लालटेन मेरी कहानी का उपकरण -My Lantern Story
-गोविंद प्रसाद बहुगुणा-
लालटेन की यात्रा लैटिन भाषा से शुरु हुई जहां इसको Lanterna बोलते थे फिर अंग्रेजी में यह Lantern बनी और भारत आते आते यह लालटेन बन गई। साहित्यकारों ने इसे प्रकाश पुंज तक कह दिया। शेक्सपियर ने भी कहा कि लालटेन मेरी पथ प्रदर्शक है – “God shall be my hope, my stay, my guide and lantern to my feet” अपने मित्र मंगलेश डबराल ने “पहाड़ पर लालटेन * एक कविता लिखी थी-
” दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर
एक तेज आंख की तरह
टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई…..”
अब इस लालटेन से जुड़ा अपने सेवाकाल का एक संस्मरण सुनाता हूं –
इस लालटेन की चिमनी की विशेषता यह थी कि इसमें “गंगा ग्लास बालावाली ” लिखा होता था ,यदि आज किसी के घर में वह चिमनी साबूत बची हो तो आप भी इसको चेक कर सकते हैं। गंगानदी के तट पर स्थित यह फैक्ट्री१९१८ के आसपास पंडित विष्णुदत्त शर्मा ने बालावाली जिला बिजनौर में स्थापित की थी । तब गंगा नदी का फाट बहुत चौडा था और जल भी काफी गहरा था, छोटी नाव भी चलती थी जिसमें मछुआरे मछली पकडते थे। विष्णुशर्मा जी के पुत्र फैक्ट्री मालिक हरिदत शर्मा ने मुझे बताया कि एक दिन मैने इसी नदी में यह मगरमच्छ बंदूक से मारा था जिसकी खाल में भूसा भरकर मैने इसे अपने ड्राइंग रूम की दीवार पर टांग दिया । मुझे तो वह जीवित मगरमच्छ लगता था अपने पूरे अंगों के साथ मानो दीवार पर चढ रहा हो । इतना विशाल वाल हैगिंग शोपीस मैने आजतक कहीं नहीं देखा जो पूरी दीवार पर पसरा हो । काश उस समय यदि मोबाइल होता तो उसकी फोटो यहां भी डालता।
इस मगरमच्छ के साथ फैक्ट्री से जुडा एक दिलचस्प प्रकरण है। कच्चा माल उपलब्ध न होने के कारण इस फैक्ट्री में १९७५- ७६ से निरन्तर बैठकी होती रहती थी जिसके कारण श्रमिकों को महिने में आधा वेतन ही मिलने लगा ,श्रमिकों में इस कारण उपज रहे असंतोष से हडतालों का सिलसिला बढने लगा । और नौबत यहां तक आ पहुंची कि फैक्ट्री मालिकों ने तालाबन्दी घोषित कर दी। इस औद्योगिक विवाद को सुलझाने के लिये बरेली से पधारे अपने एक वरिष्ठ अधिकारी तत्समय सहायक श्रम आयुक्त श्री पवनविहारी लाल श्रीवास्तव के साथ मैं भी बालावाली फैक्ट्री पहुंचा। फैक्ट्री मालिक हरिदत्त शर्मा के ड्राईंग रूम में जहां उस मगरमच्छ की खाल सशरीर टंगी हुई थी उसी में श्रमिक प्रतिनिधियों के साथ समझौता वार्ता चल रही थी । श्रमिक प्रतिनिधियों ने अपने समर्थन में तत्कालीन क्षेत्रीय विधायक श्री मुकन्दीसिंह को भी इस वार्ता में आमंत्रित किया था। दिलचस्प बात यह थी कि श्री मुकन्दीसिंह पहले उसी फैक्टी के एक मजदूर थे और हरिदत्त शर्मा ने एक बार उन्हें फैक्ट्री यूनियन का उपाध्यक्ष निर्वाचित करवाया और स्वयं को यूनियन का अध्यक्ष बनवा दिया। रजिस्ट्रार ट्रेड यूनियन ने जब इस चुनाव पर आपति की तो हरिदत्त शर्मा ने तर्क दिया कि मुझे कानून का वह प्रावधान बता दीजिए जिसके अनुसार कोई फैक्ट्री मालिक अपने प्रतिष्ठान की मजदूर यूनियन का अध्यक्ष निर्वाचित नहीं हो सकता उन परिस्थितियों में जब स्वयं मजदूरों ने ही उसको अध्यक्ष बनाया हो ।
सचमुच ऐसा निषेधात्मक कोई प्रावधान कानून में उस समय नहीं था लिहाजा हरिदत्त शर्मा काफी सालों तक यूनियन के भी अध्यक्ष बने रहे।
यह भी दिलचस्प तथ्य है कि स्थानीय विधायक मुकन्दीसिंह हरिदत्त शर्मा की मदद से विधायक बन पाये। खैर यहां बात हो रही थी समझौता वार्ता की
। वार्ता के दौरान मुकन्दीसिंह जी बार बार बोल रहे थे मैंं शासन प्रशासन से बात करूंगा । हरिदत्त जी आपको समझना पड़ेगा यह नहीं चलेगा तो हरिदत्त जी भी तैश में आकर बोले – देख भाई मुकन्दी मेरे साथ यह किन्तु और परन्तु नहीं चलेगा । जो फैक्ट्री को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करेगा मैं उसकी खाल में भूसा भरवाकर ऐसे ही इस दीवार पर टांग दूंगा जैसे इस मगरमच्छ को तुमने और मैने एक दिन मारकर फिर यहां टांग दिया था ” हरिदत्त के डायलॉग ने सबको सन्न कर दिया लेकिन पवनविहारी लाल जी की सूझ बूझ और शान्त स्वभाव के कारण स्थिति अप्रिय होने से बच गई। वार्ता के मैराथन गति के कारण विवाद सुलझ गया और ६८ दिनों का लाकआउट खुल गया । पवन विहारीलाल जी धार्मिक प्रवृत्ति के सज्जन पुरुष थे । गंगास्नान के बाद हम दोनों ने विजनौर के लिये प्रस्थान किया । बलबिन्दर कौर के बनाये परांठे उस दिन भी खाये। हां स्व कामरेड अलबेल सिंह मेरे निजी मित्र थे, उन्होने इस विवाद को निपटाने में हमारी बहुत मदद की । इस संस्मरण के मुख्य पात्र अब इस दुनियां से बिदा हो गये जिनमें फैक्ट्री मालिक हरिदत्त शर्मा,हमारे वरिष्ठ अधिकारी श्री पीबी लाल सहाब,और कामरेड अलबेलसिंह उल्लेखनीय हैं उन्हें मेरी भावपूर्ण श्रद्धांजलि।