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एक लाख के पिल्ले का मुंह चाटते हुए !

–सुशील उपाध्याय

जिनके पास वैभव है, ताकत है, वे इन्हें भोग सकते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं दिखती, लेकिन जब पैसे और ताकत का अश्लील प्रदर्शन सोशल मीडिया तक पहुंच जाए तो सवाल उठते ही हैं और उठने भी चाहिएं। उदाहरण ढूंढने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है और न ही किसी खास समुदाय या वर्ग को देखने की जरूरत है। ये कहीं भी मिल सकते हैं और अनपढ़ से लेकर विद्वान-श्रेणी के पढ़े-लिखे तक हो सकते हैं। कम जागरूक आदमी को अनदेखा किया जा सकता है क्योंकि वो अपनी अस्मिता की तलाश पैसे और ताकत के प्रदर्शन में करता है, लेकिन जब स्वानामधारी प्रोफेसर, विद्वान शिक्षक, कुलपति, अधिपति तक इस कुत्ता-दौड़ में शामिल हो जाएं तो लगता है कि गलत लोग ‘नोबेल प्रोफेशन‘ में आ गए हैं। और वे टांग उठाकर अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने के इच्छुक हैं।

मेरी टिप्पणी किसी डाह से उपजी हुई नहीं है, और न ही मैं किसी लाइलाज कुंठा का शिकार हूं। मेरी चिंता उन छात्र-छात्राओं के साथ जुड़ी हुई है जो तुलनात्मक रूप से गरीब पृष्ठभूमि से आते हैं और अपने प्रोफेसरों को रोल-माडल मानकर जिंदगी की जंग में आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं। ये सवाल बेमानी है कि किसी शिक्षक या प्रोफेसर को कैसा होना चाहिए, लेकिन ये सवाल वाजिब है कि किसी प्रोफेसर को कैसा नहीं होना, दिखना चाहिए। ये उम्मीद हमेशा की जाएगी कि कोई प्रोफेसर खुद को केवल ज्ञान तक सीमित नहीं रखेगा, बल्कि चेतना के उस स्तर पर लेकर जाएगा जहां 50 हजार की साड़ी, थ्री-पीस सूट या 20 लाख की कार उसकी हैसियत का निर्धारण नहीं करेगी। और अगर बड़े शहर में बीघा भर जमीन पर बने घर, 20-30 लाख की कार, लाख रुपसे कीमत के झाड़-फानूस से ही प्रोफेसर की हैसियत का निर्धारण हो तो लानत है ऐसी हैसियत पर।

यह सच है कि समृद्धि अपने साथ कई तरह की चुनौतियां लेकर आती है। खासतौर से उन लोगों के मामले में जो आर्थिक रूप से गरीब पृष्ठभूति से उठकर आते हैं। ऐसे लोगों में दो तरह का व्यवहार साफतौर पर देखा जा सकता है। पहली श्रेणी में वे हैं जो संपन्नता का अश्लील प्रदर्शन करने लगते हैं, भले ही ये संपन्नता होम लोन वाले घर और बैंक ओवर ड्राफ्ट वाले कर्ज से चमक रही हो। दूसरी श्रेणी उन लोगों की है जो संपन्नता आने के बावजूद गरीबी के भूत से छुटकारा नहीं पा सकते। ये वे हैं जो दो-ढाई लाख की सेलरी के बावजूद सालों पुराने ढंग की जिंदगी जी रहे होते हैं। यहां सही-गलत की बजाय एक संतुलन की जरूरत है। अति बुरी है, चाहे वह संपदा के प्रदर्शन की हो या गरीबी की लत की हो।

सवाल ये भी है कि शिक्षक से ही संतुलन की उम्मीद क्यों की जाए! वो इसलिए क्योंकि शिक्षक, और उनमें भी युवाओं को पढ़ाने वाले प्रोफेसर जिस स्तर पर नई पीढ़ी के संपर्क में आते हैं, वैसा किसी अन्य प्रोफेशन में संभव नहीं है। और संभव हो भी जाए तो उस स्तर का विश्वास का रिश्ता कहीं देखने को नहीं मिलेगा जो सामान्य तौर पर स्टूडेंट और प्रोफेसर के बीच में बनता है। एक बार ये रिश्ता मजबूत हो जाए तो युवा लड़का-लड़की एगबारगी अपने मां-बाप की बात टाल सकते हैं, लेकिन प्रोफेसर की बात टालने से पहले सोचेंगे जरूर। एक बात और, यदि कोई प्रोफेसर इस बात को महसूस नहीं कर पा रहा है कि उसने जो कुछ हासिल किया है, वो सब समाज (इसे सोसायटी के साथ-साथ सिस्टम भी कह सकते हैं।) ने ही दिया है। और जो कुछ समाज ने दिया है तो उसका भौंड़ा प्रदर्शन क्यों!

चूंकि भारत जैसे उदार और लोकतांत्रिक देश में सरकारी तंत्र से ये उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह सांस्थानिक तौर पर लोगों को बाध्य करे कि उन्होंने जो कुछ समाज और व्यवस्था से हासिल किया है, वे उसे लौटाना भी सुनिश्चित करें। यहां चतुर, चालाक और हरफंदी लोग खूब कमा सकते हैं और उसमें किसी तरह की हिस्सेदारी से हाथ खड़े कर सकते हैं। लेकिन, इसके साथ आप समाजवादी देशों की ‘काॅमन प्राॅस्पैरिटी’ की नीति को जोड़ दीजिए तो अच्छे-भले लोगों को पसीने आ जाएंगे। तब हम और आप अपनी कथित समृद्धि को उजागर करने से पहले चार बार सोचेंगे। अभी हाल ही में चीन ने ‘काॅमन प्राॅस्पैरिटी प्रोग्राम’ लागू किया है। इसके जरिये अति समृद्ध लोगों की संपदा को एक व्यापक कार्यक्रम के जरिये आम लोगों के हित में खर्च किया जाएगा।

इसी नीति के तहत उद्योगपति अली बाबा कंपनी के मालिक जैक मा पर सरकार का डंडा चल चुका है। इन पर 20 हजार करोड़ से ज्यादा का जुर्माना भी लग चुका है। (कुछ लोगों के दिमाग में अडाणी, अंबानी का नाम आ गया होगा, जिनके पास इतनी संपत्ति है कि देश के सर्वाधिक गरीब पांच करोड़ परिवारों को बांट दे तो हर परिवार साल भर में लखपति हो जाएगा! यहां बांटने से मतलब है, उनके रोजगार, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर खर्च करना।) चीन ने तय किया है कि अगले 15 साल के भीतर सभी सार्वजनिक सुविधाएं सभी लोगों को समान रूप से उपलब्ध होंगी। यानि स्कूल से लेकर अस्पताल आदि समान स्तर पर सभी की पहुंच में होंगे। ऐसा नहीं होगा कि कोई ईलाज के लिए अमेरिका जाना अफोर्ड कर रहा है और किसी को जिला अस्पताल भी नसीब नहीं है।

वहां इसी साल प्राइवेट स्कूलिंग और कोचिंग संस्थानों को समेट दिया है। इसके बाद टेकएजु (बायजूज की तरह की चीनी कंपनी) घुटनों पर आ गई। चीन में नीतिगत तौर पर उन लोगों को ढूंढा जा रहा है जो लाखों रूपये के सूट पहन रहे हैं, करोड़ों की कार चला रहा है, बंगले खरीद रहे हैं और सोसायटी को कुछ भी नहीं लौटा रहे हैं। न ही अपनी कंपनी के लाभ को कर्मचारियों के बीच बांट रहे हैं। (भारत में दिग्गज कंपनियों के लाभ को कर्मचारियों में बांटने की बात सोचना भी गुनाह जैसा है। इस बात पर सरकार के अलावा पूंजीवादी मिजाज के लोग भी नाराज हो जाते हैं!) वैसे, हमारी खुशी इसी बात में है कि देश की 99 फीसद संपदा एक फीसद लोगों के पास रहे और एक फीसद संपदा में 99 फीसद लोग खुश रहें।

मैं ये बिल्कुल नहीं कर रहा हूं कि ये नीति ज्यों की त्यों भारत में लागू कर दी जाए, लेकिन कहीं न कहीं और किसी न किसी स्तर पर कोई तो रोक लगानी ही होगी। हायर एजुकेशन से जुड़े सभी लोगों को पता है कि एंट्री लेवल पर सबसे अधिक वेतन उच्च शिक्षा में मिलता है। (भारत में सरकारी प्रोफेसर का वेतन दक्षिण एशिया में सर्वाधिक है। केवल दक्षिण एशिया ही नहीं रूस और पूर्वी एशिया के कई देशों की तुलना में भारतीय प्रोफेसरों को ज्यादा वेतन मिलता है।) इस फील्ड में औसत प्रदर्शन करने वाला व्यक्ति भी 15 साल में फुल प्रोफेसर बनकर ढाई लाख से अधिक वेतन पाने लगता है।

हालांकि, कुछ लोग कह सकते हैं कि वह ऊंचा इनकम टैक्स चुकाता है इसलिए उसे कुछ और करने की जरूरत नहीं है। लेकिन, जरूरत है। उसे सोसासटी को दूसरे तरीकों से प्रतिदान की आवश्यकता है। उसे उस वर्ग के बारे में सोचना चाहिए जो उसकी ओर उम्मीद भरी निगाह से देखता है। लेकिन, जब कोई अपने घर को होटल की रंगत में बदल दे, टर्की से मंगाए कालीन की दर्जन भर फोटो सोशल मीडिया पर सजा दे या एक लाख कीमत के पिल्ले को चूमते हुए फोटो डाले तो फिर उससे जरूर पूछना चाहिए कि साहब/मोहतरमा आप प्रोफेसर क्यों हैं! अच्छा होता आप प्रापर्टी डीलिंग के कारोबार में होते! (सुना है कि कुछ लोग दोनों कामों को एक साथ साध लेते हैं।) वैसे, कोई भी पेशा बुरा नहीं है, लेकिन जब कोई अपने पेशे की और उससे हुई आय के सार्वजनीकरण की सीमाओं का अतिक्रमण करता हो तो फिर ‘कॉमन प्रास्पैरिटी प्रोग्राम’ जैसी नीतियों की जरूरत महसूस होती है।

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