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भारत हम सब भारतवासियों का है, किसी एक मजहब या जाति का नहीं, देश संविधान से चलेगा, धर्म ग्रंथों से नहीं

-जयसिंह रावत

आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर भारतवासियों के दिलों में देशभक्ति की भावना पैदा करने तथा राष्ट्र निर्माण के लिये अथक प्रयास करने और यहां तक कि आजादी के लिये प्राणोत्सर्ग तक करने वालों के योगदान को याद करने के लिये शुरू किये गये ‘‘हर घर तिरंगा’’ अभियान की भावना को आत्मसात करना तो जरूरी है ही, लेकिन येे अभियान तब तक अधूरा है जब तक कि हम जंगे आजादी के बाद हासिल अपने संविधान की मूल भावना ‘‘हम’’ को आत्मसात और शिरोधार्य नहीं करते। क्योंकि देश संविधान के बगैर नहीं चल सकता। देखा जाय तो हमारे स्वाधीनता सेनानियों ने आजादी के लिये इतनी शहादतें, इतना दमन सहने के साथ इतना लम्बा संघर्ष इसी संविधान के लिये तो किया था।

हमारा संविधान विश्व का सबसे विस्तृत संविधान होने के साथ ही एक आदर्श विधान भी है जिसमें इस राष्ट्र की बुनियाद रखने वालों ने लम्बे और गंभीर मंथन के बाद सभी विकसित और उन्नत लोकतांत्रिक देशों के संविधानों की अच्छी और प्रजा वत्सल बातें ली थीं। कुल 395 अनुच्छेदों, 12 अनुसूचियों और 25 भागों में विभक्त हमारे संविधान का सार या उसकी मूल भावना उसकी प्रस्तावना में निहित है और उस प्रस्तावना का पहला ही शब्द ‘‘हम’’ है। अतः कह सकते हैं कि भारत का शासन विधान ‘‘हम’’ से शुरू होता है और हम का सीधा और सपाट अर्थ भारत के प्रत्येक नागरिक से है चाहे वह किसी धर्म, जाति, भाषा, संस्कृति और क्षेत्र का क्यों न हो।

चिन्ता का विषय यह है कि आज संविधान के उस ‘‘हम’’ को क्षुद्र राजनीति के लिये विखण्डित करने का प्रयास किया जा रहा है। हमारे संविधान के इस बुनियादी शब्द की भावना को जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर संकीर्णताऐं खोखला करने पर तुली हुयी है। अगर हमारे संविधान की इस बुनियाद को खोखला किया गया तो हमारा राष्ट्र ही खोखला हो जायेगा। क्योंकि यही ‘‘हम’’ हमारे राष्ट्र की असली ताकत भी है।

भारत में हिन्दू, इस्लाम, खालसा और इसाइयत समेत कम से कम 7 प्रचलित धर्म हैं, जिनके लोग कम से कम 121 भाषाएं और 300 के करीब प्रमुख बोलियां बोलते हैं। माना जाता है कि भारत के लोग कम से कम 19500 तरह की दूध बोलियां बोलते हैं। देश में लगभग 3 हजार जातियां और 25 हजार से अधिक उपजातियां हैं। सन् 1950 की सूची के अनुसार देश में 1109 अनुसूचित जातियां और लगभग 744 जनजातियां हैं। इन तामाम भाषाभाषियों, जातियांे, उप जातियों और धर्मों के लोगों को संविधान में उल्लिखित ‘‘हम’’ के गुलदस्ते में पिरोया गया है। इन सभी के प्रयासों से हमारा आधुनिक राष्ट्र बना है, जिसकी नींव 15 अगस्त 1947 को पड़ी है। अगर इनमें से कोई सह अस्तित्व की भावना त्याग कर दूसरों पर अपना वर्चस्व कायम करना चाहेगा तो इससे राष्ट्र की एकता ही नहीं बल्कि उसकी बुनियाद भी कच्ची हो जायेगी और इस बिखराव तथा असहिष्णुता के नतीजे हम दुनियां में देख चुके हैं। ताजा उदाहरण हमारे पड़ोस श्रीलंका में साफ नजर आ रहा है।

हमारे संविधान की उद्ेशिका में कहा गया है कि ‘‘हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का संकल्प लेते हैं, जिसमें प्रत्येक नागरिक को न्याय, स्वतंत्रता, समानता और गरिमा सुनिश्चित होगी।’’ हमारे संविधान ने हमें समानता और स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार दिया है तो अपनी पसंद की आस्था और धर्म की स्वतंत्रता भी सुनिश्चित की है। दरअसल दुनियां का सबसे बड़ा संविधान सम्प्रभुता, समाजवाद, पंथ निरपेक्षता और लोकतांत्रिक गणराज्य, चार शब्दों पर टिका हुआ है। इन चार शब्दों को न्याय, स्वतंत्रता और समानता, तीन शब्दों ने सम्पूर्णता देने के साथ ही 1947 में उदित नये भारत राष्ट्र की जन्म कुण्डली तय की है। ये समझिये कि ये चन्द शब्द और उनके निहितार्थ भारत राष्ट्र के ढांचे की ईंटें हैं जिन्हें खिसकाने या छेड़ने की कोशिश से सारा ढांचा चरमरा सकता है। इसलिये राष्ट्र राजधर्म के इस ग्रन्थ को सदैव शिरोधार्य करना तो प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी है ही, लेकिन सबसे अधिक जिम्मेदारी उस राजनीतिक वर्ग की है जो कि शासन में होता है या शासन के लिये प्रयासरत रहता है।

हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि आज संविधान में प्रदत्त न्याय, स्वतंत्रता और समानता भारत के हर नागरिक को सुलभ नहीं है। अगर नागरिकों को ये मूलभूत अधिकार सुलभ नहीं हैं तो इसके लिये हमारा राजनीतिक तंत्र और उसकी नौकरशाही जिम्मेदार है। इन मूलभूत विषयों पर ध्यान केन्द्रित करने के बजाय अगर हमारा राजनीतिक तंत्र ऐसे मुद्दे उठा देता है जिससे लोगों को ध्यान बंट जाय या हट जाय तो वह संविधान की अवज्ञा ही होगी।

हमारे संविधान में कमियां अवश्य रही हैं। कुछ विषयों पर संविधान खामोश भी रहता है। लेकिन इसी संविधान में अपने शुद्धिकरण की व्यवस्था भी है। इसके अनुच्छे 368 के प्रावधानों के तहत 1950 से लेकर अब तक लगभग 125 संशोधन हो चुके हैं। दरअसल यह एक जीवित दस्तावेज है जिसने न केवल भारतीय समाज के विकास को आकार दिया है बल्कि बढ़ते सामाजिक रुझानों और पैटर्न का भी इस पर असर पड़ा है। अगर शासन विधान में कोई विसंगतियां हैं या नागरिकों की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हो रही है तो इसके लिये संविधान को दोष देने के बजाय संविधान को लागू करने वाले जिम्मेदार हैं। संविधान निर्माता डा0 भीमराव अम्बेडकर ने उसी समय कह दिया था कि ‘‘ संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो अगर इस पर काम करने वाले लोग खराब होंगे तो यह खराब होगा और संविधान कितना भी खराब क्यों न हो अगर इसके लिए काम करने वाले लोग अच्छे होंगे तो यह अच्छा होगा।’’  निश्चित रूप से तिरंगा हमारी आन बान और शान का प्रतीक है लेकिन उससे पहले हमारा संविधान है जिसने तिरंगे को अपनाया है। तिरंगा भी किसी एक दल का नहीं बल्कि संविधान में उल्लिखित ‘‘हम’’ का है।

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