शिक्षा/साहित्य

पुराने समय में पुस्तक की समीक्षा को *माहात्म्य* कहते थे

 

-गोविंद प्रसाद बहुगुणा

पुस्तक के प्रति पाठकों का आकर्षण पैदा करने में उसकी सुन्दर समीक्षा का बहुत बड़ा योगदान होता है । यह परम्परा भी आदिकाल से चली आ रही है लेकिन उस जमाने में उसके लिए समीक्षा की जगह * माहात्म्य* शब्द का प्रयोग होता था।और इसको पढ़े लिखे और अनपढ़ सभी सुनकर पढ़ते थे जैसे सत्यनारायण की कथा ।

आजकल कुछ लोग इसको Review अर्थात पुनरावलोकन भी कह देते हैं। अब तो लेखकों ने पुस्तक प्रकाशन के बाद विमोचन या लोकार्पण की परम्परा शुरू कर दी है ।

समीक्षा यदि किसी योग्य व्यक्ति ने लिखी हो तो पुस्तक की पठनीयता में उत्सुकता जगती है। लेकिन सनसनी पैदा करना भी एक कला होती है। पुराणों के रचनाकार भले ही वेदव्यास रहे हों लेकिन उनकी अधिकतर रचनाओं की समीक्षा उनके ही एक योग्य शिष्य सूत जी ने लिखी। जैसे वेदव्यास की इस रचना * श्रीमदभागवत् *की समीक्षा पद्मपुराण में बडे विस्तार से सूत जी ने लिखी और उसमें *सनसनी पैदा करने वाला तत्व* भी विद्यमान है। वह सनसनी क्या थी ,आगे पढिए –

पद्मपुराण में श्रीमद्भागवत के महात्म्य का वर्णन करते हुए महर्षि वेदव्यास के शिष्य सूत जी शौनक ऋषि को एक दिलचस्प किस्सा सुना रहे थे कि वेदव्यास के पुत्र शुकदेव जी जब राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत को सुनाने वाले ही थे कि देवताओं को इसकी खबर लगी तो वे भी वहां दौड़े चले आये ।

उन्होंने आते ही शुकदेव जी के सामने एक प्रस्ताव रखा कि कि आप हमसे यह अमृत से भरा कलश ले लीजिए और उसे ही इस परीक्षित को पिला दीजिए यह मृत्यु भय से मुक्त हो जाएगा और उसके बदले अपने इस भागवत पुराण का कॉपी राइट हमें दे दीजिए ।

शुकदेव जी को अपने पिता की इस कृति के प्रति देवताओ की यह प्रतिक्रिया देखकर गुस्सा आ गया ,उन्होंने देवताओं को डांटकर भगा दिया कि तुम लोगों को मैं इस अदभुत कृति को रखने अधिकारी नहीं समझता । सुनिए यह किस्सा भी सूत जी के जुबानी –

परीक्षिते कथा वक्तुं सभायां संस्थिते शुके।
सुधा कुम्भं गृहीत्यैव देवास्तत्र समागतम्।।१३।।
शुकं नत्वावदन् सर्वे स्वकार्यकुशलाःसुराः।
कथासुधां प्रयच्छस्व गृहीत्वैव सुधामिमां।।१४।।
एवं विनिमये जाते सुधा राज्ञा प्रणीयताम्।
प्रपास्यामो वयं सर्वे श्रीमदभागवतामृतम्।।१५॥
क्व सुधा क्व कथा लोके क्व काच क्व मणिर्महान्।
ब्रह्मरातो विचार्यैवं तदा देवांज्हास ह।।१६॥
अभक्तांस्तांश्च विज्ञाय न ददौ स कथामृतम्।
श्रीमद्भागवती वार्ता सुराणामपि दुर्लभा।।१७॥ (पद्मपुराण उत्तरखण्ड प्रथम अध्याय) अनुवाद –

“जब शुकदेव जी राजा परीक्षित को यह कथा सुनाने के लिए कथा में विराजमान हुए तब देवतलोग उनके पास अमृत का कलश लेकर आये।

देवता लोग अपना काम बनाने में बडे कुशल होते हैं अतः यहां भी उन्होने शुकदेव मुनि को नमस्कार करके कहा- आप यह अमृत कलश लेकर बदले में हमें कथामृत का पान करा दीजिए । इस प्रकार विनिमय हो जाने के बाद उसके बदले यह अमृत जो हम लाये हैं वह परीक्षेत को पिला दीजिए। शुकदेव जी ने कहा कहां तुम्हारा कांच जैसा अमृत कलश कहां यह मणिमय भागवत की रचना -दोनों में क्या तुलना ? उन्होने कहा भक्तिशून्य लोगों के लिए यह भागवत नहीं है भाई ।”

शुकदेव जी का जबाब सुनकर सभा में विराजमान सभी श्रोता और विद्वत समाज आश्चर्य में भर गये ।
तो यह था सनसनी पैदा करने वाला बुक REVIEW.,

बंधुओ

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