मोदी से सीखे कोई – कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना

–-दिनेश शास्त्री —
प्रथम ज्योतिर्लिंग सौराष्ट्र से ग्यारहवें ज्योतिर्लिंग भगवान केदारेश्वर तक की हाल के दो तीन महीनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा एक पंथ दो काज का अनुपम उदाहरण मानी जा सकती है। किसी भी अवसर का द्विगुणित लाभ कैसे उठाया जा सकता है, यह अगर सीखना हो तो किसी मैनेजमेंट स्कूल में दाखिला लेने की जरूरत नहीं, बस अपने प्रधानमंत्री के व्यवहार को देखते रहो, सारी फीस बच जायेगी और चार चवन्नी की पांच चवन्नी का हुनर सीख सकते हैं। विडंबना यह है कि लोग हार्वर्ड और ऑक्सफोर्ड का रुख कर लेते हैं, लेकिन वहां से बहुत कुछ सीख कर आने के बावजूद घरेलू मोर्चे पर ज्यादातर फिसड्डी ही साबित होते हैं। गोद में छोरा नगर ढिंढोरा वाली कहावत यही तो है लेकिन क्या करें बाबू, अपनी बात पर कान देने की लोग जहमत ही नहीं उठाते।

खैर, बात मुद्दे की करते हैं। 21 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केदार बदरी की यात्रा पर आए। मौका था रोप वे का शिलान्यास, सड़क चौड़ीकरण योजना और विकास कार्यों की समीक्षा का। केदारनाथ धाम में पिछले छह वर्ष से पुनर्निर्माण कार्य चल रहे हैं। बदरीनाथ के लिए भी मास्टर प्लान पर काम चल रहा है। दोनों धामों में अराइवल प्लाजा बन रहे हैं। केदारनाथ में काफी कुछ हो चुका है। यानी पहला चरण हो चुका, अब आगे के काम हो रहे हैं। आप कुछ मामलों में असहमत हो सकते हैं कि वहां पंचवक्त्र महादेव और उदककुंड की स्थिति परिवर्तित हो चुकी है। कुछ और भी बदला है।

2013 से पहले के भू चित्र के मुताबिक तो कुछ नहीं हो सकता था, लिहाजा जो कुछ भी हुआ वह निसंदेह भव्य और दिव्य तो है ही। केदारनाथ उत्थान चैरिटेबल ट्रस्ट के जरिए वहां बहुत कुछ हो रहा है। इस नई केदारपुरी को देखने इस साल अगर 15 लाख से अधिक श्रद्धालु आए हैं, तो अनायास ही नहीं हुआ है। अब बदरीनाथ की बारी है और वहां भी भू वैकुंठ धाम को दिव्य और भव्य बनाया जा रहा है। सुगम और कम कष्टप्रद यात्रा होने से वैसे भी बदरी विशाल के दर्शनों के लिए आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या हमेशा से ज्यादा रही है। स्वाभाविक रूप से इस बार भी ज्यादा ही रही है।

दूसरे बदरीनाथ धाम में पहले से बेहतर अवस्थापना सुविधाएं अन्य धामों की तुलना में ज्यादा हैं। भविष्य में अगर दोगुने श्रद्धालु आ गए तो उनके ठहरने रहने का इंतजाम क्या होगा, इस पर तेजी से काम हो रहा है और अगले दो साल के भीतर काफी कुछ यह धाम भी बदला बदला नजर आयेगा।
बात माणा गांव में प्रधानमंत्री के भाषण की भी हो जाए। मोदी ने सीमांत क्षेत्र में रहने वाले लोगों, जिन्हें सेकेंड डिफेंस लाइन कहा जाता है, उनकी बड़ी शिद्दत से सुध ली। आज तक भी तमाम नेता, मंत्री, प्रधानमंत्री उत्तराखंड के तीर्थ धामों की यात्रा करते रहे हैं। किंतु आमतौर पर नेतागण इसे अपनी व्यक्तिगत श्रद्धा तक सीमित रखते थे। उन्हें शायद समाज के अन्य वर्गों का एक तरह से अदृश्य भय रहता होगा कि उनकी आस्था से कोई चोटिल न हो जाए। बहरहाल अब बदलाव का दौर है तो अपनी आस्था के प्रदर्शन से परहेज भी क्यों हो?
माणा गांव में प्रधानमंत्री ने महिला स्वयं सहायता समूहों की सदस्यों से बात की, वे सरस मेले को देखने गए थे। उन्हें प्रसन्नता इस बात से हुई कि यात्रा सीजन अच्छा रहने से लाखों रुपए मूल्य के स्थानीय उत्पाद बिक गए, पहले यह कारोबार हजारों में होता था। प्रधानमंत्री ने एक तरह से उनकी मार्केटिंग करते हुए देशवासियों से आह्वान कर डाला कि जब कभी वे तीर्थाटन या पर्यटन पर जाएं तो अपने कुल बजट का मात्र पांच फीसद स्थानीय उत्पादों की खरीद पर खर्च करें। बस यही बात इस इलाके के लिए संजीवनी बन सकती है। देश अपने नेताओं की बात पर भरोसा करता आया है, इसलिए स्वाभाविक रूप से उम्मीद की जानी चाहिए कि स्थानीय लोगों की आर्थिकी पहले से बेहतर होगी। उन्हें उनके उत्पादों का ब्रांड एंबेसडर मिल गया है।
ये तो थी स्थानीय अर्थतंत्र की बात। अब मुख्य मुद्दे की चर्चा करते हैं। हमारे पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। अगले माह के पहले हफ्ते में वहां मतदान होना है। प्रधानमंत्री की तीर्थ यात्रा का संदेश हिमाचल तक कैसे पहुंचे, इसका बेजोड़ उदाहरण हमने तब भी देखा था, जब उत्तराखंड में मतदान हो चुका था और हिमाचल में शेष था। इस बार फिर वही तरकीब आपको नजर नहीं आ रही? कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना यूं ही थोड़े कहा गया है। बस थोड़ा समझने की जरूरत होती है।
आपको याद होगा, तब भी प्रधानमंत्री मोदी ने बाबा केदार के चरणों में आकर साधना की थी। जरा अपनी स्मृति पर जोर डालें, आपको स्मरण हो जायेगा। तब भी मोदी ने हिमाचली चोला – डोरा और हिमाचली टोपी पहनी थी। एक देवभूमि से दूसरी देवभूमि तक संदेश कैसे पहुंचाया जा सकता है, इस कला को लोग नहीं समझेंगे। तभी तो मैं ऑक्सफोर्ड और हार्वर्ड के बजाए घरेलू ज्ञान की बात बता रहा हूं। शायद ज्यादातर लोग आज समझ नहीं पाए होंगे कि प्रधानमंत्री ठेठ हिमाचली परिवेश में क्यों दिखाई दिए। अब आप समझ गए होंगे कि कैसे चार चवन्नी से पांच चवन्नी बनाई जाती हैं? यह हुनर हमारे देश में अनादिकाल से है लेकिन लोग तो “घर का जोगी जोगना आन गांव का सिद्ध” की कमजोरी के शिकार जो ठहरे। आप सवाल कर सकते हैं कि जब केदारनाथ में हिमाचली चोला में मोदी दिखे तो बदरीनाथ में वह चोला उतार क्यों दिया? आपका सवाल वाजिब हो सकता है किंतु थोड़ा आपको इतिहास की ओर लौटना होगा। हिमाचल प्रदेश के मणिमहेश से उत्तराखंड के लोहाघाट तक भगवान शिव के परम भक्त बाणासुर का एकछत्र राज हुआ करता था। पिथौरागढ़ का सौर गढ़ भी उसी सीमा रेखा के अंदर माना जाता है। लिहाजा केदारनाथ धाम से हिमाचल प्रदेश के लिए पर्याप्त संदेश जा चुका था। हिमाचल के लोग भी अभिभूत हो गए होंगे कि आज एक बार फिर उनके परिवेश की मार्केटिंग हो गई। पर्वतीय लोग स्वभाव से भी भावुक होते हैं। उनकी भावनाओं का पर्याप्त पोषण हो गया। ऐसे में बदरीनाथ में हिमाचली चोला और टोपी का ज्यादा महत्व नहीं रह गया था। अब आप मान गए होंगे कि गुजराती चार चवन्नी से पांच चवन्नी कैसे बनाते हैं? अब उत्तराखंड के लोग ये शिकायत न करें कि उनकी पोशाक में क्या कांटे लगे थे, जो पीएम ने उनकी मार्केटिंग नहीं की? तो भाई साफ और खरी बात यह है कि आपके उत्तराखंड की ऐसी कौन सी सर्वमान्य पोशाक है जिसे पीएम पहन लेते? पहले आप एकमत तो हो जाओ। अपनी भाषा की एकरूपता तो आप आज तक बना नहीं पाए। बेचारे हरदा उत्तराखंडियत का राग अलापते अलापते बूढ़े हो गए लेकिन उत्तराखंडी एक नहीं हो पाए उल्टे हरदा को ही किनारे कर दिया। अगर आपको भी चार चवन्नी की पांच चवन्नी बनाने का हुनर सीखना है तो पहले एक होने की कोशिश करो, फिर देखते हैं, कैसे झंगोरा, मंडुआ के दिन नहीं बहुरते हैं।