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नारायण दत्त तिवारी को जैसा मैंने देखा

 

Jay Singh Rawat had many occasions to interview ND Tiwari

जयसिंह रावत

उत्तराखण्ड विधानसभा के मंगलवार 4 दिसम्बर से शुरू हुए शीतकालीन सत्र का पहला दिन राज्य की पहली निर्वाचित विधानसभा के पहले नेता सदन स्वर्गीय नारायण दत्त तिवारी को समर्पित रहा। इस श्रद्धांजलि सत्र में पक्ष और विपक्ष के सभी वरिष्ठ सदस्यों और मंत्रियों ने दिवंगत नेता के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालने के साथ ही उनके साथ अपने अनुभवों की यादें ताजा कीं।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर भी उनसे मिलते थे

Tiwari was easily available to anyone and specially mediamen. Jay Singh Rawat interviewing Tiwari for PTI agency.

मैं तिवारी जी को सन् 1977 से तब से जानता था जब वह संजय गांधी के साथ परेड ग्राउण्ड में आयोजित एक जनसभा को संबोधित करने आये थे। तब मैं डीएवी कालेज का छात्र था और अखबारों में लिखना शुरू कर चुका था। एक पत्रकार के रूप में समाचारों के लिये तो हम राम नरेश यादव से लेकर मुलायम सिंह, मायावती और कल्याण सिंह तक के मुख्यमंत्रियों से देहरादून में मिलते ही रहते थे लेकिन पत्रकारों की समस्याओं के बारे में हम लोग उन्हें लखनऊ में दो बार मिले।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में तिवारी जी जब भी देहरादून आते थे तो हम लोग परिपूर्णानन्द पैन्यूली जी के नेतृत्व में उनसे मिला करते थे। पैन्यूली जी पूर्व सांसद होने के नाते सभी बड़े नेता उनको जानते थे और उनके साथ बहुत आसानी से केन्द्र के मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों से तसल्ली से मुलाकात हो जाती थी। उन दिनों हमारी श्रमजीवी पत्रकार यूनियन हुआ करती थी जिसके अध्यक्ष कभी पैन्यूली जी तो कभी आचार्य गोपेश्वर कोठियाल जी हुआ करते थे। राधाकृष्ण कुकरेती जी यूनियन के स्थाई महामंत्री और मैं सबसे युवा सदस्य होने के नाते उनका स्थायी सहायक मंत्री हुआ करता था। तब संजय कोठियाल और मनमोहन लखेड़ा किशोरावस्था में थे। एक बार हमने पत्रकारों की समस्याओं को लेकर लखनऊ के रवीन्द्रालय में भी सम्मेलन किया जिसमें तिवारी जी को मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया था। उस समय हम स्वर्गीय सीएम लखेड़ा के नेतृत्व में लखनऊ गये थे। मैं दिल्ली में भी उनसे उनके वकील लेन स्थित आवास पर दो तीन बार मिला।

वह प्रधानमंत्री नही तो राष्ट्रपति बन ही सकते थे

हर इंसान के व्यक्तित्व के दो पहलू होते हैं। इंसान गुणों और अवगुणों का मिश्रण होता है। किसी इंसान में कोई भी अवगुण नहीं हांे, ऐसा संभव नहीं है। तिवारी जी के व्यक्तित्व का भी एक कृष्ण पक्ष अवश्य था, जिसका उन्होंने बहुत बड़ा खामियाजा भी भुगता। वह भारत के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बन सकते थे। वास्तव में उनके गुणों और उनके कृतित्व के आगे उनके अवगुण बौने हो जाते थे। खास कर उत्तराखण्ड आज उनके गुणों का ही लाभ उठा रहा है। उत्तराखण्ड ही क्यों ? उत्तर प्रदेश के विकास में उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता। नोयडा तो तिवारी जी की ही देन है। उत्तराखण्ड राज्य गठन के बारे में उनके नकारात्मक पक्ष को काफी प्रचारित किया जाता रहा। यह सही है कि गोविन्द बल्लभ पन्त और हेमवती बहुगुणा से लेकर नारायण दत्त तिवारी तक उत्तराखण्ड के सभी राष्ट्रीय स्तर के नेता उत्तराखण्ड राज्य की मांग के घोर विरोधी रहे हैं। तिवारी जी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने कहा था कि उत्तराखण्ड राज्य उनकी लाश पर बनेगा। लेकिन यह कोई नहीं बताता कि तिवारी ने यह बात कब कही और क्यों कही थी?

Tiwari had news value for national media. Jay Singh Rawat trying to get information from Tiwari.

उत्तराखण्ड राज्य के गठन में भी उनका योगदान था

बहरहाल जब नब्बे के दशक में उत्तराखण्ड आन्दोलन भड़का तो नारायण दत्त तिवारी को जनभावनाओं के दबाव में अपनी राय बदलनी पड़ी। उनकी बदली हुयी राय का ही नतीजा था कि एच.डी.देवेगौड़ा को 15 अगस्त 1997 को लालकिले की प्राचीर से पहली बार पृथक उत्तराखण्ड राज्य के गठन की घोषणा करनी पड़ी। उस समय तिवारी ने कांग्रेस छोड़ कर अर्जुन सिंह के साथ मिल कर तिवारी कांग्रेस बना ली थी और तिवारी कांग्रेस संयुक्त मोर्चा में शामिल थी। सतपाल महाराज भी उसी पार्टी में थे और गढ़वाल से तिवारी कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव जीत कर देवगौड़ा सरकार में राज्यमंत्री बने थे। उस समय पहली बार भारत सरकार की ओर से राज्य गठन की घोषणा होनी उत्तराखण्डवासियों की सबसे बड़ी जीत थी। देवेगौड़ा कर्नाटक के नेता थे और उन्हें उत्तराखण्ड से कोई लेना देना नहीं था। वैसे भी उस समय कई अन्य राज्यों की मांगें की जा रहीं थीं। लेकिन तिवारी और सतपाल महाराज ने देवेगौड़ा को ऐसा पाठ पढ़ाया कि उन्होंने लालकिले से भारत सरकार का संकल्प घोषित कर ही दिया। देखा जाय तो देवगौड़ा ने अटल बिहारी बाजपेयी का काम आसान कर दिया था। यही नहीं संसद में जब उत्तरांचल राज्य के गठन का विधेयक आया तो बिना कांग्रेस के समर्थन क विधेयक का पारित होना संभव नहीं था। उस समय तिवारी कांग्रेस का समर्थन दिलाने में भी तिवारी जी की भूमिका थी।

On the occasion of birth of new state of Uttaranchal on 9 November 2000.

तिवारी को मिलना बहुत ही आसान होता था

तिवारी आज के मुख्यमंत्रियों की तरह कड़े पहरों में जनता से दूर नहीं रहते थे। आज के मुख्यमंत्रियों की तरह तिवारी से मुलाकात करना खास लोगों के अलावा बाकी के लिये असंभव नहीं था। तिवारी जी दोपहर भोजन के बाद आराम कर सायं 5 बजे से लेकर आधी रात तक सर्वसाधारण के लिये अपने आवास पर उपलब्ध रहते थे। हमंे भी अगर इंटरव्यू या किसी अन्य उदे्श्य से कभी मुलाकात का 7 बजे का समय मिलता तो रात 10 बजे तक मुलाकात हो पाती थी। वह खास मेहमानों से अन्दर अपनी दो बैठकों में मिलते थे। कम खास लोगों से या अफसरों और पत्रकारों से बाहर की बैठक में मिलते थे। सबको एक-एक कर निपटाने के बाद वह बाहर के दो अन्य कमरों में इंतजार मंे बैठे आम मुलाकातियों के पास आते थे और एक-एक की बात सुन कर उनकी समस्या का निपटारा करते थे। जिस भी अधिकारी से सम्बन्धित मामला होता था उससे पहले स्वयं बात करते थे और फिर अदब से उस अफसर से उस मुलाकाती की बात कराते थे। मुलाकाती का काम हो न हो मगर वह पूरी तरह सन्तुष्ट होकर वापस घर चला जाता था।

 

उनका गुस्सा कभी चेहरे तक नहीं पहुंचता था

कई बार परेशान मुलाकाती उत्तेजित भी हो जाते थे लेकिन तिवारी जी अपने हंसी मजाक के खास अंदाज में सबको सन्तुष्ट कर लौटा देते थे। एक बार मैं अपने मित्र एस. एम.ए. काजमी, शिशिर प्रशान्त और अविकल थपलियाल आदि के साथ अपने मकान के नक्शे के सम्बन्ध में तिवारी जी से मिला। दरअसल एमडीडीए के लोगों ने घूस लेकर मेरे अगल बगल के सारे लोगों के नक्शे पास कर दिये मगर मैं रिश्वत देने वाला नहीं था तो मेरे नक्शे पर पंगा कर दिया। मैंने शासन से अपनी पत्नी के नाम के प्लाट का लैंडयूज चेंज करा दिया। मगर उसकी सर्किल रेट का शुल्क 100 प्रतिशत था, जिसका भुगतान करना कम से कम मेरे जैसे अल्प वेतनभोगी पत्रकार के लिये संभव नहीं था। उस सायं मैंने फरियादियों के साथ बैठ कर तिवारी जी को जब अपनी दर्ख्वास्त थमाई तो उन्होंने उस पर लिख दिया कि पत्रकारों के लिये जो नीति है उसके अनुसार भूउपयोग परिवर्तन का शुल्क लिया जाय। तिवारी जी का ये लिखना था कि मेरा मित्र शिशिर प्रशान्त भड़क उठे और कहने लगे कि तिवारी जी! आप जनता को इस तरह क्यों बेवकूफ बनाते हो। मुख्यमंत्री से कोई ऐसी बात करे तो मुख्यमंत्री का अहं चोटिल होना स्वाभाविक ही है, लेकिन तिवारी जी बिना गुस्सा किये कहने लगे, तो बोलो!  क्या चाहते हो। मैंने कह दिया कि हम पत्रकार 15 प्रतिशत तक भी भूउपयोग परिवर्तन शुल्क दे सकते हैं। तिवारी जी ने वही लिख दिया। लेकिन जब फाइल शासन में पहुंची तो उस विभाग में एक संयुक्त सचिव ओली हुआ करते थे। उन्होंने मेरा लिहाज कर मुझसे तो कुछ नही कहा मगर मेरे साथ ही मेरे पत्रकार साथी योगेश भट्ट से कह दिया कि तिवारी जी अगर जयसिंह रावत के नाम उत्तराखण्ड को कर दें तो क्या उत्तराखण्ड जयसिंह रावत के नाम से हो जायेगा? यही बात मुझे बतायी गयी तो मैं अपने मित्रों को लेकर फिर लड़ने के लिये तिवारी जी के पास चला गया। हमने यही बात तिवारी जी से कही तो उन्होंने बहुत ही सहजता से कह दिया कि फाइल देख लूंगा। कुछ दिन के बाद पता चला कि उन्होंने फाइल पर लिख दिया कि ‘‘विचलन से कर दिया जाय’’। इसके बाद मैं ओली के बॉस भास्करानंद से मिला तो उन्होंने मुझसे तकरार करने के बजाय मेरा आभार जताया और कहा कि आप की वजह से भूउपयोग परिवर्तन शुल्क का मामला पहली बार उत्तराखण्ड में व्यवहारिक होने जा रहा है। हम आपका ही नहीं बल्कि सारे भूउपयोग परिवर्तन के मामलों में शुल्क को पुनरीक्षित कर व्यवहारिक बना रहे हैं। दरअसल उसके बाद जो शुल्क 100 प्रतिशत था वह 50 प्रतिशत हो गया। पेट्रोल पम्प एवं शिक्षण संस्थाओं के लिये वह और भी कम हो गया और पत्रकारों के लिये 100 प्रतिशत से 15 प्रतिशत हो गया।

उनके मन की बात उगलवाना लगभग नामुमकिन था

मैंने 1978 से लेकर 2016 तक न जाने कितने नेताओं के इंटरव्यू लिये होंगे। राज्य बनने से पहले और राज्य बनने के बाद मैंने तिवारी जी के कई इंटरव्यू लिये हैं। मैंने तिवारी जी के अलावा भी वीर बहादुर सिंह और विश्वनाथ प्रतापसिंह के इंटरव्यू लिये है। एक बार मैंने संजय गांधी का इंटरव्यू भी देहरादून की जेल परिसर में लिया था। संजय गांधी की वह कवरेज टाइम्स ऑफ इंडिया में दूसरी लीड खबर के रूप में छपी थी। लेकिन मैंने इतनी घिसी हुयी रकम न पहले कभी देखी और न कभी देख पाऊंगा। कई बार भूमिगत लोगों के भी इंटरव्यू लेने के अवसर मिले मैं एक बार सुभाष घीसिंग का इंटरव्यू ले रहा था तो उन्होंने मुझसे पहले टेपरिकार्डर बंद करने को कह दिया। उन दिनों गोरखालैंड आन्दोलन चरम पर था इसलिये मेरे लिये घीसिंग का इंटरव्यू बहुत महत्वपूर्ण था। मैंने अपना छाटा सा टेप रिकार्डर उठा कर फिर घीसिंग की टेबल के आगे यह कह कर रख दिया कि यह बंद हो गया। घीसिंग उसके बाद मेरे सवालों का बेबाक जवाब देते रहे और उनकी बात रिकार्ड होती रही। तिवारी जी को हम इस तरह बेवकूफ नहीं बना सकते थे। मैंने उनसे 2002 से लेकर 2007 तक उनके कई इंटरव्यू लिये। एक इंटरव्यू तो सूचना विभाग के लिये भी लिया। कई बार उनको विवादित विषयों पर उलझाने और उगलवाने का प्रयास किया मगर हर बार मुझे लगा कि तुम पहाड़ को हिलाने का प्रयास कर रहे हो। उनसे कोई बात उगलवाना नामुमकिन ही था। उनसे अपनी विद्वता का प्रदर्शन करना अपनी मूर्खता ही होती थी। वो आदमी रात एक दो बजे तक जनता और सरकार के लोगों से मिलता था और फिर किताबें पढ़ने लगता था। पता नहीं कब सोता था। आज आप मुख्यमंत्री के सरकारी आवास में घुसना तो रहा दूर, उस ओर देख भी नहीं सकते। मैं एक बार मुख्यमंत्री के आवास वाले दफ्तर गया तो सिक्यौरिटी वाले ने मेरा खाली पर्स तक टटोला और उसमें जो एक पेन ड्राइव थी उसे भी जब्त कर लिया। ये उन मुख्यमंत्री जी का आवास था जो मुख्यमंत्री बनने से पहले मेरे पड़ोस में रहते थे और सुबह शाम मिलने के साथ ही मोहल्ले की हर सुख दुख की घड़ी में साथ रहते थे।

तिवारी पर लिखी किताब का संपादन

तिवारी जी की जीवनी पर मेरी एक करीबी रिश्तेदार ने एक किताब लिखी तो मुझे उस किताब का सम्पादन करने का अवसर मिला। उस दौरान मुझे तिवारी जी के बारे में पूरी जानकारी मिल सकी। मुझ पर बड़े भाई पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी का सदैव अर्शिवाद रहा। जाहिर है कि मैं उस किताब को पठनीय और संग्रहणीय बनाना चाहता था इसलिये मैंने जगूड़ी जी के आईने से उस किताब को गुजारना चाहा और भाई लीलाधर का बड़प्पन देखिये कि उन्होंने अपना बहुमूल्य समय दे कर मेरे द्वारा सम्पादित मेरी रिश्तेदार की उस पुस्तक को पठनीय और संग्रहणीय बनाया।

तिवारी जी मीडिया सलाहकार बनाना चाहते थे

तिवारी जी मुझे दशकों से जानते हुये भी मुलाकात के समय मेरा नाम नहीं लेते थे। ऐसा लगता था कि जैसे वह मुझे पहली बार मिल रहे हों। मुझे लगता था कि पंडित जी को मेरी जाति से परहेज है। मेरा संदेह बेबुनियाद नहीं था क्योंकि राजनीति में जातिवाद उतना ही चलता है जितना कि पत्रकारिता मंे चलता रहा है। हमारे उत्तराखण्ड में जातिवाद का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि पत्रकारिता का है। बीसवीं सदी की शुरुआत में गढ़वाली अखबार के साथ ही सरोला सभा भी शुरू हो गयी थी। गढ़वाल की हिन्दी पत्रकारिता के पितामह गिरजा दत्त नैथाणी  सेकुलर पत्रकार थे लेकिन वह दर दर भटकते ही मर खप गये थे। बहरहाल तिवारी जी ने अमृता रावत जी के सुझाव पर मुझे अपना मीडिया सलाहकार बनाने का प्रस्ताव मुझ से कर दिया।

Ratan Tata was delighted to meet his father’s friend ND Tiwari after 3 decades.

जब इंदिराजी रो पड़ीं

उन दिनों नया-नया राज्य बना था और हममें भी सत्ता का सुख चखने की लालसा जाग गयी। तिवारी जी के कहने से सचिव सूचना एन एन प्रसाद ने मेरी फाइल पर पूरी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद तत्कालीन सूचना मंत्री इंदिरा हृदयेश के पास अनुमोदन के लिये फाइल गयी तो उन्होंने कह दिया कि फाइल तब तक पास नहीं होगी जब तक जयसिंह रावत आ कर उनसे अपने पिछले समाचारों के लिये क्षमा याचना नहीं करेगा। मुझे पता नहीं भाई सुभाष थलेड़ी को यह बात याद हो या न हो मगर राजेश कुमार को तो जरूर याद होनी चाहिये। इन दोनों ने मुझ से कहा था कि मैं इंदिरा जी से मिल कर गिले शिकवे दूर करने के साथ ही उनसे माफी मांग कर अपनी फाइल अनुमादित करवा दूं। मुझे इंदिरा जी के पति डा0 हृदेश से भी मिलने का सुझाव दिया गया था लेकिन मेरे लिये यह प्रस्ताव बहुत आकर्षक नहीं था। इंदिरा जी के आगे गिड़गिड़ा कर पद पाना मुझे मंजूर नहीं था। बहुत संभव है कि मेरी फाइल अब भी सचिवालय में सुरक्षित होे। इसके बाद एक ऐसा भी अवसर आया जिसका वर्णन करना मेरे हिसाब से ओछापन होगा। फिर भी उस दिन विधानसभा स्थित उनके कार्यालय के सबसे अन्दर वाले निजी कमरे में मेरे सामने अपने राजनीतिक जीवन की कठिनाइयों को याद कर बहुत ही भावुक हो कर रो पड़ी थीं। शायद ही कोई इस स्थिति की कल्पना इंदिरा जी से करे।

वरिष्ठ नौकरशाहों को भी प्रशासन के गुर सिखाते थे

तिवारी का प्रशासनिक अनुभव ऐसा था कि एक बार मुख्य सचिव के तौर पर डा0 टोलिया ने हिमालयन हाइवे पर जानकारी देने के लिये केवल चार पत्रकारों को बुलाया जिनमें पीटीआइ के प्रतिनिधि के तौर पर मुझे भी बुलाया गया। हिमालयन हाइवे पर ब्रीफिंग करने के बाद डा0 टोलिया ने जलपान के दौरान हमें बताया कि उन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवा में इतने लम्बे समय के बाद अब पहली बार तिवारी जी के साथ बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है। डा0 टालिया नैनीताल प्रशासनिक अकादमी के निदेशक भी रहे हैं। उनका कहना था कि तिवारी जी के सानिध्य मंे उन्होंने शासन-प्रशासन की जो बारीकियां सीखीं वह अन्यत्र कहीं संभव नहीं थीं।

वह फलों से लदा एक वृक्ष ही था

हम जब पत्रकार की हैसियत से उनसे मिलते थे तो वह कभी भी अपने विशाल व्यक्तित्व का अहसास होने नहीं देते थे। हमें उनसे सीखने को ही मिलता था। हम उनसे किसी भी विषय पर चर्चा कर लेते थे। वह किसी भी विषय पर कभी भी बोल सकते थे। वह वास्तव में फलों से लदा वह वृक्ष था जो कि अपनी विद्वता और नम्रता से हमेशा झुका रहता था। हम कई बार उनके खिलाफ बहुत कड़ुवी बातें लिख देते थे लेकिन जब उनसे मिलते थे तो उनके व्यवहार में कभी भी अंतर नहीं पाते थे। आज मुख्यमंत्रियों के खिलाफ लिखने पर किसी के घर पर छापा पड़ जाता है तो किसी के खिलाफ मुकदमा दर्ज हो जाता है। वह प्रेस की आजादी के वास्तविक समर्थक थे। इसी उत्तराखण्ड में ऐसे भी मुख्यमंत्री आ गये जो कि जनता के लिये तालों में बंद हो गये। लोगों को लगता है कि वे स्थाई रूप से सर्किट स्थित मुख्यमंत्री आवास के निवासी हो गये। आज आप प्रधानमंत्री से अप्वाइण्टमेंट ले सकते हैं मगर उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री से मिलना असान नहीं है। एक बार एक स्टिंग आपरेशन में यहां तक खुलासा हुआ कि मुख्यमंत्री से मिलाने के लिये भी कुछ लोग लाखों रुपये की दलाली मांग रहे हैं।

जयसिंह रावत

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