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भारत का पहला आम चुनाव: तीन तरह के राज्यों में पांच तरह के चुनाव एक साथ

 

General elections were held in India between 25 October 1951 and 21 February 1952, the first after India attained independence in 1947. Voters elected the 489 members of the first Lok Sabha, the lower house of the Parliament of India.

 

जयसिंह रावत
विज्ञान और प्राद्योगिकी के इस युग में व्यापक अधिकारों और संसाधनों से सुसज्जित तीन सदस्यीय निर्वाचन आयोग द्वारा सम्पन्न कराये जाने वाले चुनावों में कई कमियों के कारण निष्पक्ष तथा स्वतंत्र निर्वाचन के लिये अभी भी बहुत कुछ सुधार किये जाने की आवश्यकता महसूस होती है। लेकिन कल्पना कीजिये कि संसाधनों के अकाल और अनुभव शून्यता के बावजूद एक सदस्यीय निर्वाचन आयोग ने किस तरह 1951-52 में विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक गणराज्य के पहले आम चुनाव को सम्पन्न कराया होगा। यह सचमुच विश्व के लोकतांत्रिक इतिहास की सबसे बड़ी घटना थी। उस समय लोकसभा, राज्यसभा और तीन तरह के 28 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुये थे। राज्य विधानमंडलों में भी 7 राज्यों में विधान परिषदों के चुनाव एक साथ कराये गये। यही नहीं उस समय अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिये अलग से आरक्षित सीटें न हो कर सामान्य सीटों पर इनके लिये आरक्षण होने के कारण कुछ सीटों पर लोकसभा और विधानसभा के लिये दो-दो प्रतिनिधि चुनने थे। राज्य विधानमंडलों तथा संसद के दोनों सदनों के चुनाव के तत्काल बाद निर्वाचन आयोग को राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव भी कराने पड़े। इस चुनाव में पडित जवाहर लाल नेहरू पहले निर्वाचित प्रधानमंत्री और राजेंद्र प्रसाद पहले निर्वाचित राष्ट्रपति बने थे .

 

                             A Scene of First General election in 1951

अत्यधिक जटिल और चुनौतीपूर्ण पहला आम चुनाव

देश के विशाल आकार, विविध जनसंख्या और जटिल सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए, 1951-52 में भारत में पहला आम चुनाव कराना वास्तव में एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य था। उस समय सड़कों के घोर अभाव के कारण सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में मतदान केंद्र स्थापित करना, चुनाव सामग्री पहुंचाना और सुरक्षा सुनिश्चित करना कठिन कार्य था। उस अधिकांश भारतवासी अशिक्षित थे और मतदान की अवधारणा से अपरिचित थे। मतदान प्रक्रिया और लोकतांत्रिक भागीदारी के महत्व को समझाने के लिए व्यापक मतदाता शिक्षा अभियान आवश्यक थे। नये-नये आजाद हुये भारत का 1951-52 में बुनियादी ढाँचा अविकसित था। सीमित परिवहन, संचार और प्रशासनिक सुविधाओं ने राष्ट्रव्यापी चुनाव कराने में महत्वपूर्ण चुनौतियाँ स्वाभाविक ही थीं। भारत की विविध आबादी में विभिन्न भाषाई, सांस्कृतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि के लोग शामिल थे। निष्पक्ष प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने और संभावित संघर्षों के प्रबंधन के लिए सावधानीपूर्वक योजना और कार्यान्वयन की आवश्यकता होती थी। इन चुनौतियों के बावजूद, मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन के नेतृत्व में भारत के निर्वाचन आयोग ने सफलतापूर्वक चुनाव कराया। यह उस समय दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक अभ्यास था, जिसमें 17.3 करोड़ से अधिक लोगों ने भाग लिया था। इस चुनाव को व्यापक रूप से भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जाता है।

महीनों तक चली गणतंत्र की पहली निर्वाचन प्रकृया

संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत 25 जनवरी 1950 को गठित भारत निर्वाचन आयोग के पहले मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुकुमार सेन की नियुक्ति 21 मार्च 1950 को हुयी थी। उनके समक्ष दुनिया के सबसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की बेहद कठिन चुनौतियां थी। इन चुनौतियों के बावजूद, आयोग ने 1951-52 में पहला आम चुनाव सफलतापूर्वक आयोजित किया। उस समय भी जनसंख्या के मामले में भारत दुनियां में चीन के बाद दूसरे नम्बर का देश था। इसलिये जनसंख्या के हिसाब से भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश था। कठिनतम् चनौतियों के बीच निर्वाचन आयोग ने 15 अक्टूबर 1951 को चार चरणों में लोकसभा और तीन तरह की विधानसभाओं के आम चुनाव घोषित किये। चुनाव का पहला चरण 25 अक्टूबर 1951, दूसरा 31 अक्टूबर, तीसरा 6 नवम्बर और चौथे चरण का मतदान 15 नवम्बर 1951 को सम्पन्न हुआ। चुनावों के नतीजे 21 फरवरी 1952 को घोषित किये गये। इस तरह सम्पूर्ण निर्वाचन प्रकृया मार्च 1952 में सम्पन्न हुयी। उस समय भारत की जनसँख्या लगभग 36 करोड़ थी। इसमें लगभग 17.3 करोड़ मतदाताओं (44.99 प्रतिशत) ने भाग लिये। चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय काग्रेस भारी अंतर से विजयी रही। उस समय कुल लोकसभा की 496 में से 489 पर चुनाव हुये जिनमें से नेहरू के नेतृत्व वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को 384, अजय घोष के नेतृत्व वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को 16 तथा जयप्रकाश नारायण की सोशलिस्ट पार्टी को 12 सीटें मिलीं थी।

 

                 The First Chief Election Commissioner of India, Sukumar Sen

सुकुमार सेन थे पहले मुख्य निर्वाचन आयुक्त

भारत के पहले निर्वाचन आयुक्त सुकुमार सेन ने 21 मार्च 1951 को पहले चुनाव के बारे में ऑल इंडिया रेडियो से देश को पहला संबोधन किया था। इस संबोधन में उन्होंने भारतवासियों से निर्वाचन प्रकृया में निडर हो कर स्वतंत्र रूप से भागीदारी निभाने की अपील करने के साथ ही आयोग के समक्ष बेहद कठिन चुनौतियों को भी गिनाया था। इन चुनौतियों में संशाधनों के अभाव के साथ ही पहले परिसीमन की जटिलता का भी उल्लेख किया था। क्योंकि उस समय लोकसभा के साथ ही तीन तरह की विधानसभाओं के चुनाव होने थे और लोकसभा में भी अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिये सीटें अलग से आरक्षित न हो कर इन जातियों की जनसंख्या के आधार पर उन्हीं निर्वाचन क्षेत्रों में दुहरे मतदान की व्यवस्था थी।

 

TWO ARCH RIVALS OF FIRST GENERAL ELECTION IN INDIA : Jai Prakash Narayan greets Nehru for landslide victory in election.

 

लोकसभा की 496 और राज्य सभा की 204 सीटें

स्ंाविधान में लोकसभा के लिये अधिकतम 500 सीटें और उस समय के लिये 496 सीटें तय थीं। संविधान के अनुसार जम्मू-कश्मीर तथा अंडमान निकोबार के सदस्यों का राष्ट्रपति द्वारा मनोनयन होना था और शेष भारत के लिये वयस्क मतदान से संासदों को चुना जाना था। उस समय राज्यसभा की 204 सीटें तय थीं जो कि तीनों तरह के राज्यों से भरी जानीं थीं। राज्यसभा के लिये साहित्य विज्ञान, कला और समाजसेवा के क्षेत्र से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मानोनीत होने थे। 204 सदस्यों में से 190 का चयन राज्यों से समानुपातिक प्रतिनिधित्व ( जम्मू-कश्मीर के अलावा) और 10 सदस्यों का चयन पार्ट-सी के राज्यों से वयस्क मताधिकार से होना था। राष्ट्रपति द्वारा जम्मू-कश्मीर से 4 सदस्यों का मनोनयन होना था।

भारत में तीन तरह के राज्य थे उस समय

पहले आम चुनाव के समय देश में तीन तरह के 28 राज्य थे। इनमें पार्ट-ए के 9 राज्यों में असम, बिहार, बम्बई, मध्य प्रदेश ( पूर्ववर्ती सेंट्रल प्रोविन्सेज), उत्तर प्रदेश (पूर्ववर्ती संयुक्त प्रान्त), पश्चिम बंगाल, मद्रास, उड़ीसा और पंजाब शामिल थे। ये राज्य ब्रिटिश काल में भी गर्वनर के अधीन पूरे प्रान्त हुआ करते थे।

पार्ट-बी श्रेणी के 8 राज्य

इसी तरह पार्ट-बी राज्यों की संख्या 8 थी, जिनमें हैदराबाद, जम्मू-कश्मीर, मध्य प्रदेश, मैसूर, पटियाला एवं पूर्वी पंजाब स्टेट्स यूनियन (पेप्सू), राजस्थान, सौराष्ट्र और त्रावनकोर-कोचीन शामिल थे। ये सब रियासती राज्य थे जिनमें चुनाव के बाद राज्य प्रमुख, कैबिनेट और विधायक बनने थे। इन पार्ट-बी राज्यों में से हैदराबाद, जम्मू-कश्मीर, पेप्सू और राजस्थान में कोई विधायिका नहीं थी। जम्मू-कश्मीर की विशेष परिस्थिति के अलावा बाकी में चुनाव के बाद लोकतांत्रिक प्रकृया शुरू होनी थी।

पार्ट-सी में दिल्ली समेत 11 राज्य

पार्ट-सी के 11 राज्य सीधे भारत सरकार द्वारा प्रशासित थे। इन्हें केन्द्र शासित के बजाय पार्ट-सी राज्य कहा जाता था। इनमें अजमेर, भोपाल, बिलासपुर, कुर्ग, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, कुच्छ या कछ, मणिपुर,त्रिपुरा, विन्ध्य प्रदेश और अंडमान निकोबार द्वीप समूह शामिल थे।
7 राज्यों में विधान परिषदों के भी हुये चुनाव

लोकसभा के साथ ही अलग-अलग तरह के राज्यों के चुनाव कराना भी एक जटिल चुनौती थी। उस समय 7 राज्यों में द्विसदनीय विधानमंडल थे। विधानसभा के साथ ही विधान परिषदों के चुनाव भी कराये जाने थे। ऐसे राज्यों में बिहार, बम्बई, मद्रास, पंजाब, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और मैसूर राज्य शामिल थे। इनमें बिहार, बम्बई, मद्रास, और उत्तर प्रदेश की विधान परिषदों में 72 सीटें, पश्चिम बंगाल की विधान परिषद में 51 और पंजाब तथा मैसूर की विधान परिषदों में 40 सीटें थीं। इन परिषदों के चुनाव आंशिक रूप से निर्वाचन और मनोनयन से होने थे।

त्रुटिपूर्ण परिसीमन ने बढ़ाई जटिलता

पहले आम चुनाव के परिसमीन में लोकसभा का एक निर्वाचन क्षेत्र अधिकतम् 7.50 लाख और न्यूनतम ्5 लाख की जनसंख्या पर तय हुआ था। लेकिन जनसंख्या का यह मानक पार्ट-सी के राज्यों पर लागू नहीं था। क्योंकि ये राज्य छोटे और कम जनसंख्या वाले थे। उस समय उत्तर प्रदेश विधान सभा कीें 430 सीटें और लोकसभा की 86 सीटें थीं। इसी प्रकार मद्रास विधानसभा की 375 सीटें और लोकसभा की 75 सीटें तय थीं। उस समय का परिसीमन भी एक समान नहीं था। उत्तर प्रदेश में एक लोकसभा सदस्य पांच गुना विधायक संख्या पर तय था। जबकि बिहार के 6 विधायकों पर एक सांसद था। बम्बई, उड़ीसा, पंजाब, पश्चिम बंगाल और हैदराबाद राज्यों में 7 विधायकों पर एक सांसद और मध्य प्रदेश, राजस्थान, में 8 विधायकों पर एक संासद तय था। इसी प्रकार असम, मैसूर त्रावनकोर कोची में 9 विधायकों पर एक सांसद सौराष्ट्र में 10 विधायकों पर तथा पेप्पसू में 12 विधायकों पर एक सांसद की सीट तय थी।

सामान्य सीटों पर आरक्षित उम्म्ीदवार भी चुने गये

शुरू में राज्यों की विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ होने के साथ ही उस समय अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिये आरक्षित सीटें अलग न हो कर सामान्य सीटों के साथ ही आरक्षण की व्यवस्था 10 सालों के लिये थी। इस तरह पार्ट ए और बी श्रेणी के राज्यों में कुछ सीटों पर सामान्य श्रेणी के प्रत्याशियों के साथ ही आरक्षण वाले प्रत्याशी भी मैदान में थे और एक ही सीट पर मतदाताओं को दो सांसदों का चयन करना था। लेकिन पार्ट सी के राज्यों में यह व्यवस्था नहीं थी।

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