आपदा/दुर्घटना

पहाड़ो में भू-स्खलन

By-Piyush Rautela

संता – भाई, हिमांचल हो या फिर उत्तराखण्ड, इस साल तो बरसात ने हर तरफ आफत मचा रखी हैं।

बंता – सो तो हैं, नुकसान कुछ ज्यादा ही हो गया हैं।

पर वैसे देखा जाये तो बरसात में पहाड़ी ढाल पर मलबे का खिसकना या भू-स्खलन का होना एक आम बात हैं, और इसमें कुछ भी असामान्य नहीं हैं।

संता – मतलब कि बरसात में पहाडों में कहीं भी भू-स्खलन हो सकता हैं?

बंता – अब ऐसा तो मैंने कहा नहीं, और फिर भू-स्खलन पहाड़ो में कहीं भी नहीं होता हैं।

संता – तो फिर कहाँ होता हैं तुम्हारा ये भू-स्खलन?

बंता – चट्टानों का टूटना व उनका क्षरण –

यह सब प्रकृति द्वारा हमेशा से निरन्तरता में किया जाने वाला काम हैं और इससे केवल नुकसान ही नहीं होता हैं। पहाड़ो में खेती-बाड़ी के लिये मिट्टी ज्यादातर स्थितियों में भू-स्खलन के कारण ही मिल पाती हैं।

अब यह बात और हैं की कुछ स्थानों पर यह क्षरण अपेक्षाकृत कुछ अधिक ही तेजी से होता हैं।

संता – कहीं धीमी तो कही तेजी से, ऐसा क्यों ?

बंता – वैसे तो चट्टानों का टूटना या क्षरण होना मुख्यतः चट्टानों में अवस्थित कमजोर सतहों व ढाल के बीच के कोणीय रिश्तो पर निर्भर करता हैं।

संता – रिश्ते वह भी कोणीय,  क्या बात है।

बंता – चट्टानों में अवस्थित कमजोर सतहें व ढाल, बस इन दोनों का झुकाव और एक-दूसरे के साथ सम्बन्ध।

वैसे किसी भू-वैज्ञानिक से बात करोगे तो झुकाव मत कहना – यह लोग Dip और Slope कहते हैं – वैसे खेल इन्ही को समझने व इनके बीच के रिश्तो के विश्लेषण का हैं।

ठीक से कर लिया तो भू-वैज्ञानिक, वरना तो परामर्शदाता जिनसे हम रोज दो- चार हो ही रहें हैं।

संता – इन रिश्तो के बारे में कुछ कह रहें थे न तुम?

बंता–   भाई मेरे, चट्टानों में प्राकृतिक रूप से होने वाला विखंडन या टूट-फूट मुख्यतः चट्टानों में अवस्थित कमजोर सतहों व ढाल; दोनों की दशा व दिशा के द्वारा निर्धारित होता है।

यदि दोनों एक ही दिशा में झुके हो,

और कमजोर सतहों का झुकाव ढाल के परिमाण से कम हो,

तो ऐसी स्थितियों में चट्टानों के टूटने व विखंडित होने तथा मलबा उत्पन्न होने की सम्भावना बढ़ जाती हैं।

संता – मतलब कि भू-स्खलन चट्टानों व ढाल के बीच के रिश्तो के अनुकूल होने पर ही होता हैं ?

बंता –  भू-स्खलन नहीं भाई।

यहाँ बात चट्टानों के आसानी से विखंडित होने की हो रही हैं, और ऐसे स्थानों पर अपेक्षाकृत अधिक मलबा उत्पन्न होता हैं।

संता – मलबा ही तो नीचे सरक कर भू-स्खलन का रूप लेता हैं?

बंता – वो तो ठीक हैं, पर चट्टानों के टूटने से उत्पन्न मलबा एकदम से तो ढाल पर सरकना आरम्भ नहीं करता हैं ना ?

और फिर निरन्तरता में हवा व पानी के द्वारा किये जाने वाले क्षरण के कारण यह मलबा पहाड़ी ढाल पर एक विशिष्ट कोण पर आ कर स्थिर व संतुलित भी तो हो जाता हैं। इस कोण को हमारे भू- वैज्ञानिक Angle of Repose कहते हैं।

संता – तो फिर ये मलबा नीचे कब आता हैं?

बंता – अब बिना किसी कारण मलबे के नीचे आ जाने से तो न्यूटन के गति के पहले सिद्धान्त की अवहेलना हो जायेगी।

संता – मतलब?

बंता – न्यूटन का सिद्धान्त तो यही कहता हैं की बल लगाये बिना स्थिति में परिवर्तन सम्भव नहीं हैं।

अतः भू-स्खलन होने के लिये किसी बाहरी कारक या बल का होना जरूरी हैं।

संता – बाहरी कारक, मतलब?

बंता – भूकम्प के झटके ढाल पर पड़े असंतुलित मलबे को नीचे सरकने में मदद कर सकते हैं।

या फिर वर्षा या पानी की उपस्थिति के कारण ढाल की दिशा में लग रहे बलों का परिमाण बढ़ सकता हैं व घर्षण या Friction कम हो सकता हैं।

या फिर नदी- नालो के द्वारा किये जाने वाले कटाव के कारण पहाड़ी ढाल पर अवस्थित मलबे पर लगने वाले बलों का संतुलन बिगड़ सकता हैं – मलबे को असंतुलित करने वाले बलो का परिमाण बढ़ सकता हैं।

संता – और विकास कार्यो का क्या?

पर्यावरणविद हो या फिर आम आदमी, आज हिमांचल व  उत्तराखण्ड में हुवे नुकसान के लिये सभी विकास कार्यो को ही दोषी बता रहे हैं।

बंता – दोष का तो पता नहीं भाई, पर काम छोटा हो या बड़ा – उसके लिये कुछ न कुछ समतल जमीन तो चाहिये और पहाड़ो में सारी परेशानी विकास के लिये जरूरी इसी समतल जमीन से जुड़ी हैं।

संता – मतलब?

बंता – अब समतल जमीन के लिये पहाड़ो में हमें ढाल को काटना पड़ता हैं, और इससे ढाल का परिमाण बदलता हैं।

संता – तो क्या?

बंता – इससे सबसे पहले ढाल पर स्थिर मलबे का Angle of Repose बिगड़ता हैं, जिससे ढाल पर स्थित यह मलबा अस्थिर हो जाता हैं और उसके नीचे की ओर सरकने की सम्भावना बढ़ जाती हैं।

संता – बस इतना ही?

बंता – फिर ढाल के कटान से कई बार चट्टानों की कमजोर सतहों व ढाल के बीच के कोणीय रिश्ते भी बदल जाते हैं – ढाल की दिशा में पर ढाल से अधिक परिमाण पर झुकी कमजोर सतहों का झुकाव (Dip) कटान के बाद ढाल के झुकाव (Slope) से कम हो सकता हैं, और इससे भू-स्खलन की सम्भावना बढ़ सकती हैं।

संता – मतलब कि कटान करने से पहले भू-वैज्ञानिको  से सलाह ली जानी चाहिये।

बंता – सो तो है।

पर साथ ही समतल की गयी सतह से ज्यादा पानी जमीन के अन्दर जाता हैं, और पानी की उपस्थिति भू-स्खलन की सम्भावना बढाती हैं।

संता – और कटान में उत्पन्न होने वाले मलबे का क्या, जिसे हम ढाल पर यों ही लुढ़का देते हैं?

बंता – मलबे को ठीक से निस्तारित न करने से ढाल पर पेड़-पौधों व जल स्त्रोतों को तो नुकसान होता ही है,  इससे हमारे जलाशयों की उत्पादक क्षमता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं।

संता – तो इसका मतलब हुवा कि पहाड़ो में विकास कार्य करते समय काटे गये ढाल के स्थिरीकरण, समतल सतह से पानी के निस्तारण, व मलबे के निस्तारण की व्यवस्था जरूरी हैं।

बंता – इस सब से ज्यादा जरूरी यह हैं कि कोई भी विकास कार्य करने से पहले क्षेत्र का गहन भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण करवाया जाये, और संवेदनशील इलाको को बेवजह न छेड़ा जाये क्योकि एक बार भू-स्खलन आरम्भ हो जाने के बाद उसका उपचार सरल नहीं है।

(The post पहाड़ो में भू-स्खलन  appeared first on Risk Prevention Mitigation and Management Forum.)

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