आपदा/दुर्घटनाब्लॉग

मसूरी और नैनीताल पर भी मंडरा रहा आपदाओं का खतरा

जयसिंह रावत

जोशीमठ की  आपदा उत्तराखंडवासियों को डरा ही रही थी लेकिन अब तुर्की के भूकंप ने और भी डरा दिया है। खास कर अंग्रेजों द्वारा बसायी गयी पहाड़ों की  रानियां सर्वाधिक संवेदनशील मानी जा रही हैँ। देश विदेश के सैलानियों की इन चहेतियों को जितना खतरा  भूस्खलन से है उतना ही भूचाल से भी है। हमें इन खतरों से भयभीत होने के बजाय सावधानी की  जरूरत है। सतर्क रहने की  जरूरत है।

sketch of old buildings of Mussoorie.

पहले भी भयंकर आपदा झेल चुका है नैनीताल

देश विदेश के सैलानियों की चहेती पहाड़ों की रानियां, मसूरी और नैनीताल बरसात के मौसम में सुरक्षित नहीं हैं। मसूरी के तो प्रमुख पर्यटन स्थल भूस्खलन की दृष्टि से सबसे अधिक खतरनाक हो गये हैं। नैनीताल का भूस्खलन आपदाओं का तो और भी डरावना इतिहास है। वहां 1880 में 151 लोग भूस्खलन की चपेट में आकर मर गये थे। इन दोनों पर्यटन नगरों की धारक क्षमता बहुत पहले ही समाप्त हो चुकी है, फिर भी वहां अत्यधिक बढ़ती आवासीय जरूरतों को पूरा करने के लिये बेतहासा निर्माण कार्य जारी हैं।
उत्तर भारत में शिमला के बाद अंग्रेजों द्वारा बसाई गयी दूसरी कालोनी मसूरी अब न तो उतनी सुन्दर रह गयी और ना ही उतनी सुरक्षित रह गयी। तीसरे हिल स्टेशन नैनीताल के भूस्खलन तो अंग्रेजों के जमाने से ही शुरू हो गये थे।

मसूरी को भी भूस्खलन का खतरा

वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियॉलाजी (डब्ल्युआइएच) के वैज्ञानिकों द्वारा किे गये एक अध्ययन के अनुसार मसूरी और उसके आसपास के कई इलाकों में भूस्खलन का खतरा मंडरा रहा है। मसूरी एवं उसके आसपास का 15 क्षेत्र भूस्खलन की दृष्टि से सबसे अधिक संवेदनशील है।
जर्नल ऑफ अर्थसिस्टम साइंस में प्रकाशित वाडिया इंस्टीट्यूट के भूवैज्ञानिकों के एक शोध अध्ययन के अनुसार मसूरी के जो क्षेत्र भूस्खलन की दृष्टि से सबसे अधिक संवेदनशील हैं उनमें बााटाघाट, र्जार्ज एवरेस्ट, केम्प्टी फॉल खट्टापानी, लाइब्रेरी, गलोगीधार और हाथीपांव आदि शामिल हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इन क्षेत्रों में खण्डित चूनापत्थर की चट्टानें हैं। इनकी दरारों में बरसात में पानी भर जाने के कारण लगभग 60 डिग्री तक की ढलान वाली धरती की सतह धंसने या खिसकने लगती है।

मसूरी की  धारण क्षमता की  अनदेखी बेहद  खतरनाक

मसूरी बाह्य हिमालय में स्थित है। इन भूवैज्ञानिकों ने मसूरी के आसपास के 84 वर्ग किमी क्षेत्र का अध्ययन किया तो पाया कि उसका 15 प्रतिशत क्षेत्र भूस्खलन की दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील है। जर्नल ऑफ अर्थ सिस्टम सांइंस में छपे भूस्खलन संवेदनशीलता मानचित्र में इन वैज्ञनिकों ने 29 प्रतिात क्षेत्र को मध्यम दर्ज का संवेदनशल और 56 प्रतिात क्षेत्र को न्यूनतम् संवेदनशील दिखाया है। क्षेत्र की भूस्खलन संवेदनशीलता में वृद्धि का एक कारण मसूरी की धारक क्षमता (कैरीइंग कपैसिटी) की अनदेखी कर बेतहासा निर्माण कार्य भी बताया गया है।

केम्प्टीफॉल, नागटिब्बा और भट्टाफॉल सबसे संवेदनशील

उत्तराखण्ड आपदा प्रबंधन एवं न्यूनीकरण केन्द्र के वैज्ञानिकों द्वारा कराये गये एक अध्ययन के अनुसार भी केम्प्टीफॉल, नाग टिब्बा  और भट्टाफॉल भी सर्वाधिक खतरे वाले क्षेत्र है। इसका कारण भूवैज्ञानिक सुशील खण्डूड़ी ने टेक्टॉनिक डिस्कंटिन्युटी और तीब्र अस्थिर ढलान माना है। खण्डूड़ी के अध्ययन में भट्टाघाट और लाल टिब्बा के उत्तर पश्चिम क्षेत्र को भूस्खलन के लिये अत्यधिक संवेदनशील बताया गया है जबकि कम्पनी गार्डन के उत्तर, लाल टिब्बा के उत्तर पूर्व, जबरखेत के पश्चिम और क्यारकुली के दक्षिण पश्चिम के क्षेत्र उच्च संवेदनशीलता में माने गये हैं। इन क्षेत्रों में अक्सर भूस्खलन होते रहते हैं। इन क्षेत्रों को मानवीय और निर्माण गतिविधियों से अलग रखने का सुझाव दिया गया है। इसी प्रकार परी टिब्बा, जबरखेत, क्यारकुली एवं भट्टा के पश्चिमी क्षेत्र, बार्लोगंज के उत्तर पश्चिम और खट्टापानी के उत्तर पूर्वी क्षेत्र को मध्यम दर्जे की संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है। जबकि मसूरी के बनाच्छादित पश्चिमी क्षेत्र को न्यून संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है। खण्डूड़ी के इस अध्ययन में गनहिल, बंशीगाड, क्यारकुली, बार्लोगंज और बाटाघाट के दक्षिण और काण्डाफॉल के पश्चिमी क्षेत्र का अतिन्यून संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है। इस अध्ययन में मसूरी क्षेत्र के 31.6 प्रतिशत क्षेत्र को मध्यम जोखिम या संवेदनशील श्रेणी, 21.6 प्रतिशत उच्च संवेदनशील श्रेणी और 1.7 प्रतिशत क्षेत्र को अति संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है।

सैलानियों की  चहेती नैनीताल का इतिहास ही डरावना 

देश विदेश के सैलानियों की दूसरी चहेती नैनीताल का भूस्खलन आपदा का इतिहास तो मसूरी से भी अधिक डरावना है। इतिहास के पन्ने टटोले जांय तो वहां पहला ज्ञात भूस्खलन 1866 में अल्मा पहाड़ी पर नैनीताल में हुआ था, और 1879 में उसी स्थान पर एक बड़ा भूस्खलन हुआ था। नैनीताल में सबसे बड़ा भूस्खलन 18सितंबर 1880 को हुआ था, जो ढलान पर फ्लैटों के उत्तर से उगता है, अल्मा चोटी पर समाप्त होता है, और इसके परिणामस्वरूप 151 लोग मलबे के नीचे दब गए।

एमसीटी और एमबीटी के बीच  में है नैनीताल

नैनीताल जिला भारत के लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में से एक है। नैनीताल जिला भी मेन सेंट्रल थ्रस्ट (एमसीटी) और मेन बाउंड्री थ्रस्ट (एमबीटी) के बीच लघु हिमालय या बाहरी हिमालय में स्थित है जहां हर साल भूस्खलन आपदा आती रहती है। झुके हुए पेड़ और खंभे जमीन के नीचे खिसकने के संकेत हैं जैसा कि नैनीताल शहर और उसके आसपास कई पहाड़ियों पर देखा गया है। पेड़ के तने की वक्रता पेड़ की वृद्धि की अवधि के दौरान रेंगने की दर को रिकॉर्ड करती है। बारिश के मौसम में तो रेंगने या खिसकने की गति तेज होती है। और वर्षों में लंबी अवधि तक खिंच सकती है जब कोई भी आंदोलन नहीं होता है। जंगलों का बेतहासा कटान और खड़ी ढलानों पर निर्माण के कारण भी जमीन नीचे खिसकने की गति तेज हो जाती है। लोगों की बढ़ती आवासीय एवं विकास की आवश्यकता को पूरा करने के लिए नैनीताल में निर्माण गतिविधियाँ पूरी गति से चल रही हैं। इन गतिविधियों के चलते नैनीताल की ढलानें और अधिक अस्थिर होती जा रही हैं। जिसने भूस्खलन खतरे को कई गुना बढ़ा दिया है। भूस्खलन की समस्याओं को न्यूनतम रखने के लिए, ढलान अस्थिरता रोकने के उपायों पर गंभीरता से विचार किया जाना जरूरी है।

सेकड़ों पहाड़ी गावों को है खतरा

खेती के लिये उपजाऊ मिट्टी एवं रहने के लिये कम ढाल वाली जमीन मिल जाने के कारण पहाड़ों में अधिकांश बस्तियां पुराने सुसप्त भूस्खलनों पर ही बसी हुयी हैं। इसीलिये उत्तराखण्ड राज्य का 80 प्रतिशत हिस्सा अस्थिर ढलानों के कारण भूस्खलन की दृष्टि से काफी संवेदनशील है। राज्य में शायद ही कोई ऐसी बरसात गुजरती हो जब उत्तराखण्ड में भूस्खलन की आपदाएं नहीं होती हों। प्रदेश के लगभग 465 गांव भूसखलन की दृष्टि से संवेदनशील घोषित किये गये हैं। जिन्हें विस्थापित कर पुनः सुरक्षित स्थानों पर बसाया जाना है मगर सरकार को इतनी जमीन नहीं मिल रही है। वन अधिनियम के सख्त प्रावधानों के कारण सरकार को पुनर्वास के लिये वन भूमि भी नहीं मिल रही है। अधिक कमजोर, अत्यधिक घुमावदार और खंडित चट्टानें, खड़ी ढलानें, उच्च भूकंपीयता और प्रतिकूल जल-भूवैज्ञानिक स्थितियां राज्य की उच्च भूस्खलन संवेदनशीलता के लिये जिम्मेदार हैं। इसके अलावा अव्यवस्थित विकास निर्माण गतिविधियाँ भूस्खलन के जोखिम को और अधिक बढ़ती हैं।

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