पास स्टॉकहोम में तथा कुछ हिस्से प्रकाश मैठाणी के पास दिल्ली में लिखे।


सुन्दर लाल बहुगुणा जैसे साथियों को नहीं भूले भट्ट

विश्व विख्यात चिपको आन्दोलन के बारे में प्रमाणिक जानकारी इस पुस्तक में है, जो कि वानिकी शिक्षा और प्रबंध, पर्यावरणविदों और शोधकर्ताओं के लिये बहुत उपयोगी साबित होगी। चिपको आन्दोलन जब विश्व प्रसिद्ध हो गया तो उसके दो पुरोधा चण्डी प्रसाद भट्ट और सुन्दरलाल बहुगुणा को आन्दोलन के दो धु्रव माना जाने लगा। दोनों के बीच प्रतिद्वन्दिता की चर्चाऐं भी हुयीं मगर दोनों महान हस्तियों का आपसी सद्भाव चर्चाओं के कारण धूमिल नहीं हुआ। इस पुस्तक में भी चण्डी प्रसाद भट्ट ने सुन्दर लाल बहुगुणा का उल्लेख सच्चाई और आदर के साथ किया है। चिपको आन्दोलन के संस्थापकों में कामरेड गोविन्द सिंह रावत के साथ ही आनन्द सिंह बिष्ट आदि का भी नाम आता है। धनश्याम सैलानी का योगदान भी अविस्मरणीय है। इस पुस्तक में सभी के योगदान का उल्लेख है। पुस्तक में विश्व विख्यात चिपको आन्दोलन के दुर्लभ चित्र दिये गये हैं।

अशोक बाजपेयी भी हुये गौरवान्वित

पुस्तक का आमुख प्रख्यात कवि अशोक बाजपेयी ने लिखा है। आमुख में उन्होंने लिखा है कि ’’ यह एक गद्य लेखक का गद्य नहीं है पर वह मानवीय सहजता, ऊष्मा और सच्चे मर्म से भरपूरा है। उसमें साहित्य, संकल्प और निष्ठा की नैतिक आभा है जिससे आलोड़ित हुये बिना आप रह नहीं सकते।’’ अशोक बाजपेयी ने यह भी लिखा है कि ‘‘ उनकी यह जीवनगाथा हमें रजा पुस्तक माला के अन्तर्गत प्रकाशित करने के लिये मिली, यह हमारे लिये सौभाग्य और गौरव की बात है।’’

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