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आपदालय बन गये हैं हिमालयी नगर

 

-जयसिंह रावत

व्यास नदी के किनारे बसी युवा जोड़ों की सबसे पसंदीदा नगरी मनाली कभी दैवी आपदा की दृष्टि से सबसे सुरक्षित मानी जाती थी। लेकिन यह धारणा गत 10 जुलाइ को व्यास नदी में आयी बाढ़ ने ध्वस्त कर दी। मनाली ही नहीं आज सिन्धु से लेकर ब्रह्मपुत्र तक हिमालय की सुरम्य गोद में बसे जितने पहाड़ी नगर हैं वे अब दैवी आपदाओं की दृष्टि से सुरक्षित नहीं रह गये हैं। गत 8 जुलाइ 2022 की अमरनाथ की बाढ़ और 16 जून 2013 की केदारनाथ जैसी आपदा कब और कहां आ जाय, कोई नहीं कह सकता है। इस हिमालयी क्षेत्र में भूकंप, भूस्खलन, बादल फटने, बाढ़, हिमस्खलन और जंगल की आग आम आपदाएं हो चुकी हैं। इन आपदाओं में भी सर्वाधिक जनधन हानि त्वरित बाढ़ और भूस्खलन से होती है। हाल ही में इसरो और रिमोट संेसिंग ऐजेंसी ने भूस्खलन की दृष्टि से देश के जिन 147 संवेदनशील जिलों का चिन्हित किया है उनमें 100 से अधिक हिमालयी जिले हैं और इन सभी संवेदनशील जिलों में भी सर्वाधिक संवेदन उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग और टिहरी दर्शाये गये हैं। उस सूची में उत्तराखण्ड के सभी 13 जिले शामिल है।

प्लासी के युद्ध के बाद अंग्रेज जब धीरे-धीरे हिन्दुस्तान में पांव पसार रहे थे तो उन्हें अपने तथा अपनी सेना के लिये जलवायु की दृष्टि से अनुकूल शिमला, मसूरी, नैनीताल, दार्जिलिंग और चकराता जैसे पहाड़ी नगर बसाने पड़े। अंग्रेजों सन् 1864 में शिमला को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया। इससे पहले 1862 में नैनीताल को नार्थ वेस्टर्न प्रोविन्स की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया गया। सन् 1857 की गदर के बाद तो अंग्रेजों ने इन हिल स्टेशनों को अपने तथा अपने परिवारों के लिये सबसे सुरक्षित माना। दरअसल अंग्रेज गर्म मौसम को मलेरिया और हैजा जैसी महामारियों का कारण मानते थे। अंग्रेजों ने हिल स्टेशनों को ऐसे सैनिटोरियम के रूप में विकसित किया गया जहां सैनिकों को आराम करने और बीमारियों से उबरने के लिए भेजा जा सकता था। ये स्थान ब्रिटिश सरकार के लिए प्रशासनिक केंद्र के रूप में भी थे।

आजादी के बाद ये सभी हिल स्टेशन देश विदेश के सैलानियों की सैरगाह और आरामगाह बनने के साथ ही व्यावसायिक केन्द्र के रूप में उभरे जहां बड़े पैमाने पर आसपास की जनसंख्या को आजीविका के लिये आकर्षित हुयी। अंग्रेजों ने इन हिल स्टेशनों को केवल अपनी आबादी और प्रशासनिक जरूरत के लिये बसाया था। लेकिन आजादी के तत्काल बाद ये छोटे कस्बे महानगरों की शक्ल में उभरे। छोटी सी जगहों परं हजारों की संख्या में इमारतें बन गयीं। जनसंख्या का पहाड़ी ढालों पर एक ही जगह पर केन्द्रित होने और स्थान विशेष की धारक क्षमता के चरमरा जाने के दुष्परिणाम का सबसे बड़ा उदाहरण आज हमारे सामने जोशीमठ का है। पचास साल पहले जोशीमठ की जनसंख्या कुछ सेकड़ों में थी जो कि आज 25 हजार तक पहुंच गयी है। इतने लोगों के लिये बनी भारी भरकम बहुमंजिली इमारतों के बोझ और अत्यधिक जनसंख्या द्वारा पैदा किये गये मल जल आदि के जमीन में समाने के कारण जोशीमठ निरन्तर धंस रहा है।

खेती के लिये उपजाऊ मिट्टी एवं रहने के लिये कम ढाल वाली जमीन मिल जाने के कारण पहाड़ों में अधिकांश बस्तियां पुराने सुसुप्त भूस्खलनों पर ही बसी हुयी हैं। इसीलिये पहाड़ी राज्यों का 80 प्रतिशत हिस्सा अस्थिर ढलानों के कारण भूस्खलन की दृष्टि से काफी संवेदनशील है। हिमालयी क्षेत्र में शायद ही कोई ऐसी बरसात गुजरती हो जब भूस्खलन और बाढ़ जैसी आपदाओं में बड़़े पैमाने पर जनहानि न होती हो। हिमालयी नगरों में जोशीमठ अकेला अपदाग्रस्त नहीं है। मसूरी और नौनीताल में अंग्रेजों द्वारा निर्मित सौ साल से भी पुराने भवन जर्जर हो रखे हैं। भूकम्प और अतिवृष्टि से ऐसे सेकड़ों जर्जर भवन कभी भी बड़ी आपदा का कारण बन सकते हैं। नैनीताल में पहला ज्ञात भूस्खलन 1866 में अल्मा पहाड़ी पर हुआ था, और 1879 में उसी स्थान पर एक बड़ा भूस्खलन हुआ था। नैनीताल में सबसे बड़ा भूस्खलन 18सितंबर 1880 को हुआ था, जिसमें 151 लोग मलबे के नीचे दब कर मर गये थे, जिनमें लगभग सभी यूरोपियन ही थे। नैनीताल में जिस कदर आबादी बढ़ी है उससे आपदा का खतरा उतना ही अधिक बढ़ गया है।

जर्नल ऑफ अर्थ सिस्टम साइंस में प्रकाशित वाडिया इंस्टीट्यूट के भूवैज्ञानिकों के एक शोध अध्ययन के अनुसार मसूरी के बाटाघाट, जार्ज एवरेस्ट, केम्प्टी फॉल, खट्टापानी, लाइब्रेरी, गलोगीधार और हाथीपांव आदि भूस्खलन की दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इन क्षेत्रों में खण्डित या दरारों वाली चूनापत्थर की चट्टानें हैं। इनकी दरारों में बरसात में पानी भर जाने के कारण लगभग 60 डिग्री तक की ढलान वाली धरती की सतह धंसने या खिसकने लगती है। इन भूवैज्ञानिकों ने मसूरी के आसपास के 84 वर्ग किमी क्षेत्र के अध्ययन में 15 प्रतिशत क्षेत्र का भूस्खलन की दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील पाया। इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने 29 प्रतिशत क्षेत्र को मध्यम दर्जे का संवेदनशील और 56 प्रतिशत क्षेत्र को न्यूनतम् संवेदनशील दिखाया है।

मसूरी-नैनीताल की तरह शिमला भी अत्यधिक जनसंख्या के बोझ तले दब रहा है। इसरो के भूस्खलन संवेदनशीलता एटलस में इस जिले को 61वें नम्बर पर रखा गया है। भूस्खलन के अलावा यह जिला भूकम्प की संवेदनशीलता की दृष्टि से जोन 5 और 4 में रखा गया है। इसी प्रकार कल्लू-मनाली को भूस्खलन संवेदनशीलता में 57वें और मण्डी को 16 वें स्थान पर रखा गया है। धर्मशाला भी भूस्खलन की दृष्टि से सबसे अधिक खतरे वाले नगरों में से एक है। लगभग हर साल यह शहर बरसात में गंभीर भूस्खलन की चपेट में आ जाता है। यह शहर कांगड़ा जिले का मुख्यालय, धौलाधार पर्वतमाला के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। पश्चिम बंगाल के हिमालयी क्षेत्र दार्जिलिंग की स्थिति भी सन्तोषजनक नहीं है। यह नगर पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण भूस्खलन के गंभीर खतरे की जद में हैं। सिक्किम के दक्षिणी और पश्चिमी जिले भूस्खलन खतरे की रैंकिंग में आठवें और नवें स्थान पर रखे गये हैं।

दरअसल हिमालय का पारितंत्र जितना अधिक संवेदनशील है उतना ही अधिक उस पर मानवीय दबाव बढ़ रहा है जिस कारण पर्यावरणीय सन्तुलन बिगड़ने से इस क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाओं की फ्रीक्वेंसी बढ़ती जा रही है। फरबरी के शीतकाल में धौलीगंगा में बाढ़ आ रही है और जोशीमठ भी बरसात से पहले ही धंस रहा है। इसी प्रकार केदारनाथ के कहीं ऊपर बादल फट रहा है जबकि उस क्षेत्र में बारिश की जगह केवल हिमपात होता है। आसपास के गांवों से जनसंख्या का कुछ सीमित नगरों का केन्द्रित हो जाना समस्या का बढ़ा रहा है।

 

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