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मसूरी भी जोशीमठ की कतार में है..?

 

–जयप्रकाश उत्तराखंडी-

अंग्रेजों ने 1820 के दशक में पता लगा लिया था कि वो जो नया पहाडी शहर(मसूरी) बसा रहे हैं, उसके आधार में कच्चे चूने के पहाड हैं. इसलिए उन्होने लकडी और टिन के एक मंजिला बंगले, कोठी या घर का निर्माण शुरू किया. ताकि जमीन पर दबाव कम रहे और प्राकृतिक संतुलन बना रहे.नगरपालिका के पुराने बायलाज उठा लो, उसमें एक एकड में एक बडा मकान और कुछ सर्वेंटस क्वार्टर ही बनाने की इजाजत थी.

20 वीं सदी में सीमेंट आने के बाद भी अंग्रेजों ने सीमेंट के बजाय चूने के निर्माण को प्राथमिकता दी. इसीलिए बडे भूकंपों में मसूरी के अधिकतर पुराने भवन आज तक संरक्षित हैं. 1960 के दशक तक मसूरी पर अंग्रेजी जमाने के नियम कायदों का जोर था, इसलिए काफी कुछ बचा रहा- जंगल, पानी के स्त्रोत, हरियाली और मसूरी की भव्य भवन वास्तुकला और रखरखाव.

1980 के दशक के शुरूआती सालों में मसूरी में दिल्ली की बिल्डर लाबी की आमद क्या हुई, मसूरी में वन पर्यावरण और ब्रिटिशकालीन भवन वास्तुकला का जनाजा निकलना शुरू हुआ.1984 के आसपास नगर पालिका से भवननिर्माण स्वीकृति का अधिकार छीनकर नवगठित मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण बनाकर उसे दे दिया गयि, फिर क्या प्राधिकरण आग मूतने लगा.उसकी सरपरस्ती में बाहरी पूंजीपतियों, बाहरी नौकरशाही और दलालों के गठजोड ने पूरी मसूरी की ऐतिहासिक पर्यावरणीय बसावत की डेमोग्राफी बर्बाद कर दी.

पुराने भवनों को तोडकर कंकरीट के भारी भरकम बहुमंजिला होटल, एपार्टमेंट, काटेजेज बने. हमारे दबाब पर 1987 में तत्कालिन जिलाधिकारी ने एक शासनादेश जारी कर ” सौ साल या इससे अधिक पुराने भवनों को संरक्षित रखने’ का हुक्म दिया. पर ताकतवर लोगों, दलालों और बिल्डरों ने इस शासनादेश को रददी के हवाले कर दिया.

इससे पूर्व वन पर्यावरण संरक्षण के लिए 1983- 84 में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने मसूरी के आसपास की 54 चूना खदानों को बंद कर दिया, मैं 1983 में देहरादून चूना खान बचाओ संघर्ष समिति का महामंत्री था, उस वक्त इस चूना उधोग पर जिला देहरादून के 80 हजार परिवार पलते थे, पर वह उधोग पर्यावरण के नाम पर बंद कर दिया गया. न्यायालय ने वृक्षारोपण के आदेश दिए, पूर्व फौजियों की गठित पर्यावरण सेना ने वृहत रूप से वृक्षारोपण अभियान चलाया, पर वह भी ठंडे बस्ते में चला गया.

आज तक मसूरी में जो भारी निर्माण हुए हैं, वे भावी प्राकृतिक आपदाओं के लिए इतने मुफीद हैं कि कभी मसूरी के 56 वर्ग किलोमीटर के भूगर्भ में फैली चूना प्लेटस में हलचल पैदा कर पूरे शहर में धंसाव के हालात पैदा कर सकती है, अगर कभी
. 8 डिग्री का भूकंप आया तो मसूरी के हालात भयावह होंगे.

आजकल मसूरी के लंढौर बाजार की चर्चा है कि वहां भूधंसाव हो रहा है, शासन इसका वैज्ञानिक सर्वेक्षण करवाये, मसूरी दूसरा जोशीमठ न बने, इसलिए सरकार और मसूरी के प्रबुद्ध लोगों को चेत जाना चाहिए. इसके लिए कुछ प्रयास होने चाहिए—

1- मसूरी में बहुमंजिला निर्माण को कतई स्वीकृति न मिले.
2- कोशिश यह हो कि वृक्षारोपण करने वाली संस्थायें केवल स्थानीय प्रजाति के पेड लगायें.
3- प्राकृतिक जल स्त्रोतों का पुन सर्वे हो, इनके आसपास भविष्य में कोई भी निर्माण न हों.
4- कोशिश की जाये कि शिमला की तरह अपर मसूरी शहर में कम से कम वाहनों को प्रवेश मिले, ताकि जमीन पर दबाब कम हो और संवेदनशील इलाकों में ध्वनि प्रदूषण कम हो. शहर के निचले हिस्सों में किक्रेंग जैसी कई पार्किंग बननी चाहिए. अंग्रेज मूर्ख नहीं थे, जिन्होने अपर मसूरी को वाहन मुक्त किया था.

5- हर बात में पर्यटन रोजगार की तोतारंटत बंद होनी चाहिए. जोशीमठ को देखिये, जो आज पर्यटन और तीर्थाटन की धमाचौकड़ी की कीमत चुकाते हुए प्रलय की खाई में समाने जा रहा है. कल पूरी तरह बर्बाद होने से अच्छा है कि मसूरी में नियंत्रित पर्यटन शुरू हो, ताकि रोजगार और धरती बची रहे.

6- मसूरी में कार्टमैकेंजी रोड के पास कैम्पटी बायपास के लिए जो सुरंग निर्माण प्रस्तावित है, वह मसूरी को पूर्ण धंसाव की ओर ले जायेगी . सरकार इस सुरंग का निर्माण न करे,इसके विपरीत यातायात के लिए वैकल्पिक रूप से कार्टमैकेंजी रोड, हाथपांव से नीचे कंडी गांव बैंड तक चूनापत्थर खानों के लिए बने पुराने मार्ग के अवशेष को चौडाकर सरकार नया बायपास बना सकती है.

कल मसूरी जोशीमठ न बन जाये, इसलिए शहरवासियों को गंभीर होना चाहिए.

( जयप्रकाश उत्तराखंडी जी का यह लेख उनकी फेसबुक वाल से साभार  लिया गया है।)

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