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मुआवजा नहीं दे सकते तो अपने वन्यजीवों को ही बांध दो सरकार

-दिनेश शास्त्री-
उत्तराखंड सरकार का वन्यजीवों के हमले में घायल होने वाले लोगों के इलाज के मामले में हालिया आदेश प्रदेशभर में आलोचना का प्रश्न बना हुआ है। प्रदेश के जंगल धधकते रहे, सिस्टम तब हरकत में आया, जब हालात बेकाबू हो गए। वैसे बीती 14 जनवरी त्रियुगीनारायण भ्रमण के दौरान भी देखा गया था कि रुद्रप्रयाग जिले में सोनप्रयाग के सामने मंदाकिनी नदी के पार से कालीमठ के पास रिडकोट तक करीब 25 किमी दूरी तक जंगल धधक रहे थे। तब से अब तक वनाग्नि की 1200 से अधिक घटनाएं हो चुकी हैं और बेशकीमती वन संपदा नष्ट होने के साथ ग्लेशियरों का स्वास्थ्य भी बिगड़ चुका है। पशु पक्षियों की कितनी प्रजातियां इस आग में नष्ट हो गई, वह शोध का विषय है। अल्मोड़ा और चंपावत में जंगलों में आग लगने की घटनाएं आज भी दर्ज हो रही हैं। वन विभाग तब भी नहीं जागा था। वन विभाग द्वारा अपने बूते आग बुझाने की कसरत सफल न हुई तो एनडीआरएफ और वायु सेना की मदद ली गई, तब जाकर जंगलों की आग बुझी।
इसी तरह की मदद वर्ष 2016 में भी तब ली गई थी, जब पूरा पहाड़ गैस चैंबर में तब्दील हो गया था। उस समय प्रदेश में सत्ता का अजीब खेल चल रहा था तो इस बार लोकसभा चुनाव का घमासान था। नतीजा यह हुआ कि जंगलों की आग बेकाबू हुई तो जंगली जानवरों ने आबादी की ओर रुख किया और लोग उनके हमले में या तो जान गंवा बैठे या फिर बुरी तरह जख्मी होने लगे। कुछ लोग इलाज के दौरान मर भी गए। अब उनके आश्रितों को मुआवजा देने की बात आई तो शासन में बैठे बेहद “संवेदनशील” अफसरों के निर्णय का जालबट्टा जख्मों पर ही नमक लगाने वाला प्रतीत हुआ। कौन भूला है कि वन्य जीवों के हमलों के कारण पौड़ी जिले के कई इलाकों में नाइट कर्फ्यू की नौबत भी आई। बच्चों ने स्कूल जाना छोड़ा तो लोगों ने खेतों में जाना बंद किया। इस दौरान कुछ गुलदार मारे गए तो कुछ इतने हिंसक हुए कि हर तीसरे दिन एक बच्चे अथवा वयस्क को मौत की नींद सुलाने लगे। कुछ लोगों ने इलाज के दौरान दम तोड़ा तो वन विभाग ने आश्रितों को मुआवजा देने से यह कह कर इनकार कर दिया कि अगर इलाज आयुष्मान योजना के तहत हुआ है तो मुआवजा नहीं मिलेगा।
यानी एक साथ सरकार की दो योजनाओं का लाभ नहीं दिया जा सकता। शासन में बैठे लोग इस कदर योजना बना सकते हैं, यह सोच कर ही हैरानी होती है। वन विभाग की नई नियमावली में प्रावधान है कि वन्यजीव के हमले में घायल व्यक्ति अगर आयुष्मान कार्ड योजना के तहत इलाज कराता है तो उसे विभाग से किसी भी तरह का मुआवजा नहीं मिलेगा, यदि घायल व्यक्ति की इलाज के दौरान मृत्यु भी हो जाती है तो उसके आश्रित को भी किसी तरह का मुआवजा विभाग की तरफ से नहीं मिलेगा। यानी जनता के दर्द को साफ तौर पर नजरंदाज कर दिया गया, जबकि जंगलों की आग के लिए न तो पीड़ित और न जान गंवाने वाले जिम्मेदार होते हैं। उस आग के लिए क्यों नहीं वन विभाग के भारी भरकम अमले को जिम्मेदार माना जाना चाहिए? एक पतरोल से लेकर वन संरक्षक तक जितने कर्मचारी और अफसर हैं क्या वे सब डेकोरेशन के लिए हैं? आग बुझाने के लिए जब सेना का ही सहारा लेना है तो सवाल यह भी पूछा जा सकता है कि हर साल जो करोड़ों पेड़ कागजों पर लगते हैं, उनके ऑडिट का प्रावधान क्यों नहीं होता और क्यों नहीं जंगलों में उत्तर प्रदेश के जमाने की तरह आग पट्टी बनाई जाती, ताकि एक इलाके की आग दूसरे इलाके तक न फैल सके। सड़कों पर क्रू स्टेशन बनाने से तो आग बुझने से रही, कम से कम अब तक का अनुभव तो यही बता रहा है।
अब वापस आते हैं दोहरा लाभ की बात पर, सरकार! ये वन्य जीवों के हमले बढ़ने की घटनाएं सिस्टम की नाकामी की देन हैं। इस सच को जिस दिन सिस्टम में बैठे लोग समझ जायेंगे, तब शायद इस तरह की भूल नहीं होंगी ।वन विभाग के आदेश का सीधा अर्थ यह है कि अगर कोई नागरिक वन्य जीवों के हमले में घायल हो जाता है तो वह अपने खर्च पर इलाज करे। विडंबना यह है कि इलाज पर बेशक लाखों खर्च हो जाएं, सर्जरी करनी पड़े या महीनों तक अस्पताल में रहना पड़े बिना आयुष्मान योजना का लाभ उठाने पर वन विभाग अधिकतम एक लाख रुपए इलाज के लिए देगा। बाकी आपकी मर्जी। इसी तरह जान गंवानी है और गुलदार के हमले का मुआवजा चाहिए तो आयुष्मान योजना का लाभ उठाने के बारे में सोचें भी नहीं, वरना बेशकीमती जान के बदले मिलने वाले छह लाख रुपए से हाथ धो बैठेंगे। बड़ा विचित्र निर्णय है सरकार !
सिस्टम ने फरमा दिया है कि वन्यजीव संघर्ष की घटनाओं में आयुष्मान कार्ड या मुआवजा दोनों में से एक को चुनना होगा।
आपको याद होगा गढ़वाल के श्रीनगर क्षेत्र के आसपास पिछले कुछ माह से लगातार गुलदार के हमलों की खबरें सामने आती रही हैं। दर्जनों लोगों ने जान गंवाई है और अनेक लोग घायल हुए हैं। अल्मोड़ा जिले में भी इसी तरह की घटना सामने आई तो लोग मुखर हुए। वस्तुत: अल्मोड़ा की घटना के बाद ही इस तरह के तुगलकी फरमान का पता भी लगा। इससे पहले 2012 की नियमावली के तहत वन विभाग वन्यजीव संघर्ष में साधारण, आंशिक या गंभीर रूप से घायल, पूर्ण रूप से अपंग और मृत्यु हो जाने पर भी पीड़ित या मृतक आश्रितों को मुआवजा देने के लिए बाध्य था। नई नियमावली ने सब कुछ बदल दिया है। ये बदलते उत्तराखंड की नई तस्वीर है जहां नागरिक जीवन को आयुष्मान और मुआवजा के विकल्प के बीच धकेल दिया गया है।
अल्मोड़ा की हालिया घटना के बाद प्रदेश भर से जो प्रतिक्रियाएं आई हैं, उनसे वन विभाग की कार्यशैली पर सवाल उठे हैं। आम तौर पर लोग इसे अफसरों की चाल मान रहे हैं, जिन्होंने धोखे से नेताओं से इसे पारित करवा लिया। लोग बताते हैं कि चाहे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी हों या वन मंत्री सुबोध उनियाल, दोनों नेताओं की सोच जनमुखापेक्षी है। इलाज और मुआवजे का यह द्वंद उन अफसरों ने पैदा किया है जिनका उत्तराखंड के सरोकारों से कोई लेना देना नहीं है। इसी आधार पर लोग मान रहे हैं कि अब जबकि मामला सामने आ गया है तो मुख्यमंत्री और वन मंत्री हस्तक्षेप कर आयुष्मान के प्रावधान को खत्म करेंगे। वैसे भी आंगन में खेलते बच्चे को निवाला बनाने की बात हो या खेत में काम करते अथवा घास पानी का इंतजाम करते लोगों पर वन्य जीवों के हमले के जख्मों का मुआवजा चंद रुपयों में नहीं गिना जा सकता, यह जख्म जिंदगीभर न भूलने वाला होता है और इस पीड़ा को वन विभाग के आलीशान ऑफिस में बैठने वाले अफसरान महसूस नहीं कर सकते।
भगवान न करे ऐसा हो किंतु जब कभी वन विभाग के कार्मिकों के परिजन इस तरह की घटनाओं के शिकार बनेंगे तो शायद रातोंरात इस तरह की नियमावली रद्दी की टोकरी में जा सकती है। फिलहाल तो सीएम और वन मंत्री की ओर टकटकी लगी है। आखिर फैसला भी उन्हें ही लेना है। वरना कल से प्रदेश में कहीं इस तरह का आंदोलन शुरू न हो जाए कि वन विभाग अपने वन्य जीवों को जंगल में रखने का प्रबंध करे, वरना वनकर्मियों को आबादी क्षेत्र में रहने नहीं दिया जा सकता।
(लेखक उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार एवं उत्तराखंड हिमालय न्यूज़ पोर्टल के सम्पादकीय सहयोगी हैं. )

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