प्रीतम भरतवाण की समधन फाइनली आ ही गई जड़वान में
–दिनेश शास्त्री–
उत्तराखंड के लोक गीत, संगीत और नृत्य में नए नए प्रयोग लगातार होते आ रहे हैं। निश्चित ही इससे लोक की सम्पदा में लगातार वृद्धि भी हो रही है। आज जबकि सोशल मीडिया के दौर में काफी कुछ आसान सा हो गया है, ऐसे में बड़े रचनाकारों के सामने चुनौतियां भी बड़ी हैं। वे समाज में अग्रणी पंक्ति में बने रहने के लिए सतही और हल्का फुल्का सृजन नहीं कर सकते। उन्हें बुलंदियों को बरकरार रखना होता है। यह दबाव निसंदेह उनसे उच्चता की स्वाभाविक अपेक्षा करता है।
हम बात कर रहे हैं प्रीतम भरतवाण के नए गीत की। मूलत: देखा जाए तो लोक की यह सामान्य सी परिघटना है लेकिन देश काल और परिस्थितियों के मद्देनजर यह अपने समय का दस्तावेज है।
आजकल अपना पृथक राज्य बन जाने के बावजूद बेटे बहू का अपने बच्चों संग परदेश में रहना, कभी कभार माता पिता के पास गांव आना एक सामान्य सी बात है। वैसे पहाड़ से तो रोजी रोटी के लिए पहले से परदेश जाने की मजबूरी रही है, लेकिन परिवार गांव में ही रहता था। चाहे फौजी हो या कोई सरकारी या निजी सेवक।
साल छह महीने में गांव लौट आता था। आज परिस्थितियां बदल गई हैं। बेटे बहू बच्चों को पढ़ाने के नाम पर परदेश में हैं। अगर ऐसे में वे लौकिक संस्कार के बहाने ही गांव आ जाते हैं तो घर में रह रहे वृद्ध माता पिता का उल्लास देखते ही बनता है। इसी भावभूमि पर प्रीतम ने नया गीत परोसा है जड़वान। पोते का चूड़ाकर्म संस्कार हो और उसकी नानी उपस्थित न हो तो बात अधूरी रह जाती है। नानी द्वारा नाती को धगुली पहनाने का अपना महत्व होता है, सो प्रीतम का नायक भी समधन को बुलाने जाता है। समधन की बहुत सारी मजबूरियां हैं। भैंस ब्याहने को है, इस कारण वह जाने में लाचार है। हालांकि वह इस उत्सव का साक्षी बनने की स्वाभाविक अपेक्षा रखती है। उसका पति ठेकेदार है और बाहर रहना उसकी दिनचर्या है। समधी बहुत मान मनौव्वल करता है तो समधन भी अपनी देवरानी के पास भैंस की व्यवस्था कर नाती के चूड़ा संस्कार में पहुंच कर हर्षित होती है। इसी कथ्य पर रचा बसा यह गीत उत्तराखंड के लोक जीवन की वर्तमान परिस्थिति को दर्शाता है। प्रीतम निसंदेह लोकरंजन करने के साथ शानदार प्रस्तुतिकरण में सफल रहे हैं। इसके लिए वह साधुवाद के पात्र हैं।
प्रीतम के जड़वान गीत में एक समधी और समधन के वार्तालाप को बहुत आत्मीयता और संजीदगी के साथ दर्शाया गया है। प्रीतम भरतवाण ने अपने खूबसूरत कंठ से गीत को जिन शब्दों में पिरोया है, वह लोक की सहज अभिव्यक्ति है। रिश्तों में आत्मीयता, गहनता और लावण्य उत्तराखंड के लोकमानस की विशेषता है। उसी विशेषता को इस गीत में स्वाभाविक अंदाज में परोस कर प्रीतम ने अपने अंदाज में अपने लोक की अभिव्यक्ति दी है। गीत निसंदेह कर्णप्रिय है तो फिल्मांकन भी बेहतर है। अभिनय की जहां तक बात है, समधी का किरदार मुकेश घनसेला और समधनी का किरदार शिवानी भंडारी ने बेहद संजीदगी के साथ निभाया है। हालांकि एकाध स्थान पर एक दो रीटेक की जरूरत महसूस होती है। किंतु यह विमर्श का विषय नहीं हो सकता। हर सिनेमेटोग्राफर का अपना दृष्टिकोण होता है और हर कोई अपने स्तर से बेस्ट देने की कोशिश करता है। इस दृष्टि से भी गीत का फिल्मांकन सफल है। और सौ की नौ यह है कि गीत की लोकप्रियता अपने शिखर को छू रही है। मात्र दो सप्ताह में सात लाख से अधिक लोगों द्वारा देखा जाना गीत की लोकप्रियता का प्रमाण है। इससे बेहतर पैमाना क्या होता है?