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अधिकांश हिमालयी हिमनद पिघल रहे हैं या अलग-अलग दरों पर उनका संकुचन हो रहा है।

भारत सरकार ने भारतीय हिमालयी क्षेत्र में हिमनदों के पिघलने सम्बन्धी अध्ययन किए हैं, तथा उनके आंकड़े रखती है। विभिन्न भारतीय संस्थान / विश्वविद्यालय / संगठन (भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI), वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान (WIHG), राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं समुद्री अनुसंधान केन्द्र (NCPOR), राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान (NIH), अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (SAC), भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) आदि) विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों समेत हिमनद पिघलने पर नज़र रखने के लिए हिमालय हिमनदों की निगरानी करते हैं, तथा वे हिमालयी हिमनदों में तेज गति से समरूपी द्रव्यमान में कमी आने की सूचना देते है। हिंदु कुश हिमालयी हिमनदों की औसत सिकुड़ने की दर14.9 ± 15.1 मीटर प्रति वर्ष (m/a) है; जो इंडस में 12.7 ± 13.2 मीटर प्रति वर्ष, गंगा में 15.5 ± 14.4 मीटर प्रति वर्ष तथा ब्रह्मपुत्र रीवर बेसिन्स में 20.2 ± 19.7 मीटर प्रति वर्ष बदलती रहती है। तथापि, काराकोरम क्षेत्र के हिमनदों की लम्बाई में तुलनात्मक रूप से बहुत मामूली परिवर्तन (-1.37 ± 22.8 मीटर प्रति वर्ष) देखा गया है, जिससे स्थिर स्थितियों के संकेत मिलते हैं।

आर  के पचौरी की अध्यक्षता वाली इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (टेरी ) की हिमालयी  हिमनदों पर बहुत ही निराशाजनक रिपोर्ट आने पर वस्तुस्तिथि का पता लगाने के लिए प्रधान मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार ने आनंद पटवर्धन की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय वैज्ञानिक समूह का गठन किया था।  इस विशेषज्ञ दल  में प्रख्यात पर्यावरणवादी चंडी प्रसाद भट्ट भी शामिल थे.

Member of the high level study group on Himalayan glaciers renown environmentalist Padmbhushan Chandi prasad bhatt.

पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय अपने केन्द्र राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं समुद्री अनुसंधान केन्द्र (NCPOR) के माध्यम से वर्ष 2013 से पश्चिमी हिमालय में चंद्रा बेसिन (2437 किमी2 क्षेत्र) में छह हिमनदों की निगरानी कर रहा है। क्षेत्रीय प्रयोग करने तथा हिमनदों में अभियान संचालित करने के लिए चंद्रा बेसिन में ‘हिमांश’ नामक एक अत्याधुनिक फील्ड रिसर्च स्टेशन की स्थापना की गई, तथा यह वर्ष 2016 से कार्य कर रहा है। वर्ष 2013 से 2020 के दौरान यह पाया गया कि वार्षिक द्रव्यमान संतुलन (पिघलना) की दर -0.3±0.06 मीटर जल समतुल्य प्रति वर्ष (m w.e.y-1)से -1.13±0.22m w.e.y-1 के बीच में रही। इसी प्रकार, वर्ष 2000-2011 के दौरान बास्पा बेसिन में हिमनद औसतन ~50±11 मीटर की दर से पिछले, तथा –1.09±​ 0.32 m w.e. a–1 की औसत वार्षिक द्रव्यमान कमी देखी गई।

GSI ने नौ हिमनदों पर द्रव्यमान संतुलन मूल्‍यांकन से हिमनदों के पिघलने सम्बन्धी अध्ययन किए हैं, तथा साथ ही हिमालयी क्षेत्र के 76 हिमनदों के प्रतिसरण / अग्रसरण की निगरानी सम्बन्धी अध्ययन किए हैं। यह प्रेक्षित किया गया है कि विभिन्न क्षेत्रों में अधिकांश हिमालयी हिमनद पिघल रहे हैं / अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग दरों से उनका संकुचन हो रहा है।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST) ने नेशनल मिशन फॉर सस्टेनिंग हिमालयन ईकोसिस्टम (NMSHE) तथा नेशनल मिशन ऑन स्ट्रैटेजिक नॉलेज फॉर क्लाइमेट चेंज (NMSKCC) के अन्तर्गत हिमालयी हिमनदों का अध्ययन करने के लिए विभिन्न अनुसंधान एवं विकास परियोजनाओं की सहायता की है। कश्मीर विश्वविद्यालय, सिक्किम विश्वविद्यालय, IISc तथा WIHG द्वारा कुछ हिमालयी हिमनदों पर किए गए द्रव्यमान संतुलन अध्ययनों में पाया गया कि अधिकांश हिमालयी हिमनद पिघल रहे हैं या अलग-अलग दरों पर उनका संकुचन हो रहा है।

WIHGउत्तराखंड में कुछ हिमनदों की निगरानी कर रहा है,जिसमें यह पाया गया कि भागीरथी बेसिन में डोकरियानी हिमनद वर्ष 1995 से 15-20 मीटर प्रति वर्ष की दर से सिकुड़ हो रहा है, जबकि मंदाकिनी बेसिन में चोराबारी हिमनद वर्ष 2003 से 2017 के दौरान 9-11 मीटर प्रति वर्ष की दर से सिकुड़ रहा है। WIHG सुरू बेसिन, लद्दाख में डुरुंग-ड्रुंग तथा पेनसिलुंगपा हिमनदों की भी निगरानी कर रहा है, जो क्रमश: 12 मीटर प्रति वर्ष तथा ~ 5.6 मीटर वर्ष की दर से सिकुड़ हो रहा है।

NIHपूरे हिमालय में कैचमेंट एवं बेसिन स्केल पर हिमनदों के पिघलने से कम होने वाले बर्फ का मूल्यांकन करने के लिए विभिन्न अध्ययन संचालित कर रहा है।

जब हिमनद पिघलते हैं, तो ग्लेशियर बेसिन हाइड्रोलॉजी में परिवर्तन होता है, जिसका हिमालयी नदियों के जल संसाधनों पर महत्वपूर्ण प्रभाव होता है, तथा स्राव में अंतर, आकस्मिक बाढ़ एवं अवसाद के कारण हाइड्रोपॉवर प्लांट्स एवं डाउनस्ट्रीम वॉटर बजट पर प्रभाव पड़ता है। इससे हिमनद झीलों के परिमाण एवं संख्या बढ़ने, आकस्मिक बाढ़ में तीव्रता आने, तथा ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड्स (GLOFs), उच्च हिमालयी क्षेत्र में कृषि कार्यों पर प्रभाव आदि के कारण भी हिमनद सम्बन्धी जोखिमों के खतरे में वृद्धि होती है।

DST के तत्वाधान में दिवेचा जलवायु परिवर्तन केन्द्र, IISc बैंगलोर ने सतलुज रीवर बेसिन की जांच-पड़ताल करके रिपोर्ट दी है कि सदी के मध्य तक हिमनद पिघलने के योगदान में वृद्धि होगी, उसके बाद इसमें कमी जाएगी। सतलुज बेसिन के कम ऊंचाई वाले क्षेत्र में स्थित विभिन्न छोटे हिमनद सदी के मध्य तक इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण कमी आना इंगित करते हैं, जिससे शुष्क ग्रीष्मकाल के दौरान जल की कमी उत्पन्न होगी।

हिमनदों का पिघलना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, तथा इसे नियंत्रित नहीं किया जा सकता। तथापि, हिमनद पिघलने से हिमनद जोखिमों सम्बन्धी खतरे बढ़ जाते हैं। विभिन्न भारतीय संस्थान, संगठन एवं विश्वविद्यालय हिमनद पिघलने के कारण आने वाली आपदाओं का मूल्यांकन करने के लिए बड़े पैमाने पर रिमोट सेंसिंग डेटा का प्रयोग करते हुए हिमालयी हिमनदों की निगरानी कर रहे हैं। हाल ही में, राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण (NDMA) ने स्विस डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (SDC) के सहयोग से नीति निर्माताओं हेतु ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड्स (GLOFs) के प्रबन्धन सम्बन्धी दिशानिर्देश, सार-संग्रह, तथा सारांश तैयार किए हैं।

यह जानकारी आज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी तथा पृथ्वी विज्ञान राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) डॉ. जितेंद्र सिंह ने एक लिखित उत्तर में लोकसभा में दी।

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