अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस – बड़ी भाषाएं निगल रही हैं हमारी मातृ भाषाओं को
-जयसिंह रावत
भाषा संस्कृति का अभिन्न अंग होन के साथ ही सामाजिक विकास की सतत धारा से जुड़ी होती है। बोलने वालों के कम होते जाने के कारण भारत में भाषायी विविधता खतरे में है। लोग अपनी मातृ भाषाओं को छोड़ कर अन्य प्रमुख भाषाओं को अपना रहे हैं। जनजातियां हमारी सांस्कृतिक विविधता के साथ ही भाषायी विविधता की संवाहक भी हैं। लेकिन अपनी बोली भाषा के प्रति हीन भावना के कारण उनकी भाषायी विविधता का भी ह्रास हो रहा है। उदाहरणार्थ अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में 7000 साल के इतिहास के साथ ‘‘बो’’ भाषा की अंतिम वक्ता की मृत्यु होने पर वह विलुप्त हो गई। उत्तर पूर्व की मुख्य जनजातियों में कुकी, आदी, निसी, अंगामी, भूटिया और गारो शामिल हैं। इन 7 जनजातियों की भी लगभग 220 उपजातियां हैं और उन उपजातियों की उतनी ही बोली-भाषाएं हैं। इनमें त्रिपुरा में चौमाल नाम की बोली या भाषा को बोलने वाले केवल 5 लोग ही कुछ वर्ष पूर्व तक बचे हुए थे। भाषाओं की सबसे खतरनाक स्थिति अण्डमान-निकोबार की है जहां जरावा, ग्रेट अण्डमानी, शोम्पेन, ओन्गे और सेंटेनलीज जनजातियों की जनसंख्या 500 से भी बहुत कम है। इस समस्या का समाधान सामाजिक स्तर पर किए जाने की आवश्यकता है जिसमें समुदायों को भाषा विविधता के संरक्षण में शामिल होना होगा जो हमारी सांस्कृतिक संपदा का एक अंग हैं।
विश्व की 2500 भाषाएं संकट में
यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार सन् 2000 तक विश्व में लगभग 7000 भाषाएं थीं, जिनमें से लगभग 2500 भाषाएं संकटापन्न थीं। ऐसी आशंका है कि सन् 2050 तक लगभग 90 प्रतिशत भाषाएं लुप्त हो जाएंगी। भारत में 1961 की जनगणना में 1652 भाषाएं दर्ज हुई थीं। लेकिन जब 1971 की जनगणना में 10 हजार से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं को दर्ज न करने का नियम बना तो उस गणना में देश में केवल 108 भाषाएं ही दर्ज हो पाईं। वर्ष 2011 की जनगणना में 10 हजार से अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली 121 भाषाएं ही दर्ज हुई है, जिनमें से 22 भाषाएं संविधान की आठवीं अनुसूची के अन्तर्गत दर्ज हैं। जिनका प्रयोग 96.71 प्रतिशत आबादी ही करती है। केंद्र सरकार के इन प्रयासों के बावजूद, अल्पसंख्यक भाषाएं बहुत से कारणों से अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं।
भाषाओं को बोलने वाले ही घट रहे हैं
वर्ष 2011 की भारत की जनगणना के आकड़ों पर ही गौर किया जाए तो उसमें कुल 19,569 बोलियां और भाषाएं दर्ज हुई हैं, जिनके बोलने वाले 121 करोड़ बताए गए हैं। इनमें भी 121 भाषाएं 10 हजार से अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली थीं। लेकिन चिंता की बात है कि हमारे देश की 10 भाषाएं ऐसी हैं जिनको बोलने वाले 100 से भी कम लोग बचे हैं। वहीं 81 भारतीय भाषाएं संवेदनशील की श्रेणी में रखी गई हैं। जिनमें मणिपुरी, बोडो, गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी, लद्दाखी, मिजो, शेरपा और स्पिति शामिल हैं। दुनिया की संकटापन्न भाषाओं के यूनेस्को एटलस के ऑनलाइन चौप्टर के अनुसार भारत की 197 भाषाएं ऐसी हैं जो असुरक्षित, लुप्तप्राय या विलुप्त हो चुकी हैं। विलुप्ति की कगार पर बैठी भाषाओं में अहोम, एंड्रो, रंगकस, सेंगमई, तोलछा आदि शामिल हैं। इनमें रंगकस, तोलछा आदि भाषाएं हिमालयी क्षेत्र में बोली जाती हैं।
भारत में 179 भाषाओं और 544 बोलियों की पहचान की गई थी
औपनिवेशिक शासन के दौरान, पहली बार जॉर्ज ए ग्रियर्सन द्वारा 1894 से 1928 के दौरान भाषाई सर्वेक्षण कराया गया था जिसमें 179 भाषाओं और 544 बोलियों की पहचान की गई थी। प्रशिक्षित भाषाविदों कर्मियों की कमी के कारण इस सर्वेक्षण में कई खामियां भी थीं। स्वतंत्रता के बाद, मैसूर स्थित केन्द्रीय भारतीय भाषा संस्थान (सीआईआईएल) को सूक्षमता के साथ भाषाओं के सर्वेक्षण का कार्य सौंपा गया था। हालांकि यह कार्य अभी भी अधूरा है। 1991 में भारत की जनगणना में ‘अलग व्याकरण की संरचना के साथ 1576 सूचीबद्ध मातृभाषाएँ और 1796 भाषिक विविधता को अन्य मातृभाषाओं के रूप में वर्गीकृत किया गया है। 1956 में भारत में राज्यों के पुनर्गठन में भाषाई सीमाओं का अपना महत्व था। तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भाषायी विशेषताओं के आधार पर राज्यों के गठन और एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
भाषाओं के प्रति सजग थे संविधान निर्माता
संयुक्त राष्ट्र के द्वारा (21 फरवरी) को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस घोषित करने से पूर्व ही भारतीय संविधान के संस्थापकों ने मातृभाषाओं में शिक्षण से बच्चे को अपनी पूरी क्षमता के साथ सक्षम बनाने और विकसित करने को शीर्ष प्राथमिकता दी हैं। यह अवधारणा संयुक्त राष्ट्र के विश्व मातृभाषा दिवस 2017 के विषय के साथ पूरी तरह से साम्यता रखती है जिसके अंतर्गत शिक्षा, प्रशासनिक व्यवस्था, सांस्कृतिक अभिव्यक्ति और साइबर स्पेस में स्वीकार किये जाने के लिए बहुभाषी शिक्षा की क्षमता विकसित करना आवश्यक है।
भाषायी विविधता में दुनिया के चन्द देशों में से एक है भारत
भारत दुनिया के उन देशों में से एक है जहां भाषाओं में विविधता की विरासत है। भारत के संविधान ने 22 आधिकारिक भाषाओं को मान्यता दी है। बहुभाषावाद भारत में जीवन का मार्ग है क्योंकि देश के विभिन्न भागों में लोग अपने जन्म से ही एक से अधिक भाषा बोलते हैं और अपने जीवनकाल के दौरान अतिरिक्त भाषाओं को सीखते हैं। संविधान के द्वारा मान्यता प्राप्त बाईस भाषाओं में असमिया, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिन्दी, कश्मीरी, कन्नड़, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगू और उर्दू को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है। इनमें से तीनों भाषाओं संस्कृत, तमिल और कन्नड़ को भारत सरकार द्वारा विशेष दर्जा और श्रेष्ठ प्राचीन भाषा के रूप में मान्यता दी गई है। इन श्रेष्ठ प्राचीन भाषाओं का 1000 वर्ष से अधिक का लिखित और मौखिक इतिहास है।